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सारे कयास गलत निकले. राज्य में अंतत: विपक्षी दलों का महा-गठबंधन बन ही गया. उसी फॉर्मूले पर सभी की सहमति बनी, जिस पर कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा के बीच काफी पहले मौखिक करार हो चुका था. तय यह हुआ कि लोकसभा चुनाव कांग्रेस और विधानसभा चुनाव झामुमो के नेतृत्व में लड़ा जाएगा.

mahagathbandhanबीती 17 जनवरी को झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के आवास पर विपक्षी दलों की एक बैठक में इस बात पर सहमति बन गई कि 2019 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ा जाएगा और उसके तुरंत बाद विधानसभा चुनाव में सभी साथी दल झामुमो के नेतृत्व में मैदान में उतरेंगे. बैठक में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो), सीपीएम, सीपीआई, भाकपा-माले एवं माक्र्सवादी समन्वय समिति के नेताओं ने हिस्सा लिया. सभी ने विधानसभा चुनाव में झामुमो नेता हेमंत सोरेन का नेतृत्व स्वीकार कर लिया. विपक्षी दलों के महा-गठबंधन का पेंच यहीं पर फंसा हुआ था. लोकसभा चुनाव को लेकर विपक्षी नेताओं के बीच कहीं कोई विवाद नहीं था. राज्य में लोकसभा की 14 सीटों के बंटवारे पर सहमति लगभग बन चुकी थी.

झामुमो नेता हेमंत सोरेन ने महा-गठबंधन के लिए विधानसभा की तस्वीर अभी से साफ कर लेने की शर्त रख दी थी. हेमंत के नेतृत्व पर झाविमो प्रमुख एवं पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी सहमत नहीं थे. वह चाहते थे कि विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए बिना लड़ा जाए और बाद में संख्या बल के आधार पर फैसला हो. बाबू लाल का मुख्य कार्यक्षेत्र संथाल परगना है, जिसे झामुमो का गढ़ माना जाता है. इस लिहाज से वह झामुमो के मुख्य प्रतिद्वंद्वी रहे हैं, उनकी राजनीतिक हैसियत भी बड़ी है. लिहाजा, हेमंत सोरेन को नेता मानना उनके लिए आसान नहीं था. लेकिन, भाजपा को सत्ता से बाहर करने की गरज से वह कड़वा घूंट पीने को तैयार हो गए. बैठक के बाद बाबू लाल ने साफ कहा कि जब बैठक हेमंत सोरेन के नेतृत्व में हुई, तो नेता के नाम पर सवाल कहां खड़ा होता है. यही बात भाकपा के राज्य सचिव भुवनेश्वर मेहता एवं राजद की प्रदेश अध्यक्ष अन्नपूर्णा देवी ने कही.

विपक्षी दलों की बैठक के बाद उभरा यह परिदृश्य चौंकाने वाला था. दरअसल, झारखंड में राष्ट्रीय दल के रूप में केवल भाजपा और कांग्रेस ही हैं. झारखंड नामधारी दलों के लिए लोकसभा से ज्यादा महत्व विधानसभा चुनाव का है. उनकी नजर दिल्ली नहीं, रांची की गद्दी पर रहती है. उनकी पृष्ठभूमि सांस्कृतिक तो है, लेकिन किसी विचारधारा से उनका कोई लेना-देना नहीं है. लोकसभा चुनाव में जो गठबंधन और माहौल बनेगा, वही विधानसभा चुनाव में प्रभावी रहेगा. लोकसभा चुनाव में उनकी दिलचस्पी का एकमात्र कारण यही है. झामुमो जरूर चाहेगा कि पार्टी प्रमुख शिबू सोरेन अपनी पारंपरिक सीट दुमका से जीतकर एक बार फिर लोकसभा में जाएं. वामपंथी दलों के पास वैचारिक प्रतिबद्धता और वैश्विक दृष्टिकोण है, लेकिन उनका जनाधार सत्ता की राजनीति के लिए उपयुक्त नहीं है. झारखंड में उनकी ज्यादा से ज्यादा हजारीबाग और कोडरमा सीट पर दावेदारी बन सकती है. तालमेल में उन्हें कोई एक सीट मिल जाए, तो बहुत है.

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हालांकि, अभी महा-गठबंधन की विधिवत घोषणा नहीं हुई है. दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी में विपक्षी दलों की बैठक आहूत की गई है, जिसमें सीटों के बंटवारे के साथ ही महा-गठबंधन की विधिवत घोषणा होने की संभावना है. भाजपा ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की थी कि झारखंड नामधारी दल अलग गठबंधन बनाकर लड़ें, ताकि संघर्ष त्रिकोणात्मक हो जाए और उसे राजनीतिक लाभ मिले. इसके लिए झारखंडी दलों की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा जगाने का भी भरपूर प्रयास हुआ, लेकिन कांग्रेस की रणनीति पूरी तरह सफल रही. उत्तर प्रदेश का किस्सा झारखंड में दोहराया नहीं जा सका.

17 जनवरी को एनडीए के विधायकों की भी बैठक आहूत की गई थी, जिसमें चुनावी रणनीति बनाई गई. दरअसल, लोकसभा चुनाव में एनडीए का मतलब सिर्फ और सिर्फ भाजपा है. 2014 के चुनाव में 14 में से 12 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने के नाते उसकी कोशिश सभी 14 सीटों पर विजय पताका लहराने की है. एनडीए के सहयोगी दलों का किसी सीट पर दावा नहीं बनता. इसलिए भाजपा अपने सहयोगी आजसू और जदयू के साथ तालमेल पर कोई बात नहीं कर रही.

आजसू प्रमुख सुदेश महतो क्षेत्रीय सवालों को लेकर भाजपा सरकार के खिलाफ आग उगलते रहे हैं. स्वाभिमान जागरण यात्रा के जरिये उन्होंने पूरे राज्य का दौरा किया और रघुवर सरकार पर कॉरपोरेट हितैषी होने तथा झारखंडी आकांक्षाओं के खिलाफ काम करने का आरोप लगाते रहे. उनके तेवर से उनके पाला बदलने की संभावना भी जताई जाने लगी थी, लेकिन विपक्षी दलों की जमात में वह शामिल नहीं हुए. वह झारखंडी दलों के अलग मोर्चे के पक्ष में थे. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राज्य की भाजपा सरकार के खिलाफ उनके तल्ख तेवर एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हो सकते हैं. संभव है कि भाजपा के इशारे पर चुनाव को त्रिकोणात्मक बनाने के लिए वह लोकसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारें और इस तरह भाजपा की मदद करते हुए विधानसभा चुनाव में एनडीए का हिस्सा होने के नाते तालमेल पर जाएं. आजसू का जनाधार सदानों (गैर आदिवासी-मूलवासी) और आदिवासियों के बीच है. उनकी पार्टी भाजपा के जनाधार में कुछ जोड़ जरूर सकती है, लेकिन सेंध नहीं लगा सकती. उसके उम्मीदवार झामुमो, झाविमो और वामपंथी दलों के ही वोट काटेंगे. इससे भाजपा को लाभ होगा. हालांकि, अभी आजसू का रुख साफ नहीं है.

फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि भाजपा की चुनावी तैयारी विपक्षी दलों की तुलना में ज्यादा बेहतर है. विपक्षी दल जहां एकजुटता की कवायद में लगे रहे और अभी तक सीटों का बंटवारा तक नहीं कर पाए, वहीं भाजपा बहुत पहले से ही चुनाव की तैयारी में लग गई थी. वह बूथ कमेटियों तक का गठन कर चुकी है. चुनाव में मतदाताओं का क्या रुख होगा, कैसा जनादेश आएगा, कहना कठिन है, लेकिन भाजपा पूरे दम-खम के साथ मैदान में उतरेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है.