बनवारी

मार्क्सवादी पार्टी की हैदराबाद में संपन्न हुई 22वीं कांग्रेस में सीताराम येचुरी की राजनीतिक लाइन स्वीकार किए जाने के बाद उनका फिर से महासचिव चुना जाना तय था। लेकिन पार्टी की केंद्रीय समिति की पिछली बैठक के बाद से उसके दोनों युवा नेताओं के बीच जो राजनीतिक दंगल चल रहा था, उसका अभी पूरी तरह पटाक्षेप नहीं हुआ है। मार्क्सवादी पार्टी लंबे समय से केरल और बंगाल खेमों में बंटी हुई है। पहले भी इन दोनों राज्यों के हितों के हिसाब से पार्टी में कश्मकश होती रही है। इस बार दोनों राज्यों के राजनीतिक हित एक-दूसरे से सीधे टकरा रहे थे। केरल में इस समय माकपा की सरकार है और उसकी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पार्टी है। इसलिए केरल में मार्क्सवादी पार्टी का नेतृत्व कांग्रेस के साथ किसी भी सहयोग या गठजोड़ के खिलाफ है। केरल खेमे के राजनीतिक रुख के प्रवक्ता प्रकाश करात हैं और उन्होंने पार्टी की राजनीतिक दिशा वाले प्रस्ताव के प्रारूप में कांग्रेस से किसी भी तालमेल की गुंजाइश का निषेध किया था। केंद्रीय समिति में इस मत के समर्थकों का बहुमत था। इसलिए महासचिव के नाते सीताराम येचुरी ने भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए कांग्रेस के साथ तालमेल की जो नीति प्रस्तुत की थी, वह अनुमोदित नहीं हुई। प्रकाश करात का प्रस्ताव बहुमत का प्रस्ताव बताया गया और सीताराम येचुरी का प्रस्ताव अल्पमत का। अपना प्रस्ताव स्वीकार न करवा पाने से खिन्न सीताराम येचुरी ने उस समय महासचिव के पद से इस्तीफा देने की पेशकश की थी। लेकिन पार्टी विभाजित नहीं दिखना चाहती थी, इसलिए उन्हें ऐसा नहीं करने दिया गया और पार्टी लाइन को तय करने का निर्णय पार्टी की कांग्रेस पर छोड़ दिया गया।
सीताराम येचुरी को पता था कि पार्टी कांग्रेस में देशभर का प्रतिनिधित्व होगा। केरल को छोड़कर बाकी अधिकांश जगह भारतीय जनता पार्टी मुख्य शक्ति बन गई है, उससे मुकाबला करने के लिए कांग्रेस का साथ आवश्यक है। इसलिए पार्टी कांग्रेस में कांग्रेस पार्टी से सहयोग करने का उतना विरोध नहीं होगा। सीताराम येचुरी का यह विश्वास सही साबित हुआ। पार्टी कांग्रेस में प्रकाश करात ने बहुमत का और सीताराम येचुरी ने अल्पमत का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। जब यह दिख गया कि पार्टी की कांग्रेस में बहुमत कांग्रेस पार्टी से तालमेल बैठाकर चलने के पक्ष में है तो करात खेमे को झुकना पड़ा। अंतत: प्रकाश करात खेमे ने अपने प्रस्ताव की कुछ पंक्तियां बदल दीं और यह गुंजाइश निकाल दी कि कांग्रेस पार्टी से तालमेल अवश्य होगा पर कोई गठजोड़ नहीं होगा। यह समझौता पार्टी की एकता बनाए रखने के लिए आवश्यक समझा गया। एक तरह से यह सीताराम येचुरी की जीत ही थी। इसलिए उनका फिर से महासचिव चुना जाना स्वाभाविक ही था और वे आसानी से चुन लिए गए। लेकिन पार्टी कांग्रेस ने जो राजनीतिक लाइन चुनी है, उसके सामने कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां हैं।
पार्टी काफी समय से केवल तीन राज्यों- पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल-में सिमटी हुई है। इनमें भी पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में न केवल सरकार उससे छिन चुकी है, बल्कि उसका संगठन भी कमजोर पड़ गया है। हाल में त्रिपुरा में वह अपने सभी गढ़ों में बुरी तरह पराजित हुई थी। आदिवासियों तक के बीच उसके पैर उखड़ गए। ऐसी स्थिति में कांग्रेस से तालमेल का भी क्या फायदा होगा। क्योंकि स्वयं कांग्रेस का संगठन त्रिपुरा में पूरी तरह भाजपा की ओर खिसक गया है। अभी मार्क्सवादी पार्टी की शक्ति केरल में बची हुई है। इस शक्ति को समेटे रहने के लिए कांग्रेस पार्टी को निशाने पर रखना आवश्यक है। अब यह कैसे होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर और अधिकांश राज्यों में कांग्रेस से तालमेल हो और केरल में उससे राजनीतिक शत्रुता निभाई जाए। अन्यत्र कांग्रेस पार्टी से किसी भी तरह का सहयोग केरल में मार्क्सवादी पार्टी को नुकसान ही पहुंचाएगा। मार्क्सवादी पार्टी की कांग्रेस ने अपनी शक्ति वाले एकमात्र राज्य केरल के मामले में इस तरह अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया है।
पार्टी की इस विडंबना का कारण यह है कि उसका नेतृत्व काफी दिन से ऐसे हाथों में रहा है, जिनके लिए संघर्ष और संगठन से अधिक राजनीतिक जोड़तोड़ महत्वपूर्ण रहा है। 1992 से पार्टी के महासचिव रहे तीनों मार्क्सवादी नेताओं ने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा और न ही किसी बड़े संघर्ष में भागीदारी की है। 1992 में हरकिशन सिंह सुरजीत पार्टी के महासचिव बने थे। उनके समय तक पंजाब में पार्टी का संगठन लुप्तप्राय हो चुका था। पहले कभी उन्होंने किसान आंदोलन में भागीदारी की होगी। लेकिन महासचिव होने के बाद उनका अधिकांश समय केंद्रीय राजनीति की जोड़तोड़ में ही बीता। यह वह समय था, जब केंद्र में किसी एक पार्टी का वर्चस्व नहीं बचा था। सरकारें जोड़तोड़ से बन और बदल रही थी। हरकिशन सिंह सुरजीत के महासचिव रहते चार आम चुनाव हुए। 1996 में पार्टी को 6.12 प्रतिशत मत मिले और 32 संसदीय क्षेत्रों में उसके उम्मीदवार जीते। 1998 के चुनाव में उसका मत प्रतिशत गिरकर 5.16 रह गया। लेकिन उसके सांसदों की संख्या 32 ही रही। 1999 में उसका मत प्रतिशत 5.40 था और उसे 33 सीटें मिली थीं। यह भाजपा के उत्कर्ष का समय था। सुरजीत भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने में लगे रहे। 1996-98 में संयुक्त मोर्चा सरकारें बनवाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उसके बाद 2004 में जब फिर कांग्रेस जीती तो मार्क्सवादी पार्टी का वोट तो मामूली ही बढ़ा, वह 5.66 प्रतिशत रहा, लेकिन उसके सांसदों की संख्या बढ़कर 43 हो गई। यह अब तक के आम चुनावों में उसकी सबसे बड़ी संख्या थी और कांग्रेस से सहयोग का नतीजा थी। 2005 में 89 वर्ष की परिपक्व आयु में वे महासचिव पद से हट गए, प्रकाश करात महासचिव बनाए गए। कुछ समय बाद सुरजीत का निधन हो गया।
पिछले 13 साल से मार्क्सवादी पार्टी का नेतृत्व पार्टी की युवा ब्रिगेड के हाथों में ही है। 2005 से 2015 तक पार्टी के महासचिव पद पर प्रकाश करात रहे। पिछली 21वीं कांग्रेस में सीताराम येचुरी को महासचिव बनाया गया था। इस बार उन्हें दूसरी बार चुन लिया गया है। प्रकाश करात और सीताराम येचुरी का राजनीतिक जीवन 1970 के आसपास जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से शुरू हुआ था। दोनों का राजनीति में प्रवेश मार्क्सवादी पार्टी के विद्यार्थी संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन आॅफ इंडिया से हुआ। सीताराम येचुरी को 2005 में पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में भेज दिया गया था और प्रकाश करात को पार्टी का महासचिव बनाकर पार्टी की कमान सौंप दी गई थी। असल में 1985 में युवा लोगों को पार्टी में महत्वपूर्ण भूमिका देने का फैसला हुआ था और उसी क्रम में बिना किसी संघर्ष में खपे, केवल जेएनयू की राजनीति में मिली ख्याति के सहारे वे राष्ट्रीय स्तर के नेता बन गए। प्रकाश करात एक संभ्रांत मलयाली परिवार से हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पहले वे एडिनबरा विश्वविद्यालय में थे। सीताराम येचुरी एक संभ्रांत तेलुगू परिवार से आए हैं और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आने से पहले वे दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में थे। दोनों के एक समय पी. चिदंबरम से संबंध रहे हैं। स्वभाव से प्रकाश करात अधिक विचाराधारात्मक हैं। सीताराम येचुरी ने हरकिशन सिंह सुरजीत की राजनीतिक शैली अपनाई हुई है।
हरकिशन सिंह सुरजीत ने पार्टी को कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देने के लिए तैयार किया था। प्रकाश करात ने अमेरिका से हुए नाभिकीय समझौते को मुद्दा बनाकर समर्थन वापस ले लिया। इसका काफी विपरीत परिणाम पश्चिम बंगाल की राजनीति पर पड़ा। कांग्रेस राज्य में ममता बनर्जी का साथ देने के लिए तैयार हो गई और 2011 में मार्क्सवादी पार्टी के राज्य में लंबे शासन का अंत हो गया। प्रकाश करात के नेतृत्व में ही लोकसभा के अध्यक्ष के पद से पार्टी के निर्देश पर इस्तीफा न देने के बाद सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था। 2011 में पार्टी केरल में भी हारी, लेकिन प्रकाश करात के तौर-तरीकों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। प्रकाश करात के नेतृत्व में मार्क्सवादी पार्टी ने दो आम चुनाव लड़े। 2009 में उसे 5.33 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन उसकी सीटों की संख्या घटकर 16 रह गई। पार्टी सामान्यत: 60 से 70 संसदीय क्षेत्रों में चुनाव लड़ती रही है। प्रकाश करात के समय 2009 में पार्टी 82 स्थानों से चुनाव लड़ी और उसके जीतने वाले सांसदों की संख्या 43 से घटकर 16 रह गई। 2014 के चुनाव में पार्टी और अधिक संसदीय क्षेत्रों से खड़ी हुई। उसने अब तक के चुनावों में सबसे अधिक 97 उम्मीदवार खड़े किए, लेकिन उनमें से केवल 9 जीत पाए और उसे मिले वोटों की संख्या साढ़े पांच प्रतिशत से घटकर साढ़े तीन प्रतिशत रह गई। 2015 से सीताराम येचुरी महासचिव हैं और उनके दौर में पार्टी एक और राज्य त्रिपुरा से साफ हो चुकी है। अगर इस बार की पार्टी कांग्रेस में पारित राजनीतिक प्रस्ताव पर गंभीरता से अमल हुआ तो पार्टी एकमात्र बचे राज्य केरल में भी अपनी सत्ता खो बैठेगी। केरल में उसकी लोकतांत्रित प्रतिस्पर्धा कांग्रेस से है और हिंसक लड़ाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में माकपा के अनेक स्थानीय और जिलास्तरीय नेता असंतुष्ट होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल होते रहे हैं।
यह बात आश्चर्यजनक लगती है कि जिस पार्टी को हर आम चुनाव में साढ़े पांच से साढ़े छह प्रतिशत वोट ही मिला हो, वह हमेशा केंद्रीय राजनीति में क्यों उलझी रही है। जब तक कांग्रेस केंद्र में सत्तावान रही, वह उसके खिलाफ मोर्चा बांधती रही। उस मुहिम में उसने भाजपा का साथ भी दिया। अब भाजपा सत्ता में है तो वह कांग्रेस का हाथ पकड़कर भाजपा को सत्ता से हटाने की हांक लगा रही है। वह हमेशा किसान-मजदूरों के संघर्ष और संगठन की दुहाई देती है। लेकिन किसान राजनीति में उसकी कोई हैसियत नहीं है। सभी कम्युनिस्ट पार्टियां मजदूर संगठनों को अपना राजनीतिक आधार बनाती हैं। लेकिन डेढ़ दशक पहले ही भाजपा का मजदूर संगठन देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन हो गया था। दूसरा बड़ा मजदूर संगठन कांग्रेस का था, तीसरा भाकपा का और चौथा हिन्द मजदूर सभा है जो समाजवादियों के नेतृत्व में गठित हुई थी। मार्क्सवादी पार्टी का मजदूर संगठन पांचवें स्थान पर खिसक गया था। पिछले 15 सालों में मजदूर आंदोलन की हालत बिगड़ी ही है। देश में शुरू में मजदूर आंदोलन ने जो सुविधाएं हासिल कर ली थीं, वे उदारीकरण के दौर में समाप्त होती जा रही हैं। लेकिन मार्क्सवादियों को उसकी कोई वास्तविक चिंता दिखाई नहीं देती। वे उसके खिलाफ रटी-रटाई भाषा बोलकर अपना काम चला लेते हैं।
अगर मार्क्सवादी राजनीतिक भाषा को इस्तेमाल किया जाए तो मार्क्सवादी पार्टी अपने वर्ग संगठनों को मजबूत करने के बजाय जिस तरह की राजनीतिक जोड़तोड़ में पड़ी रहती है, उसे बुर्जुआ राजनीति ही कहा जा सकता है। मार्क्सवादी अपनी घटती हुई शक्ति के लिए सोवियत संघ के विघटन को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन वह विघटन क्यों हुआ, इसकी कोई मीमांसा करने की उन्होंने कोशिश नहीं की। वे भारत की सभी गैर मार्क्सवादी पार्टियों को अमेरिका की बुर्जआ शक्तियों का पिछलग्गू बताते रहते हैं। लेकिन मार्क्सवादी पार्टी जिस चीनी साम्यवाद की तरफदारी करते हुए बनी थी, उसने 1980 में क्यों अमेरिकी कंपनियों और पूंजी के लिए अपने दरवाजे खोल दिए थे, इसका उसके पास कोई जवाब नहीं है। आज भी वह भारत सरकार को हिदायत देती रहती है कि वह अमेरिका से संबंध बढ़ाने की बजाय चीन से दोस्ती करे। लेकिन चीन ने पिछले चार दशकों में न केवल अमेरिकी सहयोग से समृद्धि हासिल की है बल्कि वह 2049 तक अमेरिका जैसा समृद्ध होने का ही सपना देख रहा है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का सपना अब समाजवादी समाज बनाने का नहीं रह गया है। वह केवल कम्युनिस्ट पार्टी का नियंत्रण बनाए रखने में लगी हुई है। मार्क्सवादी पार्टी को दूसरे कम्युनिस्ट देशों में क्या हुआ और क्या हो रहा है, देखने की आवश्यकता नहीं लगती।
देश की राजनीति में उसकी भूमिका प्रतिगामी ही रही है। मार्क्सवादी सिद्धांत सभी समाजों को जल्दी से जल्दी औद्योगिक समाज में बदलने की दुहाई देता है। लेकिन भारत में मार्क्सवादी सरकारें औद्योगीकरण के खिलाफ रही हैं और उसके रास्ते में रोड़ा अटकाती रही हैं। उनके द्वारा शासित सभी राज्य औद्योगिक रूप से पिछड़े और जड़ बने रहे। उनके पास औद्योगीकरण का ऐसा भी कोई विकल्प नहीं है, जैसा महात्मा गांधी ने सुझाया था। इसलिए अब जो हवा बह रही है, उसमें उसके पैर इसलिए उखड़ते जा रहे हैं कि वह सदा यथास्थिति का पोषण करती रही है। अभी वह जोड़तोड़ से देश की राजनीतिक स्थिति बदलने का सपना देख रही है। कल तक जो कांग्रेस उसकी दुश्मन थी, अब उसे वह अपनी दोस्त नजर आ रही है। मजदूर, किसानों और आम नागरिकों में अपनी निष्क्रियता को मार्क्सवादी नेता सत्ता के गलियारे में अपनी सक्रियता से ढंकना चाहते हैं। यह स्थिति विशेष रूप से इस युवा मंडली की देन है, जिसे किसी किसान या मजदूर आंदोलन का कोई अनुभव नहीं है। मार्क्सवादी भाषा का उपयोग करें तो यह नए बुर्जुआ मार्क्सवादी हैं, जिनके लिए राजनीति सत्ता के गलियारे में सीमित है और वे अपने राजनीतिक मुहावरों की उलट-पुलट के जरिये एक-दूसरे राजनीतिक खेमे में चक्कर लगाते रहते हैं। मजदूर किसानों से उनका संबंध केवल इतना ही रह गया है कि वे छठे-छमाहे उनकी एक रैली आयोजित कर लेते हैं। मार्क्सवादी पार्टी की 22वीं कांग्रेस ने भी ऐसी ही एक रैली की घोषणा करके अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। ’