उमेश सिंह

वे गीत ऋषि थे। गीतों की राह पर चले थे तो अकेले और कारवां बनता गया। वे जीवन के दर्शन के रचनाकार थे, गायक थे। उनके गीतों में जीवन के मूल्य धड़कते रहे, संस्कृति की प्राणधारा उगमती रही। उनके गीत हमारे दर्द को उभारते और साथ ही में उभरे दर्द के जख्मों पर बड़े प्रेम से मरहम भी लगाते रहे। ‘जीवन के स्वप्न’ जब झरने लगते थे तो उस विकट स्थिति में भी उनके छंद मुस्कुराते रहे। वे प्यार की कहानी के लिए स्याही नहीं, आंखों का पानी मांगते रहे। टकसाली सिक्कों की जहां खनखनाहट है, शोर है, उस सिने जगत की काव्य भाषा को नई ऊंचाई दी। उसे साहित्यिकता से सरोबार किया। गजब की संगति कि मृत्यु गीत में भी जीवन का संगीत बजता रहता था, धड़कता रहता था। मंचीय कविता के वे अपने युग में शिखर पुरुष रहे। साथ ही मुख्य धारा में भी गौरव और गरिमा के साथ रहे। वे गीत गाते थे और उन्हीं के साथ रसिक श्रोता भी गुनगुनाने लगते थे। वे जीवन को मथते रहे, गुनते रहे और साथ ही में गाते भी रहे। ‘जीवन के बसंत’ के गीत के साथ ही मृत्यु दर्शन का गीत भी गया। उनके गीतों में जीवन का मधुरिम संगीत था तो मृत्यु का विराट यथार्थ भी तैरता रहा। जीवन को अपनी तरह से जिया, भोगे गए अनुभवों को शब्दों में पिरोया। उम्र को बाधा नहीं बनने दिया। जब वे मंचों से गीत गुनगुनाने लगते थे तो वे मानो देह के पार किसी दूसरे लोक में प्रयाण कर जाते थे।

उन्होंने देह भले त्याग दी लेकिन अपने गीत छोड़ गए हैं। उनका जाना गीत की उस ‘वासंतिक- ऋतु’ पर पतझड़ की बेला का आ जाना है। नीरज के रहते गीतों में जीवंतता थी, गीतों की रंग-बिरंगी, हरी-भरी क्यारी थी। हमारे कंठ को, हमारे मानस को, हमारी स्मृति को रंग-बिरंगे और हरे भरे गीतों की सौगात देने वाले कवि नीरज नहीं रहे। आप यूं ही नहीं जा सकते हैं। माना कि आप की देह चली गई, लेकिन आप के भाव और उन भावों को जिन शब्दों में आपने ढाला है, वह इतना आकर्षक और सम्मोहक है कि सदियां उसे गुनगुनाती रहेंगी। आप ही के शब्दों में ‘लगेंगी सदियां तुम्हें भुलाने में…’। उनका कारवां तो गुजर गया लेकिन उसका गुबार भी कम मूल्यवान नहीं है। शब्दों का ऐसा दार्शनिक चितेरा, प्रकृति का ऐसा गायक और बिंबों का ऐसा निर्माता शायद ही अब मिलेगा। खुद की ‘काव्यत्व-ऊर्जा’ पर गीत ऋषि इतने मुतमइन थे कि घोषणा कर डाली ‘काल बादलों से घुल जाए/ वह मेरा इतिहास नहीं है।’ या फिर मृत्यु के दूत से संवाद का उनका लोकप्रिय गीत ‘ऐसी क्या बात है चलता हूं अभी चलता हूं/ गीत एक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं।’

छात्र जीवन में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में उन्हें देखा और सुना और साथ में गुनगुनाया भी। पहली बार जीवन के गीतकार को बेहद करीब से देखा और जाना। नीरज का ऐसा जुनून चढ़ा कि खुमारी उतर ही नहीं रही थी। क्लास छूट गया और शहर-दर शहर टापता रहा उनको सुनने के लिए। किराये का संकट, फिर भी उनमें ऐसा आकर्षण हुआ कि पांव थमते ही नहीं थे। कई वर्षों तक यूं ही चलता रहा। उनसे जो थोड़ी बहुत सामीप्यता हुई, उसमें हमारे गांव के पास के कवि शलभ श्रीराम सिंह और सूंड़ फैजाबादी का नाम काफी सहायक हुआ। फिर बीच में संबंधों का वह तार टूट सा गया। लेकिन इधर पांच वर्ष से फिर से उनसे नाता जुड़ा। माध्यम बने बाराबंकी स्थित श्री कालिका आश्रम के संस्थापक तंत्र साधक मंत्र मर्मज्ञ बृजेश कुमार पांडेय के शिष्य संतोष शुक्ला। आश्रम पहुंचते ही कवि नीरज के जीवन की सांध्य बेला के एक से एक प्रेरक प्रसंग सुनने को मिलते थे। वे जब भी लखनऊ आते थे तो श्री कालिका आश्रम सूचना आ जाती थी। वे कितने भोले-भाले थे कि खुद ज्योतिष, आयुर्वेद और अंकशास्त्र का गंभीर ज्ञाता होते हुए संतोष से अपनी उम्र, रोग व उसके ज्योतिषीय निदान के बारे में चर्चा करते रहते थे।

कवि सम्मेलन उनसे गुलजार होते थे। उनके गीतों में प्रेम है, विरह है, तड़प है और प्रकृति का रास रंग भी। काव्य मंच उनसे थे, वे मंचों से नहीं थे। वे बहुत डूब के पढ़ते थे। उन्होंने ‘बिना डूबे नहाने वालों’ के स्नान को खुली चुनौती दी थी। गीत सुनाते समय वे खुद ऐसी डुबकी लगाते थे कि सुनने वालों में दर्द का हहराता समुंद्र उमग पड़ता था। ‘स्वप्न झरे फूल से’ कविता को सुनाते-सुनाते जब वे ‘जब तलक कदम उठे जिंदगी फिसल गई…’ पर आते थे तो उनकी भाव-भंगिमाएं अद्भुत और अविस्मरणीय हो जाती थीं। उनका एक पैर मंच से थोड़ा ऊपर खुद-ब-खुद उठ जाता था। बस वही क्षण भर का दृश्य क्या नहीं करा देता था। श्रोता की स्मृति यात्रा अतीत के उस बिंदु को स्पर्श कर जाती थी। वह बिंदु था जाने-अनजाने में उसकी एक गलती जिसके कारण उसकी जिंदगी फिसल गई। कवि सम्मेलन के बाद भी उनके शब्द जीवंत रहते थे। हमारी शिराओं में बहते थे। हमारी चेतना में हमेशा-हमेशा के लिए दर्ज हो जाया करते थे। उन्होंने खुद गाया है ‘जीवन के सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य/ मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।’

सपनों के मुसाफिर, गीतों के राजकुमार गोपाल दास नीरज का जन्म चार जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरावली गांव में हुआ। बचपन में ही पिता की छाया से नीरज वंचित हो गए। जीवन जीने के लिए क्या नहीं किया? यमुना में छलांग लगा पैसे खोजे। टाइपिस्ट की नौकरी। हिंदी के शिक्षक बने। वे जीवन के संघर्षों में तप कर निखरे। निखार ऐसा कि हर कोई सम्मोहित हो उठा। उन्होंने लिखा-
‘कांपती लौ, ये स्याही, ये धुआं, ये काजल/ उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी/ कौन समझे मेरी आंखों की नमी का मतलब/ जिंदगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी।’
नीरज के साहित्यिक सफर ने हिंदी साहित्य को अमूल्य धरोहर से समृद्ध किया है। ऐसा काव्यात्मक खजाना कि वह खर्च होता रहेगा लेकिन कम नहीं होगा। उनकी प्रमुख पुस्तकें- दर्द दिया है, बादलों से सलाम लेता हूं, गीत जो गाए नहीं, वंशीवट सूना है, फिर दीप जलेगा तुम्हारे लिए, प्राणगीत, नदी किनारे लहर पुकारे, बादर बरस गयो, पुष्प पारिजात के, काव्यांजलि, कारवां गुजर गया, नीरज की पाती, नीरज दोहावली, नीरज की गीतिकाएं, मुक्तकी, दो गीत, गीत-अगीत, नीरज संचयन, नीरज के संग कविता के सात रंग- आदि हैं। भारत भूषण और फिराक गोरखपुरी सम्मान से अलंकृत कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने कहा कि ‘नीरज के भीतर गजब की खलिश है। यंग जनरेशन उनकी दीवानी थी। उस दौर में शिवमंगल सिंह सुमन, दिनकर, महादेवी वर्मा आदि बहुत से कवि सक्रिय थे लेकिन उनके बीच नीरज ने अपनी अलग जगह बनाई। वे नए तरह की भाषा और नए किस्म के विंब लेकर आए। बाद में उनके गीतों में एक तरह से ढलान सी आने लगी। शुरुआती दौर में उनमें जो नवीनता थी, उनकी जो नई शब्दावली थी, उनके उत्तर जीवन में धीरे धीरे कम होने लगी। कवि सम्मेलनों के पवित्र मंच पर विदूषक, गायक, लतीफेबाज आने लगे। इन लोगों ने कवि सम्मेलनों की पूरी संस्कृति को ही नष्ट कर दिया। जो गंभीर किस्म के कवि हैं, उन्हें नीरज से सीखने की जरूरत है। पहले जो मंच पर थे, वे साहित्य में थे। जो सुनते थे, वही किताबों में पढ़ते भी थे। लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया। अब मंच और साहित्य अलग अलग हो गया है। उसे एक करके नीरज को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है।’
नीरज ने मुंबई की ओर भी रुख किया। उनकी मुंबई की यात्रा का परिणाम यह रहा कि फिल्मों के काव्य सौंदर्य से हरे भरे गीतों ने नई हलचल मचा दी। पिछली शताब्दी का छठा व सातवां दशक मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री में नीरज के गीतों से गूंजता रहा। प्रेम पुजारी, मेरे तेरे सपने, रेशमा और शेरा, रेशम की डोरी, गुनाह, शर्मीली, मेरा नाम जोकर, नई उम्र की नई फसल आदि फिल्मों के जरिये नीरज के गीतों ने धूम मचा दी। उनका नाम इतना बड़ा हो गया था कि सम्मान मिलने पर उस सम्मान का महत्व बढ़ जाता था। नीरज को पद्म भूषण, पद्मश्री और यश भारती सम्मान से नवाजा गया और वे उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष भी रहे। सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए उन्हें तीन बार फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। ये कालजई गीत ‘काल का पहिया घूमे रे…’, ‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं…’ और ‘ऐ भाई! जरा देख के चलो…’ हैं।
नीरज चले गए। उनके जाने को उन्हीं के एक गीत के एक अंश से याद करते हैं-
‘कोई चला तो किसलिए नजर डबडबा गई/ श्रृंगार क्यों सहम गया, बहार क्यों जला गई/ न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ/ बस इतनी सिर्फ बात है/ किसी की आंख खुल गई/ किसी को नींद आ गई।’ 