वीरेंद्र नाथ भट्ट।

बहुजन समाज पार्टी से बगावत कर स्वामी प्रसाद मौर्य अब गैर यादव अतिपिछड़ी जातियों को गोलबंद कर अस्मिता या पहचान की राजनीति को स्थापित करने के अभियान में जुट गए हैं। मौर्य के निशाने पर मायावती भी हैं। बहुजन समाज पार्टी के अति पिछड़ी जातियों में आधार को नुकसान पहुंचाना उनका प्रमुख लक्ष्य है और वो मायावती को सबक सिखाने के अभियान में जुट गए हैं। मौर्य यदि बसपा के जनाधार में सेंध लगा सकते हैं तो जाहिर है समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही मौर्य के अगले कदम का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।

बाईस जून को पार्टी और उत्तर प्रदेश विधानसभा में नेता विपक्ष पद से त्यागपत्र देने के बाद मौर्य एक जुलाई को अपने समर्थकों का एक सम्मलेन भी कर चुके हैं। इसमें उन्होंने घोषणा की थी कि अति पिछड़े वर्ग की ताकत का प्रदर्शन करने के लिए लखनऊ में बाईस सितम्बर को रैली करेंगे। मौर्य इसी वर्ग से आते हैं। मौर्य अभी अपने मंसूबों को जाहिर करने से बच रहे हैं लेकिन जिस तरह से वो सभी दलों के गैर यादव पिछड़े नेताओं को गोल बंद करने का प्रयास कर रहे हैं उससे यह स्पष्ट है की वो अपनी ताकत को एकत्र कर 22 सितंबर की रैली में एक नए दल के गठन की घोषणा कर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पूर्व बीजेपी से परोक्ष तालमेल के लिए सौदेबाजी कर सकते हैं।

मौर्य के बसपा से अलग होने का मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने स्वागत करते हुए कहा था कि वो एक अच्छे व्यक्ति हैं जो गलत पार्टी में थे। लेकिन अगले ही दिन स्वामी प्रसाद मौर्य को गुंडों, माफिया की पार्टी बताकर समाजवादी पार्टी के विकल्प पर विराम लगा दिया था। अब भी समाजवादी पार्टी को उम्मीद है कि चुनाव पूर्व उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति में मौर्य के लिए बीजेपी से परोक्ष या प्रत्यक्ष तालमेल करना मुश्किल हो जायगा। वैसे भी मौर्य बौद्ध धर्म मतावलंबी हैं और मौर्य, शाक्य और सैनी जाति के लोग सम्राट अशोक को अपना नायक मानते हैं। मौर्य जाति की आबादी पूर्व और मध्य उत्तर प्रदेश में है तो शाक्य आबादी पश्चिम उत्तर प्रदेश में है जहां इनको काछी भी कहा जाता है।

मौर्य के निकटवर्ती एक नेता ने कहा कि हाल में राजस्थान में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की एक पत्रिका में सम्राट अशोक के खिलाफ लेख छपा था। उसमें सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म को अपनाने और उनके अहिंसा के सिद्धांत को भारत की गुलामी के लिए जिम्मेदार बताया गया है और मौर्य समाज में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई है। स्वामी प्रसाद मौर्य के करीबी लोगों का कहना है कि बीजेपी के विकल्प पर गौर करने के पहले मौर्य को समाज के प्रमुख लोगों से सलाह मशविरा करना चाहिए ताकि चुनाव के पूर्व बसपा व अन्य दल हमारे लिए कोई समस्या ना पैदा कर सकें।

बीजेपी से दूरी बनाए रखने के लिए स्वामी प्रसाद मौर्य पिछड़े वर्ग के लिए सत्ताइस प्रतिशत आरक्षण के तीन भागों में वर्गीकरण के मुद्दे पर बोलने से बच रहे हैं क्योंकि उनको भय है कि वे बीजेपी समर्थक माने जाएंगे। 2001-02 में बीजेपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने सामाजिक न्याय समिति गठित कर सत्ताइस प्रतिशत आरक्षण पर यादवों के एकाधिकार को तोड़ने के लिए पिछड़े वर्गों के आरक्षण का तीन भागों में वर्गीकरण किया था। अति पिछड़े वर्ग के अनेक नेता मौर्य से मांग कर रहे हैं कि आरक्षण के वर्गीकरण को मुद्दा बनाएं। अन्यथा उनका राजनीतिक अभियान परवान नहीं चढ़ेगा।

राजनीतिक टीकाकारों का मत है कि अभी अति पिछड़ों के एक राजनीतिक वोट बैंक के रूप में पहचान का समय नहीं आया है क्योंकि जमीनी स्तर पर इन जातियों को गोलबंद करने के लिए ठोस काम ही नहीं किया गया है। यदि स्वामी प्रसाद मौर्य अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में इन जातियों को गोल बंद करने में कामयाब हो जाते हैं तो वे निश्चित ही बहुजन समाज पार्टी को नुकसान पहुंचा सकते हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति के इतिहास पर नजर डालें तो स्पष्ट दिखता है कि अति पिछड़े अभी अपना दल बनाने की स्थिति में नहीं हैं। ब्राह्मण, राजपूत, यादव, जाटव और मुस्लिम ही अपने समुदाय के वोट के आधार पर ही पार्टी बना सके हैं।

तो मौर्य किधर जाएंगे?

तो मौर्य के पास क्या विकल्प है। वो किधर जाएंगे? क्या नया दल बनाकर वह उत्तर प्रदेश की राजनीति में पहचान बनाकर अपना अस्तित्व कायम रख पाएंगे?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के प्रोफेसर डॉ. विवेक कुमार का मत है- ‘उत्तर प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष केशव मौर्य की तरह मौर्य भी बहुजन समाज पार्टी के प्रायोजित नेता थे। बसपा ने अपने कोर वोट बैंक की ताकत के बल पर अति पिछड़े मौर्य-कुशवाहा, शाक्य-सैनी आदि जातियों में अपनी पैठ बनाने के लिए स्वामी प्रसाद मौर्य को उभारा था। उनको पहले विधान परिषद का सदस्य बनाया। फिर सरकार में मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और विधानसभा में नेता विपक्ष। बसपा के कारण प्रदेश की राजनीति में मौर्य की पहचान बनी। यदि मौर्य इसको अपनी निजी उपलब्धि समझने लगें तो यह उनका विचार हो सकता है और वो अपना विचार रखने के लिए स्वतंत्र हैं।’

विवेक कुमार ने कहा कि उत्तर प्रदेश की जमीनी हकीकत भिन्न है। यहां अति पिछड़ी जातियों का वो रसूख या प्रभुत्व नहीं है जो पिछड़े वर्ग की छह सात प्रमुख जातियों जैसे यादव, कुर्मी, लोध, गुज्जर, जाट आदि का है। विवेक कुमार के अनुसार- ‘अति पिछड़ी जातियों की संख्या पिछड़े वर्ग में अवश्य चालीस प्रतिशत के लगभग है। लेकिन इनकी आबादी प्रदेश के पचहत्तर जिलों और चार सौ तीन विधानसभा क्षेत्रों में बिखरी हुई है। ये किसी भी दल के राजनीतिक नेतृत्व को प्रभावित नहीं कर सकते और सौदेबाजी करने में सक्षम नहीं हैं। शिक्षा के अभाव के कारण इस वर्ग की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी सीमित है। इस कारण इनकी राजनीतिक गोलबंदी भी आसान काम नहीं है। एक विधानसभा क्षेत्र में इनकी संख्या लगभग बीस प्रतिशत है लेकिन यह ब्राह्मण, राजपूत, यादव, मुस्लिम और जाटव जातियों के समान संगठित नहीं हैं। ये छोटी छोटी जातियों में विभाजित हैं। अति पिछड़ी जातियों का लगभग चालीस प्रतिशत वोट पचपन जातियों में छितरा हुआ है। यदि अति पिछड़ी जातियां किसी एक दल से जुड़ जाती हैं तो निश्चित ही वे उस दल के लिए बोनस साबित होंगी और वे हार जीत के अंतर को घटा बढ़ा सकती हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि इन जातियों में राजनीतिक चेतना का विस्तार हो और उनको एक मुद्दे पर गोलबंद किया जा सके।

लखनऊ यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डॉ. आशुतोष मिश्रा का मत है कि भारतीय जनता पार्टी तो जनसंघ के समय से ही अति पिछड़ों की पार्टी रही है। साठ, सत्तर के दशक में भारतीय जनसंघ के सभी प्रमुख नेता इसी वर्ग के थे। उत्तर प्रदेश में बीजेपी अति पिछड़ों को यदि महाराष्ट्र के ‘माधब मॉडल’ (माली, धनखर, बंजारा) पर संगठित कर सके तो उसे अवश्य लाभ मिल सकता है। बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में संख्या बल के आधार पर छोटी जातियों के रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा अदि को लामबंद कर सफलता हासिल की थी और इसे उत्तर प्रदेश में भी किया जा सकता है।

डॉ. मिश्र ने कहा कि उत्तर प्रदेश में 265 सीट जीतने के लक्ष्य को हासिल करने में बीजेपी के लिए अति पिछड़े मतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि चार प्रतिशत मतों के इधर उधर होने से तय होता है किस दल की सरकार बनेगी। 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने लगभग पच्चीस फीसदी मत हासिल कर 80 सीटों पर सफलता पाई और समाजवादी पार्टी ने उनतीस परसेंट वोट प्राप्त कर 224 सीटें जीत लीं। यानी चार प्रतिशत मतों के आधार पर तीन सौ से अधिक सीटों पर हार जीत तय होती है। चार-पांच प्रतिशत अति पिछड़े जिस ओर चले गए तो पासा पलट देंगे लेकिन अभी अति पिछड़े की राजनीति इतनी परिपक्व नहीं हुई है। डॉ. मिश्र ने कहा कि अति पिछड़े अकेले कुछ नहीं कर पाएंगे। लेकिन यदि किसी दल के साथ एकमुश्त चले गए तो राजनीति में बुनियादी बदलाव ला सकते हैं।

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अति पिछड़ा वर्ग महासंघ के अध्यक्ष डॉ. पीसी पतंजलि ने कहा कि ‘सत्ताइस फीसदी आरक्षण के वर्गीकरण की स्पष्ट मांग किए बिना स्वामी प्रसाद मौर्य अतिपिछड़ों को संगठित करने का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएंगे। 2012 के विधानसभा चुनाव के पहले बसपा से अलग होने के बाद के बाद बाबूसिंह कुशवाहा भी यही काम कर चुके हैं जो स्वामी प्रसाद मौर्य आज कर रहे हैं। कुशवाहा ने भी आरक्षण के मुद्दे को जोरशोर से उठाने से परहेज किया था और यही सोच मौर्य की भी है। हमें इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि आरक्षण के वर्गीकरण को मुद्दा बनाने से किस दल को लाभ मिलता है। अति पिछड़ों को आरक्षण में केवल अपना हिस्सा चाहिए।’ डॉ. पतंजलि ने कहा कि ‘2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में इस मुद्दे को शामिल किया था लेकिन चुनाव के दौरान भूल कर भी इस विषय पर चर्चा नहीं की।’

डॉ. पतंजलि ने कहा कि ‘मण्डल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद केंद्र सरकार ने 13सितम्बर 1993 को ओबीसी वर्ग के लिये सरकारी नौकरियों में सत्ताइस प्रतिशत आरक्षण का निर्णय लिया। इस निर्णय को लागू करने के आदेश राज्य सरकारों को भी भेजे गये। मार्च 1994 में उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य की सेवाओं में पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के लिये 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया। पिछड़ों में भूस्वामी व राजनैतिक रूप से सशक्त जातियों को भरपूर लाभ मिला परन्तु शिल्पकार वर्ग की व पेशेवर व्यवसाय वाली, खुली मजदूरी करने वाली अनेक अति पिछड़ी जातियों को ओबीसी आरक्षण का लाभ उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं के बराबर ही मिला है। परिणाम स्वरूप उनकी स्थिति अनुसूचित जाति से भी बदतर होती चली गई। संविधान की धारा 16(4) व समान अवसर देने की नीति के विपरीत परिणाम देखने को मिल रहा है। उनकी उपेक्षा के परिणाम स्वरूप समाज में असमानता बढ़ी है। अति पिछड़ी जातियों में असन्तोष अपनी चरमसीमा पर है। निश्चित है कि इसका प्रभाव चुनावी समीकरण भी बदल सकता है।’

ओबीसी को दो भागों में बांटना जरूरी
इस विस्फोटक स्थिति का आभास मंडल आयोग के एक सदस्य श्री एल.आर. नायक को था और उन्होंने अपनी असहमति प्रकट करते हुए उसी समय चेताया था। उनका कहना था कि आरक्षण देने के लिए पिछड़ी जातियों को दो भागों में बांटा जाएगा तभी इसका लाभ सभी को मिल सकता है। इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक इन्दिरा साहनी निर्णय में सरकार को छूट दी है कि पिछड़ों, अति पिछड़ों का वर्गीकरण कर 27 प्रतिशत का समानुपातिक बंटवारा किया जा सकता है। सर्वाेच्च न्यायालय ने आन्ध्र प्रदेश के वर्गीकरण का हवाला देते हुये सम्पन्न व विपन्न पिछड़ों को अलग करने के पक्ष में अपना मत भी प्रकट किया।

2006 में झारखण्ड के अत्यन्त पिछड़ा वर्ग छात्रसंघ बनाम झारखण्ड राज्य के इसी प्रकार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि पिछड़ों एवं अति पिछड़ों को एक ही वर्ग में रखना संविधान की धारा 14 का उल्लंघन होगा। इसी प्रकार असमान वर्गों को समान रूप से मानना भी संविधान की धारा 14 का उल्लंघन है। डा. पतंजलि ने कहा, ‘अति पिछड़े वर्गों विकास हेतु, उनके जीवन यापन को ऊंचा उठाने हेतु पिछड़ा वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण का वर्गीकरण समाज का सबसे ज्वलंत मुद्दा है और स्वामी प्रसाद मौर्य इस पर खामोशी ओढ़े हैं। इस नीति से तो उनको अति पिछड़ों का समर्थन मिल चुका।’