अनूप भटनागर

न्यायपालिका सितंबर 1986 से जून 2018 तक प्रसिद्ध उद्योगपति ललित मोहन थापर की जमानत से लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के पुत्र कार्ति चिदंबरम को अग्रिम जमानत देने तक नितांत आवश्यक मामलों की देर रात में सुनवाई करके न्यायिक इतिहास में एक लंबी दूरी तय कर चुकी है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद हुए राजनीतिक घमासान और हाल ही में कार्ति चिदंबरम के मामले में सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाई कोर्ट में मध्य रात्रि में हुई सुनवाई चर्चा में है। सियासी गलियारे में यह सवाल चर्चा में है कि इन दोनों मामलों में रात में सुनवाई की आवश्यकता क्यों थी? बहरहाल यह बहस का विषय है लेकिन यह सवाल लगातार उठता रहेगा कि क्या किसी गरीब और वंचित की जमानत के लिए इस तरह देर रात सुनवाई हो सकती है?
वैसे तो पिछले कुछ सालों में 1993 के मुंबई बम विस्फोट कांड के एक दोषी याकूब मेमन और निठारी बलात्कार तथा हत्याकांड के दोषी सुरेंद्र कोली को मौत की सजा से राहत दिलाने और उनके जीने के अधिकारों की रक्षा को लेकर दायर मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट ने देर रात इजलास लगाकर सुनवाई की है। यह सही है कि अदालतें न्यायिक कामकाज के लिए निर्धारित समय के बाद भी विशेष परिस्थितियों में देर तक बैठ सकती हैं और अत्यावश्यक मामले की सुनवाई कर सकती हैं। गर्मी की छुट्टियों के दौरान बंबई हाई कोर्ट ने हाल ही में रात तीन बजे तक और दिल्ली हाई कोर्ट की अवकाशकालीन पीठ ने रात 11 बजे तक काम करके अनेक आवश्यक याचिकाओं और आवेदनों का निपटारा किया है।
बंबई हाई कोर्ट के न्यायाधीश जेएस कथावाला ने तो अप्रैल के अंतिम सप्ताह में मध्य रात्रि तक मामलों की सुनवाई की। फिर चार मई को न्यायमूर्ति कथावाला ने रात साढ़े तीन बजे तक 135 से भी ज्यादा मामलों की सुनवाई की। बताते हैं कि इनमें से 70 मामले तो बहुत आवश्यक थे। दिल्ली हाई कोर्ट की अवकाशकालीन पीठ ने जून के महीने में रात 11 बजे तक सुनवाई की और इस दौरान करीब 120 याचिकाओं और अर्जियों पर विचार किया। न्यायमूर्ति संगीता ढींगरा सहगल और न्यायमूर्ति सी हरि शंकर की खंडपीठ ने उस रात अपना आखिरी आदेश आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह की याचिका खारिज करते हुए दिया। इस याचिका में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संसद में उपस्थिति सुनिश्चित करने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया था। लंबित मुकदमों का बोझ कम करने के लिए बंबई हाई कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट के यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय हैं। लेकिन ऐसी कोई घटना ध्यान में नहीं आती जिसमें सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट ने ललित मोहन थापर और कार्ति चिदंबरम के मामले जैसे किसी प्रकरण में किसी सामान्य व्यक्ति की जमानत या अग्रिम जमानत याचिका पर रात में सुनवाई की हो।
पिछले 30-35 साल के इतिहास में शीर्ष अदालत ने 5 सितंबर, 1986 को मध्य रात्रि में एक आपराधिक मामले में गिरफ्तार उद्योगपतियों ललित मोहन थापर (अब दिवंगत) और श्याम सुन्दर लाल की जमानत याचिका पर सुनवाई करके आरोपी को जमानत दी थी। यह संभवत: पहला मौका था जब शीर्ष अदालत ने मध्य रात्रि में किसी आरोपी की जमानत याचिका पर सुनवाई की और उसे जमानत दी। उद्योगपति थापर और लाल को आधी रात को दी गई जमानत लंबे समय तक चर्चा में रही। बीच-बीच में जमानत के लिए न्यायालय के समक्ष आए प्रकरणों में इसका हवाला देते हुए तत्काल राहत के लिए ऐसे मामलों में अमीरों और गरीब या आम आदमी के बीच भेदभाव का भी सवाल उठता रहा है।
फेरा मामले में थापर और लाल को मध्य रात्रि में शीर्ष अदालत से जमानत मिलने के कुछ दिन बाद ही एक आरोपी की जमानत के लिए वकील दिनेश कुमार गर्ग ने याचिका दायर की थी। न्यायमूर्ति वेंकटरमैया की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने आरोपी को जमानत देने से इनकार किया तो गर्ग ने सवाल उठाया था कि क्या सिर्फ प्रभावशाली लोगों को ही आधी रात को जमानत मिलेगी। शीर्ष अदालत में यह प्रकरण आज भी वकीलों के बीच चर्चा का केंद्र बन जाती है। हालांकि इस घटना के कुछ महीने बाद ही 19 नवंबर, 1986 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश पीएन भगवती की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने जमानत और अग्रिम जमानत के संदर्भ में इस अवधारणा को दूर करने का प्रयास किया। संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा भी कि यह कहना सही है कि यह न्यायालय आम लोगों के प्रति उस तरह का आचरण नहीं करता है जैसा वह बड़े उद्योगपतियों के प्रति करता है। संविधान पीठ ने यह भी कहा कि न्यायालय हमेशा ही यह मानता है कि गरीब और वंचित लोग कारोबारियों और उन सरीखे दूसरे धनवान और प्रभावशाली व्यक्तियों की तुलना में प्राथमिकता पर विचार के हकदार हैं।
अब पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के पुत्र कार्ति चिदंबरम को मद्रास हाई कोर्ट द्वारा रात 11 बजे अग्रिम जमानत दिए जाने का मामला चर्चा में आ गया है। कार्ति चिदंबरम को अग्रिम जमानत दिए जाने पर शायद ही किसी को आपत्ति हो लेकिन एक बार फिर वही सवाल उठा कि क्या आपराधिक मामले में गिरफ्तारी की आशंका के आधार पर देर रात आम नागरिक को भी इस तरह से राहत मिल सकती है? कार्ति चिदंबरम का मामला तो बेहद दिलचस्प है। विदेशों में अपनी कथित संपत्ति की घोषणा नहीं करने के मामले में आयकर विभाग ने कार्ति को कालाधन कानून के तहत तीन बार समन जारी किया। लेकिन जब वह जांच के सिलसिले में पेश नहीं हुए तो आयकर विभाग की जांच प्रकोष्ठ के उप निदेशक ने उनके खिलाफ वारंट जारी करके उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करने का पुलिस को निर्देश दिया था। इस मामले में कार्ति के वकीलों ने शनिवार नौ जून को मद्रास हाई कोर्ट में अग्रिम जमानत की अर्जी दायर की। मुख्य न्यायाधीश के निर्देश पर रात में करीब साढ़े ग्यारह बजे एक खंडपीठ ने इसकी सुनवाई की और उन्हें अग्रिम जमानत दे दी।
संविधान कहता है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं और उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। संविधान का अनुच्छेद 21 नागरिकों के जीवन और व्यक्तिगतस्वतंत्रता को संरक्षण प्रदान करता है। परंतु किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार इस स्वतंत्रता से वंचित भी किया जा सकता है। इसी तरह अनुच्छेद 22 में कुछ परिस्थितियों में गिरफ्तारी और निरुद्ध करने से संरक्षण प्रदान किया गया है। आपराधिक मामलों में वैसे तो कानून की सामान्य प्रक्रिया के अनुसार ही विचार किया जाता है लेकिन जमानत या अग्रिम जमानत के लिए प्रत्येक मामले में ऐसा नहीं होता है और ऐसा संभव भी नहीं है क्योंकि आम नागरिक न तो तत्काल राहत के लिए होने वाला खर्च वहन नहीं कर सकता और न ही उसके लिए इतनी दौड़ धूप करना संभव होता है।
अगर तीन दशकों से भी अधिक समय के दौरान मध्य रात्रि में नागरिकों की जिंदगी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा के लिए न्यायालय से राहत पाने वाले मामलों पर गौर करें तो पता चलता है कि प्रतिष्ठित विधिवेत्ताओं का खर्च वहन करने में सक्षम उद्योगपति ललित मोहन थापर और कार्ति चिदंबरम जैसे प्रभावशाली और संपन्न वर्ग के सदस्य ही सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट से जमानत और अग्रिम जमानत जैसी राहत पाने में सफल हुए हैं।
नितांत आवश्यक परिस्थितियों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्याय प्रदान करने के लिए मध्य रात्रि या कामकाज की सामान्य अवधि के बाद विशेष रूप से सुनवाई करने की सराहना भी हुई है लेकिन इससे एक वर्ग यह भी महसूस करता है कि किसी भी मामले में समूची न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद फिर से राहत के लिए रात में याचिका दायर करना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग ही है। 1993 में हुए मुंबई बम विस्फोट कांड में मौत की सजा पाने वाले याकूब मेमन को आखरी वक्त में फांसी के फंदे से बचाने के प्रयास के रूप में शीर्ष अदालत में दायर याचिका और 31 जुलाई, 2015 को उस पर देर रात सुनवाई एक ऐसा ही उदाहरण है। हालांकि इस याचिका पर देर रात सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई सुनवाई की लगभग सभी वर्गों ने सराहना की लेकिन यह भी हकीकत थी कि याकूब मेमन के मामले में कानून में प्रदत्त सारे विकल्पोंं और अवसरों का पहले ही उपयोग किया जा चुका था। इसके बाद ही उसे फांसी देने के लिए आवश्यक वारंट जारी किया गया था।
इससे पहले 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा गिराये जाने की घटना के तत्काल बाद न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया के निवास पर उसी शाम इसे लेकर विशेष सुनवाई हुई थी। वैसे मौत की सजा पाने वाले मुजरिमों को फांसी के फंदे से बचाने के प्रयास में देर शाम दायर होने वाली याचिकाओं पर शीर्ष अदालत ने हमेशा ही तत्काल सुनवाई की है क्योंकि यह व्यक्ति की जिंदगी और मौत से जुड़ा मामला होता है। मौत की सजा के खिलाफ लगातार आवाज उठा रहे मानवाधिकार कार्यकर्ता और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील पीयूडीआर जैसे संगठन ऐसे मामलों में काफी तत्परता दिखाते हैं। न्यायालय ने 9 सितंबर, 2014 को निठारी कांड के मुजरिम सुरेंद्र कोली की फांसी की सजा के अमल पर रोक लगाने के लिए दायर याचिका पर देर रात सुनवाई की थी और मुजरिम को राहत प्रदान की थी। कोली ने उत्तर प्रदेश के नोएडा स्थित निठारी गांव के एक मकान में कई मासूम बच्चियों की हत्या करने और उनका मांस खाने का अपराध कबूल किया था। इसी तरह अपनी पांच बेटियों की हत्या के जुर्म में मौत की सजा पाने वाले मगन लाल बरेला की सजा पर अमल रुकवाने के लिए भी दायर याचिका पर न्यायालय ने 9 अप्रैल, 2013 को देर शाम सुनवाई की थी और मुजरिम को फांसी पर लटकाने के लिए जारी वारंट पर रोक लगा दी थी। मगन लाल बरेला ने मध्य प्रदेश के सिहोर जिले के अंतर्गत अपने गांव में पत्नी के साथ हुए झगड़े के बाद 11 जून, 2010 को अपनी एक से छह वर्ष की पांच बच्चियों की कुल्हाड़ी से हत्या कर खुद भी फांसी लगाने का प्रयास किया था।
यही नहीं, किसी भी राज्य में राजनीतिक उथल पुथल की स्थिति में राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले नेताओं और दलों की याचिकाओं पर भी शीर्ष अदालत ने मध्य रात्रि में सुनवाई की है। इसमें सबसे चर्चित मामला तो 21 फरवरी, 1998 को उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करके जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री नियुक्त करने के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी के निर्णय का था। इस मामले में न्यायालय ने 24 फरवरी, 1998 को प्रदेश की विधानसभा में संयुक्त शक्ति परीक्षण का आदेश दिया था। शक्ति परीक्षण से पहले ही जगदंबिका पाल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद सबसे बड़े दल भारतीय जनता पार्टी के नेता बीएस येदियुरप्पा को सरकार बनाने का निमंत्रण देने के राज्यपाल वजूभाई वाला के फैसले के खिलाफ देर रात कांग्रेस-जद (सेक्यु) गठबंधन ने 16 मई को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। न्यायालय ने इस मामले में रात तीन बजे तक सुनवाई की परंतु उसने भाजपा नेता येदियुरप्पा को बतौर मुख्यमंत्री शपथ दिलाए जाने पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।
इसमें संदेह नहीं है कि शीर्ष अदालत ने मौत की सजा पाने वाले मुजरिम के जीवन-मरण के अधिकार से जुड़े मुद्दे और लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा के मामले में जरूरत पड़ने पर हस्तक्षेप किया है और ऐसे मामलों में देर रात सुनवाई की है। लेकिन इससे इतर आपराधिक मामलों की जांच के दौरान ही आरोपी की याचिका पर देर रात सुनवाई करने और राहत दिए जाने की कार्यवाही बहस का विषय बन गई है। 