डॉ. मदन गोपाल सिंह न सिर्फ सूफी गायक हैं बल्कि संगीतकार, फिल्म विचारक, गीतकार, पटकथा लेखक और अभिनेता भी हैं। ऐसे शख्स जिनका रिश्ता इल्म से गुजरता हुआ रूहानी हो जाता है, जिनकी रूह से निकल कर आवाज और कलम उस तत्व में विलीन होती है जहां मैं खत्म होकर तुम से मिलती है। वे अपने म्यूजिकल ग्रुप ‘चार यार’ के साथ दुनिया की सैर ही नहीं करते बल्कि अपने सूफियाना कलाम से खुदा से जुड़ने की राह भी टटोलते नजर आते हैं। खामोश पानी, किस्सा जैसी अद्भुत फिल्मों में अपनी लेखन क्षमता और संगीत से मदहोश करने वाले मदन गोपाल सिंह से निशा शर्मा की बातचीत –

अपने म्यूजिकल ग्रुप के बारे में बताएं?
यह 2004 में बना था। हम चार यार हैं और चारों अलग-अलग मजहब से हैं। हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई। हालांकि वास्तव में जो चार यार हुए हैं वह हैं अल्लाह मोहम्मद चार यार- हाजी (लाहौर), ख्वाजा (अजमेर शरीफ), कुतुब (महरौली), फरीद (पंजाब, पाकिस्तान)। जो हमारे चार हैं वह हैं- ख्वाजा, कुतुब, फरीद, हजरत निजामुद्दीन औलिया। हमारे ग्रुप के साथ ज्यादा अच्छी बात यह हो रही है कि हम दुनिया की अधिकतर यूनिवर्सिटीज के साथ मिलकर गा रहे हैं। हम नई पीढ़ी के बीच गा रहे हैं, कभी लंदन में होते हैं तो कभी केरल के किसी सरकारी स्कूल के बच्चों के बीच। हमारी गायकी में छोटी-छोटी कहानियां होती हैं, कहानियों के साथ जो दार्शनिक तत्व हैं साथ ही दुनिया में जो घटनाएं घटित हो रही हैं उनका भी संदर्भ रहता है। कभी हम वो कहानियां भी कहते हैं जो जहनी तौर पर हमारी यात्राएं भी होती हैं। एक हजार साल की संगीत की यात्रा है, कविता की यात्रा है, उसमें तस्व्वुफ भी है, ज्यादातर सूफी गायकी को लेकर चलते हैं, उसमें भक्ति और कविता भी है। जब लोग बहुत आग्रह करते हैं तो गुरुवाणी भी गा देते हैं। गुरुवाणी गाने के कुछ नियम कायदे हैं जिनका हिसाब रखना पड़ता है। जैसे सिर ढक कर गाना है, राग में गाएं। मैं यह नहीं कहता कि हम हिन्दुस्तान के इकलौते गाने वाले हैं लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि हम अलग हैं।

कभी लगा कि सूफी नहीं बल्कि फिल्मी संगीत की ओर जाना है?
शुरुआत में मुझ पर फिल्मी संगीत का बहुत प्रभाव था। मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर, मुकेश भी पसंद थे तो तलत महमूद को भी सुनते थे। मुझे देवानंद बहुत पसंद थे। राज कपूर, शम्मी कपूर, दिलीप कुमार भी बहुत पसंद थे। वहीदा रहमान, नर्गिस, मधुबाला, मीना कुमारी, गीता बाली पसंद थीं। उनका बहुत एहतराम था। उस समय थियेटर थे। शहर की अपनी एक महक होती है वो महक थी। मेरी आवाज अच्छी थी। मैं गाता था तो सब सुनते थे। मेरी मौसियों ने जवानी में कदम ही रखा था। दोनों मुझसे करीब 10 साल ही बड़ी होंगी। उस समय इतना खुलापन नहीं था, पर्ददारी थी। वह दोनों मुझे बांस की सीढ़ी पर बैठाकर गाना गवाया करती थीं। उस समय एक फिल्म आई थी ‘गूंज उठी शहनाई’ जिसका एक गीत था मोहम्मद रफी की आवाज में ‘कह दो कोई ना करे प्यार’। सोचिये सात साल का एक बच्चा उनको यह गीत सुना रहा है। जब मैं यह गीत सुनाता था तो दोनों मौसियां रोने लगती थीं। जाहिर है, उनकी भी कुछ रोमांटिक भागीदारी रही होगी। मेरी पीचडी फिल्म में है। मैंने कई फिल्में की। कोई बनाई, किसी में संगीत दिया, किसी के लिए गाने लिखे। खामोश पानी में म्यूजिक दिया था। क्लासिकल म्यूजिक में मेरी बहुत रुचि है। पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर का बहुत गहरा प्रभाव है, पंडित कुमार गंधर्व का बहुत प्रभाव है। अगर आप ध्यान से मुझे सुनेंगी तो पता चलेगा कि मैं कहीं-कहीं उन जैसा हूं। मैंने दोनों जगह अपना योगदान देना चाहा और दिया।

आपने क्लासिकल म्यूजिक की ट्रेनिंग क्यों नहीं ली?
मैं खुश हूं कि मेरे पास ट्रेनिंग नहीं है। अगर मेरे पास ट्रेनिंग होती तो मैं मैथड सिंगर हो जाता। मैं मैथड सिंगर नहीं बनना चाहता था। एक समय ऐसा था जब मुझे अहसास हुआ कि मैंने कायदे से संगीत क्यों नहीं सीखा। उसके बाद एक ऐसा दौर आया जब मुझे कविताओं की समझ आने लगी। गायकी की तीन चीजें हैं- एक, अच्छा सा गाना आना चाहिए। ऐसे लोग आपको बहुत मिलेंगे जो अच्छा गाते हैं। दूसरा स्टेज होता है टेक्सट का जिसे हम इंटरप्रेट करते हैं। यह बड़ा जोखिम का काम होता है जिसे मैं सोल डिस्ट्रॉइंग एक्टिविटी कहता हूं। इसमें लोग टेक्सट को इस तरह से इंटरप्रेट करते हैं कि अगर वह दूर की बात करते हैं तो उनके हाथ दूर और पास की बात करते हैं तो हाव भाव पास जताने लगते हैं। मुझे लगता है कि इतना शाब्दिक इंटरप्रेट नहीं होता है। तीसरी चीज होती है जो बहुत कम लोगों को मिलती है। स्टेज पर जब आप गा रहे होते हैं तो एक घड़ी ऐसी आती है जब आप उसे (टेक्सट) इंटरप्रेट नहीं करते बल्कि वो चीज आपको आपकी गायकी और टेक्सट को इंटरप्रेट करना शुरू करती है। आप गायकी के उस स्तर पर होते हो जब वो अद्भुत चीज आपको गाती है। ज्यादातर गाने वाली जो चीजें हैं वह सिर्फ अच्छी आवाजें हैं वो इंटरप्रेट नहीं करती। वो भी अच्छा है। मुझे उनसे भी ऐतराज नहीं है। वो जो उसकी ध्वनि है अगर आप उस ध्वनि का जो आलोक है उसे प्रज्जवलित कर पाए तो ठीक है। हर बार वह प्रज्जवलित नहीं होती। मुझे लगता है वो कोई आपको सिखा नहीं सकता, वो कहीं ना कहीं आपके अंदर होती है याती खुद आती है।

जैसा आप पहले गाते थे वैसा ही आज भी गाते हैं या कोई फर्क लगता है?
गायक हमेशा एक सा नहीं रहता। जो मैं 25 साल की उम्र में गाता था और जो अब गा रहा हूं उसमें ये कहना कि मैं वैसा ही गा रहा हूं तो ये कहना गलत होगा। उसका कारण यह है कि बढ़ती उम्र के साथ मेरा समय को देखने का जो नजरिया है वह बदल गया है। मैं अब उस किस्म की हरकत नहीं करता हूं जो आप जवानी में करते हैं। दरअसल, जब आप जवानी में होते हैं आप अपनी ऊर्जा से जादू पैदा करते हैं। वो समय तभी खत्म और शुरू होता है। वो आपको सम्मोहित करता है सिर्फ उस शैली के स्तर पर। उम्र आप में ठहराव लाती है। जैसे सुबह-सुबह सूरज की किरणें धरती पर बिछती हैं ठीक वैसा ही समय का मसला है।

घर-परिवार का कैसा माहौल था?
हमारा लेना-देना हमारी परवरिश से है। जिस माहौल में मैं बड़ा हुआ हूं उससे है। मेरे पिता पंजाबी जुबान के बड़े शायर और विद्वान रहे हैं, उनका नाम हरभजन सिंह है। उन्होंने उस जमाने में शायरी की जिस जमाने में अमृता प्रीतम, प्रो. मोहन सिंह जैसे नाम रहे। इन दो नामों के साथ तीसरा नाम मेरे पिता का था। इनके बाद शिव कुमार बटालवी की पीढ़ी आती है। पिताजी दिल्ली विश्वविद्यालय में आधुनिक भारतीय भाषाओं के प्रोफेसर और हेड भी रहे। वह पहले सरदार थे जिन्होंने हिंदी में पीएचडी की थी। नामवर सिंह, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉक्टर नागेन्द्र हमारे घर आया करते थे। पिता अच्छे विचारक थे, लिखते थे, कवि थे, यही हमारे घर की तालीम थी। हमारे घर में कविताओं का बहुत जबरदस्त माहौल था। सिर्फ हिन्दी ही नहीं बल्कि दुनिया की और भी जुबानों की कविताएं हम पढ़ते-सुनते थे। हमारे घर में सिर्फ किताबें हीं किताबें थी। किताबों की मीनारें थी। कभी-कभी उनसे बचकर निकलना पड़ता था। जब मैंने बारहवीं पास की तब तक मैं दुनिया के कई नामचीन लेखकों को पढ़ चुका था। टॉलस्टॉय, पॉल, अलबेयर कॉमो, लॉइन जॉनस से लेकर गोर्की सबको पढ़ लिया था। मेरे पिताजी इन सब किताबों का अनुवाद करते थे। उनका अनुवाद छपता था।
मेरा जन्म अमृतसर में हुआ। हमारा परिवार निम्न मध्यम वर्गीय था। उस जमाने में सारे घर में एक ही पंखा होता था जिसकी वजह से रात के वक्त हम छत पर सोते थे। सोने से पहले पानी के छींटे मारे जाते थे। घर के सभी सदस्य एक साथ छत पर सोते थे। मेरी मौसी जो मुझसे उम्र में करीब दस साल बड़ी होंगी, वो हमें कहानी सुनाती थीं। आसमान तारों से भरा हुआ होता था। उस जमाने में इतनी बिल्डिंगें नहीं होती थी तो तारे दूर-दूर तक नजर आते थे। उन सितारों में हम भी कहीं खो जाते थे। कहानी कभी पूरी नहीं होती थी और नींद आ जाती थी। इस तरह का माहौल था घर का।

किस चीज का प्रभाव आप पर ज्यादा रहा?
प्रभाव माहौल का था जो मैंने आपको बताया। जहां मैं पैदा हुआ वहां से स्वर्ण मंदिर नजर आता था। सुबह करीब साढ़े चार बजे गुरुवाणी के शब्द हमारे कानों में पड़ते थे। मेरे ननिहाल वालों ने जब उस घर को बदला तो हमारे नए घर की दीवार स्वर्ण मंदिर की दीवार से जुड़ी हुई थी। सुबह साढ़े चार बजे के करीब घर में पाठ होता था। घर की औरतें फुसफुसाती थीं, उनके पाठ की आवाज भी नहीं आती थी और हमें सोए हुए पता भी लगता था कि पाठ हो रहा है। इन चीजों ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला। दूसरा, उस समय हम रेडियो बहुत सुनते थे जिस पर बड़े-बड़े गायकों को सुना। हम रेडियो पाकिस्तान सुनते थे। आजकल यह कहना मुश्किल है कि क्या रेडियो पाकिस्तान सुनते थे? पर उस समय यह हकीकत थी क्योंकि अमृतसर से लाहौर नजदीक था और जालंधर दूर। जालंधर रेडियो भी सुना जाता था लेकिन उसकी फ्रीक्वेंसी उतनी अच्छी नहीं थी जितनी अच्छी रेडियो लाहौर की थी। उस जमाने में रेडियो पाकिस्तान पर हिन्दुस्तानी फिल्मों के गाने सुनाए जाते थे। 1964 तक हिन्दुस्तानी फिल्मों के गाने आते रहे हैं। उनका एक प्रोग्राम होता था फरमाईशी नग्मों का जो हम सुनते थे। हमारे नाना जी की तीन दुकानें थीं। एक दुकान पर एक हेल्पर थे जिनका नाम नानकचंद था। नानकचंद पढ़े-लिखे थे। किसी कारण से उन्हें ये काम करना पड़ रहा था। वह पर्सियन जानते थे। वही हमारे गानों की फरमाईश लिखकर खतों के जरिये पाकिस्तान रेडियो को भेजा करते थे। उस समय रेडियो पाकिस्तान में एक हम्द आती थी जो मुझे आज भी याद है। उसके लफ्ज थे, ‘लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी’। इसके अलावा मुझ पर फिल्मी गीतों का, लोक गाथाओं का, गुरुवाणी का, सिख गाथाओं, भगत सिंह की गाथाओं का प्रभाव था।

बचपन की कोई घटना जब गायकी को लेकर आपने वाहवाही बटोरी हो?
मेरे स्कूल के बच्चों को पता था कि मैं अच्छा गाता हूं। बच्चों ने हमारे अध्यापक को बताया मेरे गाने के बारे में। एक दिन मेरे अध्यापक ने मुझे प्रार्थना के समय एक गाना गाने के लिए कहा। उस समय शम्मी कपूर की एक फिल्म आई थी ‘तुम सा नहीं देखा’। मुझे उस दौरान यह भी नहीं पता था कि तुम सा क्या होता है। मैंने पिताजी से पूछा कि तुम सा क्या होता है तो उन्होंने इसका मतलब बताया। इससे पहले मुझे लगता था कि ये कोई चीज होती होगी लड्डू जैसी। मैंने गाया- जवानी आई है मस्त मस्त बिन पीए जलाती चल रही है राह में दीये, न जाने इनमें कौन है मेरे वास्ते न जाने इनमें कौन है मेरे लिए… गाना जब खत्म हुआ तो बच्चे पागल हो गए। मेरे अध्यापक थोड़े मुस्कुराए लेकिन मुझे हल्की चपत लगाई और बोले कि ये कोई गाना है गाने वाला। वे मुझे हेड मास्टर के पास लेकर गए। मैं डरा हुआ था कि मुझे डांट पड़ेगी लेकिन उन्होंने उनसे कहा कि यह बच्चा बहुत अच्छा गाता है। इससे हम बैसाखी के मेले पर गवाएंगे। मुझसे एक नया गाना तैयार करवाया गया जिसके बोल थे- ‘तू प्यार का सागर है तेरी इक बूंद के प्यासे हम…’। मुझे इस गाने के लिए ट्रॉफी मिली। वह मेरी पहली ट्रॉफी थी। उसके काफी समय बाद पिताजी ने मुझे सिंह बंधुओं के पास संगीत सीखने भेजा। दोनों मेरे पिता के स्टूडेंट थे लेकिन मैं सिंह बंधुओं के पास एक ही दिन सीखने के लिए गया। वहां बस मैंने सरगम सीखी। उसके बाद मेरा गाना बंद हो गया। इसकी वजह यह है कि मेरे जो दोस्त थे वो जिनके फैन्स थे वे क्रिकेट के खिलाड़ी थे। मेरा दिल करता था कि मैं भी क्रिकेट खेलूं, कहां मुझे गाने में डाल दिया।

संगीत में आपको प्रेरणा कहां से मिलती है?
हमारी जहनी यात्राएं और हमारी वास्तविक जिंदगी के पल हमें प्रेरणा देते हैं। हम जब स्कूल में पढ़ते थे तो दो महीने की छुट्टियां होती थी। मेरे पिता हमें उन छुट्टियों में हिमाचल में डलहौजी ले जाया करते थे जहां हम एक सस्ते गेस्ट हाउस में रहते थे। वहां दूर-दूर तक पहाड़ हैं। मैं और मेरा भाई उन पहाड़ों पर चढ़ने की पूरी कोशिश करते थे। वे पहाड़ दूर से तो देखने में करीब लगते थे लेकिन होते बहुत दूर थे। चीड़ और देवदार के जंगलों से हवा निकलती थी जो आपको मदहोश करते हुए ऐसी आवाज सुनाते हैं जो दुनिया की है ही नहीं, जो आपकी रूह को अलग ही अहसास करवाती है। इन्हें बयान किया जाना कठिन है। उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। इनके लिए पहाड़ों का मैं बहुत ऋणी हूं। ऐसे ही, रेडियो पर पहली बार मैंने उस्ताद फतेह अली खान के वालिद और ताया जी फतेह अली और मुबारक अली की कव्वाली सुनी। मेरे लिए वह बड़ा अजीब गाना था, ऐसा गाना मैंने पहले कभी सुना नहीं था। मैं पिताजी के पास गया और उनसे पूछा तो उन्होंने तफ्सील से बताया कि कव्वाली होती क्या है। तब हम ये सीख रहे थे कि कव्वाली क्या है, भजन क्या है, गुरुवाणी में कीर्तन क्या है। यह सब आपके अंदर रह जाता है और धीरे-धीरे परिपक्व होता है।

पिता का प्रभाव कहां तक लगता है?
पिता का प्रभाव जिन्दगी में ये रहा कि उन्होंने मेरी जिन्दगी में किताबें भर दीं। आज हमारे ग्रुप में जो अलग नजर आता है उसका कारण यह भी है कि हम सब आज भी पढ़ते बहुत हैं। हमारे पीछे एक बहुत मजबूत आधार है पढ़ाई का।

अभी फिल्मों के लिए क्या कर रहे हैं?
अभी एक फिल्म की है ‘सॉन्ग आॅफ स्कॉरपियन’। अनूप सिंह ने फिल्म लिखी और निर्देशित की है जिसमें मैंने संगीत दिया है। वहीदा रहमान जी से मैंने दो गाने भी गवाए हैं। फिल्म में वहीदा जी तो हैं ही, इरफान खान भी हैं। अभी फिल्म अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिखाई जा रही है।