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आर्थिक आधार पर आरक्षण 

साल 2019 की शुरुआत में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीति का वह पासा फेंका है, जिससे विपक्ष चारों खाने चित हो गया. गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की मांग वैसे तो काफी पुरानी है, लेकिन किसी को यह इल्म नहीं था कि मोदी सरकार दो ही दिन में गरीब सवर्णों को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन कर देगी. पिछले साढ़े चार सालों में प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे फैसले लेकर यह साबित किया है कि वह चौंका देने वाले फैसले लेने में माहिर हैं. वह जोखिम से भरा फैसला लेने में जरा भी हिचकिचाते नहीं हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गरीब सवर्णों को 10 फीसद आरक्षण देने का फैसला ऐतिहासिक है. यह एक मास्टर स्ट्रोक है, जिसका असर लोकसभा चुनाव 2019 पर साफ दिखेगा. लेकिन सवाल यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने यह फैसला आखिर लिया क्यों? और, इस फैसले के पीछे सरकार की मंशा क्या है?

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधासभा चुनावों से पहले तक भारतीय जनता पार्टी को यह भ्रम था कि वह चुनाव जीतने वाली मशीन बन चुकी है. सीधी लड़ाई में कांग्रेस पार्टी उसे हरा नहीं सकती. लेकिन, राजनीति में अति-आत्मविश्वास या घमंड हानिकारक होता है. प्रजातंत्र में वैसे भी अहंकार के लिए कोई जगह नहीं होती. चुनाव में तो यह और भी घातक साबित होता है. भाजपा इस जमीनी हकीकत से बिल्कुल अनजान थी कि सवर्ण मतदाता उससे दूर जा चुके हैं. जो लोग 2014 में हर-हर मोदी, घर-घर मोदी के नारे लगा रहे थे, वे पार्टी से काफी नाराज हैं. कई शहरों में भाजपा को वोट देने वाले लोगों ने सडक़ पर उतर कर धरना- प्रदर्शन भी किया, लेकिन दंभ और अहंकार से लबरेज भाजपा को लगा कि यह सब विपक्ष द्वारा प्रायोजित है. उसने ऐसे लोगों की नाराजगी दूर करने की जहमत नहीं उठाई. नतीजा यह हुआ कि भाजपा के गढ़ माने जाने वाले तीन बड़े राज्य एक ही झटके में उसके हाथ से फिसल गए. भाजपा की इन राज्यों में हार की एक बड़ी वजह सवर्णों की नाराजगी रही. लेकिन सवाल यह है कि सवर्ण भाजपा से आखिर क्यों नाराज हुए?

सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च 2018 को एससी एंड एसटी एक्ट पर एक फैसला दिया. अदालत ने अपने आदेश में कहा कि इस अधिनियम के अंतर्गत आरोपियों की गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है और प्रथम दृष्टया जांच और संबंधित अधिकारियों की अनुमति के बाद ही कठोर कार्रवाई की जा सकती है. यदि प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है, तो अग्रिम जमानत देने पर पूरी तरह से प्रतिबंध नहीं है. एफआईआर दर्ज होने के बाद आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी नहीं होगी. मतलब यह कि दलितों से जुड़े मामले में किसी आरोपी को गिरफ्तार तभी किया जा सकता है, जब प्रारंभिक जांच में आरोप की पुष्टि हो. इस फैसले के पहले ऐसे मामलों में सीधे गिरफ्तारी होती थी और जमानत भी नहीं मिलती थी. इस कानून के दुरूपयोग का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया था. लेकिन उसके इस आदेश के बाद बड़ा विवाद पैदा हो गया. कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने यह झूठ फैला दिया कि मोदी सरकार दलितों के अधिकारों को खत्म कर रही है. अदालत के फैसले पर राजनीति शुरू हो गई. भाजपा विपक्ष के निशाने पर आ गई. फैसला सुप्रीम कोर्ट का था, लेकिन मोदी सरकार कठघरे में खड़ी हो गई.

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कांग्रेस और दलित संगठनों ने भारत बंद का ऐलान किया, जिसमें जमकर हिंसा हुई. मोदी सरकार पर दलित विरोधी होने का आरोप लगने लगा, वह बैकफुट पर आ गई. आनन-फानन में उसने पहले यह आश्वासन दिया कि वह अदालत में पुनरीक्षण याचिका दाखिल करेगी. बाद में केंद्र सरकार ने अध्यादेश के जरिये संशोधन करके उसे पुराने स्वरूप में बहाल कर दिया. छह अगस्त २०१८ को मोदी सरकार ने संसद में एससी-एसटी (अत्याचारों की रोकथाम) विधेयक में संशोधन करके अदालत का फैसला पलट दिया और कानून पास कर दिया. भाजपा गड्ढे से निकल कर कूएं में गिर गई. दलितों को अधिकार देने की कोशिश में वह अपने पारंपरिक वोट बैंक से हाथ धो बैठी. सवर्ण संगठनों ने छह सितंबर २०१८ को भारत बंद का आह्वान कर दिया. कई जगह पर भाजपा नेता ही सवर्ण आंदोलनकारियों के निशाने पर आ गए. पार्टी को ऊंची जातियों के संगठनों का आक्रोश झेलना पड़ा. सवर्णों के विरोध की आग मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तक पहुंच गई. इन तीनों राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले थे. सवर्णों का विरोध आंदोलन कितना कारगर है, वह इन चुनावों में तय होना था.

जब नतीजे सामने आए तो देश के सारे राजनीतिक दलों को पता चल गया कि सवर्णों को नाराज करके चुनाव जीतना कितना मुश्किल है. इन राज्यों, खासकर मध्य प्रदेश में सवर्ण भाजपा के समर्थक रहे हैं. लेकिन, मोदी सरकार के फैसले की वजह से वे इतने नाराज हो गए कि उनके एक बड़े हिस्से ने कांग्रेस को वोट दिया और जो कांग्रेस को वोट नहीं देना चाहते थे, उन्होंने नोटा का बटन दबा दिया. पूरे मध्य प्रदेश में कुल  5,42,295 लोगों ने नोटा पर वोट डाले, जो 1.4 फीसद वोटों से ज्यादा है. 22 सीटों पर नोटा पर पड़े वोट जीत के अंतर से ज्यादा थे. इनमें से 13 सीटें ऐसी थीं, जहां अगर लोगों ने नोटा पर वोट न दिया होता, तो भाजपा जीत गई होती. वह बड़ी आसानी से मध्य प्रदेश में सरकार बना लेती. हैरानी की बात तो यह है कि मध्य प्रदेश में चार मंत्री ऐसे थे, जिनकी हार का अंतर नोटा से कम है. मतलब साफ है कि भाजपा की हार की वजह वे सवर्ण समर्थक थे, जो अब तक पूरी तरह उसके साथ खड़े थे. उन्होंने दलितों से संबंधित कानून के चलते नोटा का बटन दबा दिया. तीन राज्यों में हार के बाद सहमी भाजपा सवर्णों का दिल फिर से जीतने के लिए नई रणनीति बनाने में जुट गई.

प्रधानमंत्री मोदी को एक मास्टर स्ट्रोक की तलाश थी, जो यूपीए सरकार के दौरान बनाई गई एसआर सिन्हा कमीशन की रिपोर्ट में मिला. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था तो पहले से थी. 1990 में अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिया गया. इसके बाद आर्थिक तौर पर पिछड़े समाज की पहचान और उसे आरक्षण का लाभ देने की कोशिश शुरू हुई. इसी के तहत जुलाई 2006 में मेजर जनरल रिटायर्ड एसआर सिन्हा की अध्यक्षता में ईबीसी कमीशन गठित किया गया, जिसका काम ईबीसी यानी आर्थिक तौर पर पिछड़े वर्ग की पहचान कर और उनकी दशा देखकर सिफारिश करना था. सिन्हा कमीशन ने 2010 में अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें सुझाव दिया गया कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को दलितों की तरह ही आरक्षण मिलना चाहिए. आरक्षण न पाने वाले आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की आबादी करीब 17 फीसद है. रिपोर्ट में इस वर्ग को आरक्षण देने सहित 14 सिफारिशें की गई थीं. खास तौर से सवर्ण जातियों को नौकरी, स्कूल-कॉलेज में प्रवेश में आरक्षण देने की सिफारिश थी

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आठ जनवरी को लोकसभा में संविधान संशोधन बिल पास कराने से तीन दिन पहले ही एक कैबिनेट नोट तैयार किया गया, जो प्रधानमंत्री के आवास पर एक विशेष बैठक में बनाया गया था. बिल की पूरी तैयारी बेहद ही खुफिया तरीके से की गई. ज्यादातर कैबिनेट मंत्रियों और पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं को भी इस बारे में कोई भनक नहीं थी. यूपीए सरकार के दौरान साल 2013 में इस रिपोर्ट पर चर्चा भी हुई थी, लेकिन कांग्रेस के नेता सवर्णों को आरक्षण देने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. सिन्हा कमीशन के सुझावों को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि उन पर अमल करने से सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण पर 50 फीसद की पाबंदी खत्म हो जाएगी. जो काम यूपीए सरकार के दौरान होना था, वह तब नहीं हो सका, लेकिन मोदी सरकार ने हिम्मत दिखाई और एसआर सिन्हा कमीशन रिपोर्ट लागू करने के लिए संविधान में संशोधन कर दिया. यह कानून आने के बाद 60 फीसद तक आरक्षण देने का रास्ता साफ हो गया है.

भारतीय जनता पार्टी ने इस पहल से एक साथ कई समस्याओं का समाधान निकाल लिया है. पहला यह कि इस फैसले से वह नाराज सवर्ण समाज का दिल जीतने में कामयाब हुई. दूसरा यह कि तीन राज्यों में हुई हार का लोकसभा चुनाव पर होने वाले असर की आशंका खत्म हो गई और तीसरा यह कि विपक्ष के हाथ से आरक्षण जैसा बड़ा मुद्दा छिन गया. जबसे केंद्र में मोदी की सरकार आई है, तबसे देश के कई राज्यों में आरक्षण को लेकर आंदोलन हो रहे हैं. हरियाणा में जाट आरक्षण की मांग कर रहे हैं, तो गुजरात में पटेल. महाराष्ट्र में मराठा समुदाय भी आरक्षण के लिए अभियान चला रहा है. इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकार है और पार्टी को लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ रही है. पटेल समुदाय की वजह से नरेंद्र मोदी और अमित शाह की राजनीतिक साख को बड़ा झटका लगा था, जब गुजरात में भाजपा की सीटें कम हो गई थीं. और, हाल में हुए तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा. 2019 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से यह पहल मोदी का मास्टर स्ट्रोक है, क्योंकि एक ही झटके में पटेल, जाट एवं मराठा आरक्षण का रास्ता खुल गया है. साथ ही आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहे संगठनों की राजनीतिक दखल की क्षमता पर लगाम लग गई है.

सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देना महज एक इत्तेफाक नही है, पिछले कई वर्षों से हम राष्ट्र को आरक्षण से मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे है, किन्तु  देश की वर्तमान राजनीतिक व्यस्था शायद आरक्षण मुक्त भारत की परिकल्पना नही कर सकती यह जानते हुए कि यह राष्ट्रहित में नही है. आंदोलन के लिए हमने पूरे भारत मे दौरे किये, संगठनों को जोड़ा और तो और सभी समाज को साथ लेकर सत्ताधारी सरकारों से जंग लड़ी. भाजपा हो या कांग्रेस कहीं न कहीं देश का बड़ा वर्ग अपने आप को उपेक्षित महसूस कर रहा था. परिणामस्वरूप पिछले तीन विधानसभा चुनावों में एग्जिट पोल की धज्जियां उड़ाकर सवर्णों के आक्रोश से बाजी पलट गई, सत्ता और विपक्ष भयभीत हो गए कि अब सवर्णों को अनदेखा नही किया जा सकता.

-अवनीश सिंह, राष्ट्रीय अध्यक्ष, अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा युवा

प्रधानमंत्री मोदी के इस फैसले के बारे में जैसे ही सुगबुगाहट हुई, विपक्ष ने इसे जुमला बता दिया. विपक्ष के बयानों से ही पता चल गया कि वह सरकार की इस पहल से कितने बैकफुट पर आ गया है. मोदी विरोधी राजनीतिक विश्लेषकों ने फौरन न सिर्फ इसे गैर संवैधानिक करार दिया, बल्कि यह दलील देना शुरू कर दिया कि सवर्णों को दिया जाने वाला आरक्षण संविधान की भावना के खिलाफ है. लोकसभा में वोटिंग से पहले टीवी चैनलों में हुई बहस में विपक्षी नेताओं ने इसे महज वोट के लिए जनता की तरफ फेंका गया लॉलीपॉप बता दिया. कुछ ने तो यहां तक कहा कि जो सरकार तीन तलाक कानून पास नहीं करा सकी, वह सवर्णों के आरक्षण का बिल कैसे पास करा सकती है? संविधान संशोधन के लिए दो तिहाई बहुमत सरकार के पास नहीं है, इसलिए मोदी सरकार ने लोगों को भ्रमित करने के लिए एक तमाशा किया है. हकीकत यह है कि मोदी विरोधी लॉबी और विपक्षी नेताओं के पास कोई तार्किक जवाब नहीं था. उन्हें समझ में आ गया था कि इस मुद्दे के बाद न तो पटेल हंगामा कर पाएंगे और न मराठा आरक्षण पर राजनीति हो पाएगी. विपक्ष, खासकर कांग्रेस पार्टी यह समझ ही नहीं सकी कि इस बिल का विरोध करना है या समर्थन. कांग्रेस के नेता मीडिया के सामने मोदी की इस पहल का विरोध करते रहे. लोकसभा और राज्यसभा में बहस के दौरान भी इसे राजनीति से प्रेरित बताते रहे, लेकिन जब वोटिंग की बारी आई, तो वे इस बिल के विरोध में वोट करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. क्योंकि, उन्हें भी पता चल गया था कि प्रधानमंत्री मोदी ने एक ही झटके में आरक्षण के नाम पर देश में चल रहे आंदोलनों की हवा निकाल दी है.

इस फैसले से भारतीय जनता पार्टी को कितना फायदा पहुंचेगा, यह समझने के लिए कुछ आंकड़ों पर ध्यान देना जरूरी है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 282 सीटें मिली थीं, जिनमें से 256 सीटें 14 राज्यों से आई थीं. इन 14 राज्यों में कुल 341 सीटें हैं, जिनमें से करीब 180 सीटों पर सवर्ण मतदाता निर्णायक स्थिति में हैं. मतलब यह कि हार-जीत का फैसला सवर्ण मतदाता करते हैं. उत्तर प्रदेश में 35-40, महाराष्ट्र में 25 और बिहार में 20 सीटों पर सवर्णों का दबदबा है. वहीं मध्य प्रदेश में 14, राजस्थान में 14 और गुजरात में 12 सीटों पर सवर्ण मतदाता हार-जीत तय करते हैं. इसी तरह झारखंड में छह, हरियाणा, दिल्ली और उत्तराखंड की पांच-पांच, हिमाचल की चार सीटों पर सवर्ण मतदाता निर्णायक हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी सरकार ने यह फैसला 2019 के लोकसभा चुनाव में फायदा उठाने के लिए किया है. इसके पीछे सवर्णों के वोट हासिल करने की मंशा है. लेकिन यह आलोचना का विषय हरगिज नहीं हो सकता. हर सरकार वोटों के लिए नीतियां बनाती है. हर राजनीतिक दल वही फैसला लेता है, जिससे उसके वोटों में वृद्धि हो. यह हर राजनीतिक दल का कर्तव्य है कि वह ज्यादा से ज्यादा वोट पाने के लिए रणनीति बनाए. ताकि ज्यादा से ज्यादा सीटें जीत सके और सरकार बनाए. मोदी सरकार ने वही किया है, जो एक राजनीतिक दल को करना चाहिए. सवर्णों के लिए 10 फीसद आरक्षण का कानून बनाना मोदी सरकार का एक ऐसा मास्टर स्ट्रोक है, जो लोकसभा चुनाव 2019 की दिशा और दशा बदल सकता है.

मुसलमानों को भी मिलेगा लाभ

सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को दिए जाने वाले इस आरक्षण का लाभ केवल हिंदू धर्म नहीं, बल्कि उन सभी धर्मों के सामान्य वर्ग को मिलेगा, जिनके कुछ वर्गों को किसी न किसी रूप में आरक्षण दिया जा रहा है. देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक धर्म यानी मुसलमानों को भी इसका फायदा मिलने वाला है. ध्यान रहे कि मुसलमानों में भी जातियों का विभाजन है. अलग-अलग राज्यों में उनकी अलग-अलग जातियों को पिछड़े वर्ग का दर्जा दिया गया है. पिछड़े वर्ग की केंद्रीय सूची में भी कसाई, ओमार, चिक, नालबंद, पमारिया आदि कई मुसलमान जातियां हैं, जिन्हें अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) माना गया है. उन्हें ओबीसी कोटे में आरक्षण का लाभ मिलता है. हालांकि, मुसलमानों में कई जातियां ऐसी हैं, जो खुद को एससी की श्रेणी में डालने के लिए आंदोलन कर रही हैं.

 

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पसमांदा मुसलमानों की भी मांग अपने को अत्यंत पिछड़ा वर्ग से अनुसूचित जाति में करने की रही है. लेकिन मुस्लिम धर्म में भी कुछ जातियों को सामान्य श्रेणी में रखा गया है, जिन्हें अब तक आरक्षण का फायदा नहीं मिलता था. शेख, सैय्यद, पठान, काजी, मिर्जा आदि जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है. हालांकि, कुछ संगठन सभी मुसलमानों को ओबीसी में डाले जाने की मांग करते रहे हैं. सच्चर समिति की रिपोर्ट में मुसलमानों की आर्थिक स्थिति बदतर होने की बात कही गई थी. रंगनाथ मिश्र आयोग ने मुसलमानों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति की विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी. रंगनाथ मिश्र आयोग ने उनके सामाजिक पिछड़ेपन को देखते हुए उनकी स्थिति हिंदू दलितों से भी बदतर बताई थी. आयोग की रिपोर्ट में मुसलमानों में जातियां होने की बात कही और संविधान संशोधन के माध्यम से अनुसूचित जाति के लिए दी गई शर्तों में से धार्मिक बाध्यता समाप्त करने की सिफारिश की गई थी. आयोग ने मुसलमानों के लिए आरक्षण की अनुशंसा भी की थी. अब तक केवल ओबीसी की श्रेणी में आने वाले मुसलमानों को ही आरक्षण का लाभ दिया जा रहा था, लेकिन आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था लागू होने के बाद मुसलमानों की अगड़ी जातियों को भी आरक्षण का फायदा मिलने लगेगा.

किन सवर्णों को मिलेगा आरक्षण

  • जिसकी सालाना आय आठ लाख से कम हो
  • परिवार के पास पांच एकड़ या उससे कम खेत, जमीन हो
  • जिसका 1000 वर्ग फुट से कम जमीन पर मकान हो
  • कस्बों में 200 गज कम जमीन पर मकान हो
  • शहरों में 100 गज से कम जमीन पर मकान हो

मोदी जी ने सवर्ण समाज के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का निर्णय लिया है. इसके लिए समस्त ब्राह्मण समाज में ख़ुशी की लहर है.  मोदी जी ने जो कर दिखाया है वो किसी भी राजनीतिक दल ने सोचा भी नहीं. सवर्ण समाज ने नोटा का इस्तेमाल पिछले चुनाव मे किया तथा इसके कारण कई राज्यों में बीजेपी को पराजय का सामना करना पड़ा, इस फैसले से सवर्ण समाज पुन: उत्साह में है तथा बीजेपी को इसका लाभ आने वाले चुनाव मे होगा. इस निर्णय से ब्राह्मण समाज की जो कुछ नाराजगी पिछले समय से चल रही थी वो दूर हुई है. अखिल भारतीय ब्राह्मण संगठन के अध्यक्ष होने के नाते मैं मोदी जी को बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएं देता हूं. मेरा मानना है कि जो सवर्ण आरक्षण लागू करा सकता है, जो जीएसटी में छूट दिला सकता है, वही राम मंदिर भी बनवा सकता है.

-आशुतोष भारद्वाज, अध्यक्ष, अखिल भारतीय ब्राह्मण संगठन

हार्दिक जैसे नेताओं का क्या होगा!

सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों को दस प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के बाद कई नेताओं का राजनीतिक भविष्य अधर में लटका दिखाई दे रहा है. केंद्र सरकार के इस फैसले के चलते गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन और उसके बाद राजनीति में भागीदारी करने वाले हार्दिक पटेल और हरियाणा में जाटों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले यशपाल मलिक जैसे कई नेताओं के हाथों से यह मुद्दा हमेशा के लिए निकल जाएगा. कुछ राज्यों में भले ही आंदोलनरत जातियों को आरक्षण देकर उन्हें पहले ही शांत कर दिया गया है, लेकिन फिर भी इन नेताओं के पास आरक्षण सही तरीके से लागू न होने या फिर ओबीसी कोटे से अलग आरक्षण देने को मुद्दा बनाकर राजनीति करने का मौका मिला हुआ था. ओबीसी में आने के बावजूद जिस तरह राजस्थान में गुर्जर समाज के लोग उससे अलग अपने लिए पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग पर अड़े हुए हैं, उसी तरह कई अन्य जातियों को आरक्षण दिए जाने के बाद भी अलग कोटे की मांग का मुद्दा बना हुआ था. लेकिन, आर्थिक आधार पर आरक्षण के बाद ऐसी मांगों के साथ राजनीति करने वाले नेताओं का राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है. वर्तमान समय में हर राज्य में कुछ ऐसे संगठन सक्रिय हैं, जो सवर्णों के लिए आरक्षण की मांग करते रहे हैं. करणी सेना, ब्राह्मण सेना, स्वर्ण सेना, भूमिहार-ब्राह्मण एकता मंच, राजपूत संगठन आदि ऐसे कई संगठन हैं, जिनकी राजनीति इसी मुद्दे से चल रही है. आर्थिक आधार पर आरक्षण को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद से संसद में पारित होने तक या उसके बाद भी ऐसे नेताओं का कोई आक्रामक बयान सामने नहीं आया है. हार्दिक पटेल जैसे नेताओं की तो बोलती बंद हो गई है. उनके पास अब अपनी जाति के लोगों को आंदोलित करने का कोई खास मुद्दा बचा नहीं है. इसलिए ऐसा लगने लगा है कि आर्थिक आधार पर सामान्य श्रेणी के पिछड़े वर्ग को 10 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था अगर पूरी तरह लागू हो जाती है, तो उसके बाद ऐसे नेताओं की राजनीति ही खत्म हो जाएगी.

कुछ ऐसे मिला आरक्षण

1935-कांग्रेस ने पूना समझौता किया, जिसमें दलितों के लिए चुनाव में सीटों का आरक्षण दिया जाना स्वीकार किया गया. भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया.

1942-बीआर अंबेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की. उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की.

1946-कैबिनेट मिशन ने अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया.

1950-संविधान लागू होने के साथ ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को दस सालों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई, लेकिन इसे लगातार बढ़ाया जाता रहा, जो अब तक लागू है.

1953-सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन किया गया. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बारे में रिपोर्ट स्वीकार की गई. अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए की गई सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया.

1979-सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग का गठन हुआ. आयोग के पास उपजाति, जो अन्य पिछड़ा वर्ग कहलाती है, का कोई सटीक आंकड़ा था. इसके अलावा ओबीसी की 52 प्रतिशत आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आंकड़े इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया गया.

1990-मंडल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू की गईं.

1991-नरसिम्हा राव सरकार ने अगड़ी जातियों के गरीबों के लिए अलग से 10 प्रतिशत आरक्षण शुरू किया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे निरस्त कर दिया.

2005-पीए ईनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 12 अगस्त 2005 को सुप्रीम कोर्ट के सात जजों ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति अल्पसंख्यकों और गैर अल्पसंख्यकों पर नहीं थोप सकता.

2005-निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और एससी एवं एसटी के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए 93वां संविधान संशोधन लाया गया, जिसने अगस्त 2005 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया.

2006-केंद्र सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्थगनादेश दे दिया.

2008-सुप्रीम कोर्ट ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27 प्रतिशत ओबीसी कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया. अदालत ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि क्रीमीलेयर को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए.

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कोटा बढ़ाने की तेज होगी मांग

ओबीसी की राजनीति करने वाले दल कोटा बढ़ाने की मांग को लेकर पिछड़े वर्ग को एकजुट करने की कोशिश करेंगे और सडक़ की राजनीति करने से भी परहेज नहीं करेंगे. आरक्षण को लेकर सडक़ की राजनीति कितनी खतरनाक होती है, इसे पहले के आंदोलनों से समझा जा सकता है. हाल के कुछ सालों में भी कुछ जाति विशेष के लोगों ने आरक्षण के मुद्दे पर सडक़ की राजनीति की थी. हरियाणा में जाट आंदोलन ने पूरे राज्य की व्यवस्था तहस-नहस कर दी थी. कई लोग इस आंदोलन की भेंट चढ़ गए थे, दुकानें जलाई गईं और महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार से लेकर बलात्कार तक की घटनाएं सामने आई थीं.

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सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने से आरक्षण का मुद्दा मंद पडऩे वाला नहीं है. अभी इसकी आग को हवा मिलने वाली है और इसके बाद जो आग लगेगी, उसे बुझाना और मुश्किल हो जाएगा. हालांकि, संसद के दोनों सदनों में किसी भी राजनीतिक दल ने मुखर तौर पर इस विधेयक का विरोध नहीं किया, लेकिन जिस तरह से ओबीसी एवं दलित नेताओं ने अपनी मांग रखना शुरू कर दिया है, उससे तो यही लगता है कि अब एक बार फिर आरक्षण की आग भडक़ने वाली है. यह तो तय है कि भारतीय जनता पार्टी ने सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आरक्षण देकर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने की कोशिश की है. उसने एक तीर से कई निशाने लगाए हैं, लेकिन उसके तीर को काटने वाले तीर चलाने की तैयारी भी राजनीतिक दलों ने कर दी है. उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि ओबीसी कोटे को बढ़ाया जाना चाहिए. समाजवादी पार्टी और बिहार की राजनीति में दखल रखने वाली राष्ट्रीय जनता दल की तो साफ मांग रही है कि जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी. यानी हर वर्ग को उसके अनुपात में आरक्षण दिया जाना चाहिए. सपा नेता राम गोपाल यादव ने कहा कि इसे लागू करने के लिए जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा हट ही रही है, तो ओबीसी को भी उसकी जनसंख्या के अनुसार 54 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना चाहिए. ध्यान रहे कि ओबीसी को वर्तमान में 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की बाध्यता थी, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में आरक्षण की सीमा को पचास प्रतिशत तक सीमित कर दिया था. इसके कारण पहले से चले आ रहे एससी (15 प्रतिशत) और एसटी (7.5 प्रतिशत) आरक्षण के बाद ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण देने की ही गुंजाइश थी. लेकिन, एक बार जब यह सीमा खत्म कर दी जाएगी, तो आगे का रास्ता अपने आप खुल जाएगा. बिहार में पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले राजद व जदयू हों या फिर विभिन्न राज्यों के अन्य राजनीतिक दल, सभी के लिए अब ओबीसी वोट बैंक में सेंधमारी करने का एक सबसे आसान तरीका उनका आरक्षण बढ़ाना हो जाएगा. राजद नेताओं ने तो स्पष्ट तौर पर कहा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू किए जाने के बाद ओबीसी को अधिक आरक्षण देने की मांग के लिए आंदोलन करने से वे परहेज नहीं करेंगे.

यानी ओबीसी की राजनीति करने वाले दल कोटा बढ़ाने की मांग को लेकर पिछड़े वर्ग को एकजुट करने की कोशिश करेंगे और सडक़ की राजनीति करने से भी परहेज नहीं करेंगे. आरक्षण को लेकर सडक़ की राजनीति कितनी खतरनाक होती है, इसे पहले के आंदोलनों से समझा जा सकता है. हाल के कुछ सालों में भी कुछ जाति विशेष के लोगों ने आरक्षण के मुद्दे पर सडक़ की राजनीति की थी. हरियाणा में जाट आंदोलन ने पूरे राज्य की व्यवस्था तहस-नहस कर दी थी. कई लोग इस आंदोलन की भेंट चढ़ गए थे, दुकानें जलाई गईं और महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार से लेकर बलात्कार तक की घटनाएं सामने आई थीं. ठीक उसी तरह गुजरात में पाटीदारों का आंदोलन हो या महाराष्ट्र में मराठाओं और राजस्थान में गुर्जरों का आंदोलन, आरक्षण के लिए सडक़ पर उतरने वाले लोगों ने हमेशा तांडव मचाया है. इसी कारण कई राज्य सरकारों को उनकी मांग माननी भी पड़ी. हालांकि, कुछ राज्यों के फैसले को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया, लेकिन सरकार को तो झुकना ही पड़ा था. ठीक उसी तरह का आंदोलन ओबीसी कोटे को बढ़ाने के लिए भी होने की आशंका है. जिस तरह से नेताओं के बयान आ रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि कुछ ही समय में यह मांग और तेज होने वाली है. यही नहीं, अब दूसरे क्षेत्रों में भी आरक्षण दिए जाने की मांग उठने लगी है. केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान ने न्यायपालिका में आरक्षण देने की मांग उठाई है, तो सालों से निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात करने वाली मायावती को फिर से अपना मुद्दा जीवित करने का मौका मिल गया है. बसपा प्रमुख का कहना है कि जब सरकारी नौकरियों की संख्या कम हो रही है, तो केवल सरकारी क्षेत्र में आरक्षण दिए जाने से दलितों का उत्थान नहीं हो सकता. इसके लिए निजी क्षेत्रों में भी आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि सबसे अधिक अवसर वाले क्षेत्रों में भी दलितों का प्रतिनिधित्व बढ़े. इस तरह आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने से जिस मुद्दे के कमजोर होने के कयास लगाए जा रहे हैं, उसके और अधिक भडक़ने की संभावना बढ़ गई है.


दुरुपयोग रोकना होगा मुश्किल

अब तक सरकारी तंत्र वास्तविक आमदनी का पता लगाने में सालों से विफल होता आ रहा है, तो अचानक कैसे सफल हो जाएगा. अगर आमदनी का सही आकलन नहीं किया जाएगा, तो फिर वही लोग आर्थिक आधार पर आरक्षण का लाभ लेंगे, जिनकी वास्तविक आर्थिक स्थिति तो अच्छी है, लेकिन कागजों पर उन्होंने खुद को आर्थिक रूप से कमजोर दिखा रखा है.

आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए काम करना सरकार का उत्तरदायित्व है और शायद शासन की इसी जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए वर्तमान सरकार ने सामान्य श्रेणी के आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों को दस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया है. आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने को गलत नहीं कहा जा सकता, लेकिन चूंकि यह आधार इतना अस्थिर है कि इसके दुरुपयोग की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती है. वैसे आरक्षण देने के पीछे का मूल मकसद उन लोगों को अवसर उपलब्ध कराना रहा है, जिनके पिछड़ेपन के लिए वह स्वयं नहीं, बल्कि समाज जिम्मेदार है. इसी को ध्यान में रखकर भारत में पिछड़ेपन की वजह ढूंढने की कोशिश गई. चूंकि यहां समाज जातियों में विभाजित है और इसके कारण सदियों से कुछ जातियों को आगे बढऩे से रोकने के लिए कई प्रतिबंध लगाए गए, इसलिए जाति को वर्ग का आधार बनाकर आरक्षण दिए जाने का विकल्प चुना गया था. अगर आर्थिक स्थिति को आधार बनाया जाता, तो उन लोगों को भी आरक्षण के दायरे में लाना पड़ता, जिनके पिछड़ेपन के लिए समाज नहीं, बल्कि वे खुद जिम्मेदार हैं. ऐसे ही तर्कों के सहारे देश में जातीय स्थिति को आर्थिक स्थिति के साथ जोडक़र आरक्षण की व्यवस्था की गई है. लेकिन अब आरक्षण का एक नया आधार केवल आर्थिक स्थिति को बनाया गया है. ऐसी स्थिति में इसके दुरुपयोग की संभावनाएं भी उसी अनुपात में बढ़ गई हैं. चूंकि, सरकार के पास व्यक्तिगत आय का सही प्रमाण जुटाने के साधन सीमित हैं और इसलिए अपनी वास्तविक आर्थिक स्थिति को कम करके दिखाने वाले लोगों को आरक्षण के लाभ से वंचित रखना मुश्किल हो जाएगा.

आर्थिक स्थिति छिपाने की इस प्रवृत्ति को रोक पाने में सरकार की विफलता को समझने के लिए बहुत अधिक अनुसंधान करने की जरूरत नहीं है. अगर आयकर विभाग के आंकड़ों पर नजर डाली जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि करोड़ों लोग अपनी वास्तविक आय छिपाने में कामयाब रहे हैं. साल 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार, देश के केवल 6.84 करोड़ लोग ही आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं. यह आंकड़ा भी पिछले साल का है और अगर इसके एक साल पहले की बात की जाए, तो केवल 5.43 करोड़ लोगों ने ही आयकर रिटर्न दाखिल किए थे. यही नहीं, इसमें आयकर देने वालों की संख्या तो और भी कम है. करीब 93 प्रतिशत लोग अपनी आय इतनी दिखाते हैं, जिससे उन्हें आयकर न देना पड़े. इसी तरह करीब छह प्रतिशत लोग अपनी आमदनी 2.5 लाख से 25 लाख के बीच बताते हैं और 50 लाख से अधिक आमदनी बताने वालों की संख्या तो महज 0.3 प्रतिशत है. देखा जाए तो आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों में से केवल सात प्रतिशत लोग ही टैक्स देते हैं. हालांकि, यह वास्तविकता नहीं है, क्योंकि यहां आयकर देना एक मजबूरी समझी जाती है. जो लोग अपनी आमदनी छिपा नहीं सकते, वे आयकर देने को बाध्य हो जाते हैं. व्यापारियों से आयकर लेना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती रही है और यही कारण है कि हर रोज आयकर छापों की खबरें पढऩे को मिलती हैं.

ऐसे में जब सरकारी तंत्र वास्तविक आमदनी का पता लगाने में सालों से विफल होता आ रहा है, तो अब अचानक कैसे सफल हो जाएगा. अगर आमदनी का सही आकलन नहीं किया जाएगा, तो फिर वही लोग आर्थिक आधार पर आरक्षण का लाभ लेंगे, जिनकी वास्तविक आर्थिक स्थिति तो अच्छी है, लेकिन कागजों पर उन्होंने खुद को आर्थिक रूप से कमजोर दिखा रखा है. इसके कारण इस व्यवस्था के दुरुपयोग की संभावनाएं और अधिक बढ़ जाएंगी. जिन लोगों की उन्नति के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था की जा रही है, उनमें से अधिकतर इससे वंचित रह जाएंगे और जिन लोगों के पास संसाधन हैं, वे इसका लाभ लेते रहेंगे. इसलिए जब तक आर्थिक स्थिति के आकलन की एक बेहतर व्यवस्था तैयार नहीं हो जाती, इसका लाभ उन्हीं लोगों को ज्यादा मिलेगा, जिनके पास संसाधन तो हैं, लेकिन वे दिखाते नहीं हैं.

साल 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार, देश के केवल 6.84 करोड़ लोग ही आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं. यह आंकड़ा भी पिछले साल का है और अगर इसके एक साल पहले की बात की जाए, तो केवल 5.43 करोड़ लोगों ने ही आयकर रिटर्न दाखिल किए थे. यही नहीं, इसमें आयकर देने वालों की संख्या तो और भी कम है. करीब 93 प्रतिशत लोग अपनी आय इतनी दिखाते हैं, जिससे उन्हें आयकर न देना पड़े.


सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था न्यायिक परीक्षा में पास 

न्यायिक परीक्षा में पास या फेल

1991 में नरसिंह राव सरकार ने आर्थिक आधार पर 10 फीसद आरक्षण देने का प्रस्ताव किया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने उसे यह कह कर खारिज कर दिया था कि संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक असमानता दूर करने के मकसद से रखा गया है, इसका इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तौर पर नहीं किया जा सकता.

सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10 फीसदी आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक संसद से पास तो हो गया लेकिन सरकार को डर था कि इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है. केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावर चंद गहलोत ने लोकसभा में बहस के दौरान कहा कि अगर इस फैसले के खिलाफ कोई सुप्रीम कोर्ट में भी जाता है तो यह निर्णय निरस्त नहीं हो पाएगा और गरीब सवर्ण आरक्षण का लाभ ले पाएंगे. विधेयक के संसद से पास हुए अभी 24 घंटे भी नहीं हुए थे कि इस बिल को यूथ फ़ॉर इक्वलिटी नाम के एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दिया. यूथ फॉर इक्वलिटी ने अपनी याचिका में कहा है कि सामान्य वर्ग को आरक्षण देने की व्यवस्था संविधान के आधारभूत ढांचे के खिलाफ है, इसलिए इसे रद्द किया जाना चाहिए.

ऐसे अब सवाल यह है कि क्या यह व्यवस्था न्यायिक समीक्षा के दायरे में होगा और क्या इसे सुप्रीम कोर्ट में हरी झंडी मिल पाएगी! सवाल इसलिए कि इससे पहले भी आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की कई कोशिशें की गईं लेकिन न्यायिक परीक्षा पास नहीं कर पायीं. चूंकि संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का जिक्र नहीं है इसलिए मोदी सरकार के इस फैसले को लेकर भी सवाल उठ रहे है.

न्यायिक समीक्षा के दायरे में सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण का कानून

2007  तक व्यवस्था थी कि संसद अगर कोई कानून बनाकर संविधान की 9वीं अनुसूची में डाल देती थी तो कोर्ट इस की समीक्षा नहीं कर सकता था. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण की अधिकतम सीमा  50 फीसदी तय करने के बावजूद तमिलनाडु में आज भी 69त्न आरक्षण की व्यवस्था है. दरअसल, आरक्षण की 50त्न की सीमा 1992 में इंदिरा साहनी बनाम संघ केस के फैसले में तय की गई. लेकिन तमिलनाडु में इसके पहले से 69त्न आरक्षण का प्रावधान था. इंदिरा साहनी केस के फैसले के बाद 50त्न से ज्यादा आरक्षण असंवैधानिक हो सकता था. उस समय तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता थीं. जयललिता ने इस स्थिति से निपटने के लिए 69त्न आरक्षण का विधेयक तमिलनाडु विधानसभा से पारित कराया और केंद्र सरकार को मजबूर कर दिया कि संविधान संशोधन कर इस विधेयक को 9वीं अनुसूची में डाले, ताकि यह न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर हो जाए और यही हुआ. 2007 के आईआर कोहले बनाम तमिलनाडु मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय बेंच ने फैसला दिया कि सुप्रीमकोर्ट 9वीं अनुसूची में शामिल कानून की भी समीक्षा कर सकता है अगर कानून, संविधान के आधारभूत ढांचे के खिलाफ हो. मतलब यह कि संसद अगर इस कानून को 9वीं अनुसूची में डालती है तब भी यह न्यायिक समीक्षा के दायरे में आएगा और सुप्रीम कोर्ट इसकी न्यायिक समीक्षा कर सकता है.

सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण की कोशिशें जो न्यायिक परीक्षा पास नहीं कर पायीं

सामान्य वर्ग को आरक्षण देने की एक कोशिश नरसिम्हा राव सरकार ने भी की थी. मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने से सवर्णों में उपजे असंतोष को शांत करने के लिए 1991 में नरसिंह राव सरकार ने आर्थिक आधार पर 10 फीसद आरक्षण देने का प्रस्ताव किया था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने उसे यह कह कर खारिज कर दिया था कि  संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक असमानता दूर करने के मकसद से रखा गया है, इसका इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तौर पर नहीं किया जा सकता. इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के नाम से जाने जाने वाले इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना संविधान में दिए हुए समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है. अपने फैसले  में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान की विस्तृत व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- ‘‘संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में आरक्षण का प्रावधान समुदाय के लिए है, न कि व्यक्ति के लिए. आरक्षण का आधार आय और संपत्ति को नहीं माना जा सकता’’.

गुजरात मे पटेल आरक्षण आंदोलन के दबाव में अप्रैल, 2016 में राज्य सरकार ने सामान्य वर्ग में पाटीदारों सहित आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की थी. सरकार के इस फैसले के अनुसार 6 लाख रुपये से कम वार्षिक आय वाले परिवारों को इस आरक्षण के अधीन लाने की बात कही गई थी. लेकिन गुजरात हाईकोर्ट ने उसी साल आर्थिक आधार पर आरक्षण को गैरकानूनी और असंवैधानिक बताते हुए रद्द  कर दिया था. 2015 में राजस्थान सरकार ने भी सामान्य वर्ग के आर्थिक पिछड़ों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 14 फीसदी आरक्षण देने का वादा किया था. हाईकोर्ट ने इस आरक्षण बिल को रद्द कर दिया था. ऐसा ही हरियाणा में भी हुआ था. एक कोशिश बिहार में भी हुई थी. 1978 में बिहार में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को तीन फीसदी आरक्षण दिया था. यह व्यवस्था 1993  तक लागू थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी रद्द कर दिया.

न्यायिक परीक्षा की कसौटी पर ‘सामान्य वर्ग आरक्षण’

सामान्य वर्ग के लोगों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के अब तक के तमाम प्रयास विफल हो गए. तो क्या, मोदी सरकार का प्रयास भी विफल होगा? इस सवाल का जवाब समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि इसके रास्ते में कानूनी अड़चने क्या हैं? पहली अड़चन संविधान का वह प्रावधान है, जो आर्थिक आधार पर आरक्षण को मना करता है. संविधान के अनुच्छेद 15(4) में कहा गया है कि अगर राज्य को लगता है तो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचितजनजाति के लिए वह विशेष प्रावधान कर सकता है. अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार अगर राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है. चूंकि अनुच्छेद 15(4) और 16(4) में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की बात नहीं कही गयी है इसलिए बिना संविधान संशोधन के सामान्य वर्ग के लोगों को आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता तो सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक परीक्षा में फेल कर जाता. अब चूंकि सरकार ने संविधान संशोधन कर दिया है और अनुच्छेद 15 और  16 में जरूरी बदलाव कर उसमें आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण देने की व्यवस्था जोड़ दिया है, अब इस बात की संभावना बढ़ गयी है कि सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था इस संवैधानिक परीक्षा को पास कर जाएगा.

सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण में दूसरी अड़चन है सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला जिसमें कोर्ट ने  50 फीसदी से अधिक आरक्षण देने पर रोक लगा रखी है. पहले 1962 में एमआर बालाजी और अन्य बनाम मैसूर राज्य मामले में पांच सदस्यीय संविधान पीठ और 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट की  9 सदस्यीय बेंच ने अपने फैसले में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर दी थी. सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था होने से कोर्ट द्वारा तय की गयी सीमा का उल्लंघन हो रहा है. वर्तमान में एससी के लिए 15 फीसदी, एसटी के लिए 7.5 फीसदी और मंडल कमीशन की सिफारिशों के तहत पिछड़े वर्ग के लिए 27 फीसदी यानी कुल  49.5  फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है. ऐसे में इस न्यायिक अड़चन को सामान्य वर्ग को आरक्षण की व्यवस्था कैसे पार करेगी? इस सवाल का जवाब इंदिरा साहनी जजमेंट में ही दिया हुआ है. इंदिरा साहनी केस में ही जस्टिस जीवन रेड्डी ने स्पष्ट किया है कि विशेष परिस्थिति दिखाकर सरकार 50 फीसदी की सीमा रेखा को भी लांघ सकती है.  ऐसे में अगर सामान्य वर्ग के आरक्षण की व्यवस्था को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी जाती है तो सरकार ‘विशेष परिस्थिति’ और ‘कारण’ साबित कर सकती है! सरकार यह दलील दे सकती है कि सामान्यवर्ग को 10 प्रतिशत आरक्षण की यह व्यवस्था कोर्ट के फैसले के खिलाफ नहीं है. अनारक्षित वर्ग के लिए  50  फीसदी हिस्सा सुरक्षित रखना वर्तमान कानून की मूलभावना है और इस व्यवस्था से उस भावना को कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा क्योंकि 10 प्रतिशत आरक्षण की यह व्यवस्था उन्हीं ‘मेरिट’ वालों को दिया गया है जिनके लिये यह 50 फीसदी अनारक्षित रखा गया था.

दस प्रतिशत की इस व्यवस्था के बहाने एक बार फिर आरक्षण की पूरी व्यवस्था पर बहस शुरू हो चुकी है. सुप्रीम कोर्ट में जब इसकी न्यायिक समीक्षा शुरू होगी तो इस बात की भी संभावना है कि आरक्षण की पूरी व्यवस्था पर बहस हो. जातिगत आधार पर ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था पर भी बहस हो सकती है क्योंकि यूथ फ़ॉर इक्वलिटी ने अपनी याचिका में यह भी मांग की है कि ओबीसी को दिए जाने वाला आरक्षण जातिगत आधार पर नहीं होना चाहिए, इसे भी आर्थिक आधार पर दिया जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट में याचिका

आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य श्रेणी के लोगों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में 10 प्रतिशत आरक्षण देने वाले संविधान संशोधन बिल का मामला अब सर्वोच्च न्यायालय की दस्तक दे दी है. संसद से इस बिल को मंजूरी मिलने के अगले दिन सुप्रीम कोर्ट में एक संगठन ने याचिका दायर कर चुनौती दे दी है. यूथ फॉर इक्वैलिटी नाम के संगठन की याचिका में संविधान संशोधन को आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के खिलाफ बताया गया है. समान्य वर्ग के आरक्षण को चुनौती देने वाली याचिका में कहा गया है कि आर्थिक मापदंड आरक्षण का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है. याचिका में इसे संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ बताया गया है. संगठन ने जनरल कोटा को समानता के अधिकार और संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ है. याचिका में यह भी कहा गया है कि गरीबों को 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान नागराज बनाम भारत सरकार मामले में दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के भी खिलाफ है.

इंदिरा साहनी केस में ही जस्टिस जीवन रेड्डी ने स्पष्ट किया है कि विशेष परिस्थिति दिखाकर सरकार 50 फीसदी की सीमा रेखा को भी लांघ सकती है.  ऐसे में अगर सामान्य वर्ग के आरक्षण की व्यवस्था को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी जाती है तो सरकार ‘विशेष परिस्थिति’ और ‘कारण’ साबित कर सकती है! सरकार यह दलील दे सकती है कि सामान्य वर्ग को 10 प्रतिशत आरक्षण की यह व्यवस्था कोर्ट के फैसले के खिलाफ नहीं है. अनारक्षित वर्ग के लिए  50  फीसदी हिस्सा सुरक्षित रखना वर्तमान कानून की मूलभावना है और इस व्यवस्था से उस भावना को कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा क्योंकि 10 प्रतिशत आरक्षण की यह व्यवस्था उन्हीं ‘मेरिट’ वालों को दिया गया है जिनके लिये यह 50 फीसदी अनारक्षित रखा गया था.