उदय चंद्र सिंह

काठमांडू से करीब 40 किलोमीटूर दूर है रामकोट गांव। इसी गांव से होकर एक कच्ची सड़क मॉनेस्ट्री तक जाती है। इसे द्रुक गावा खिलवा ननरी के नाम से भी जाना जाता है। मॉनेस्ट्री की भव्यता दूर से ही दिखती है लेकिन चारदीवारी के अंदर जाते ही साल भर पहले आए भूकम्प की तबाही साफ नजर आती है। ज्यादातर भवन तहस नहस हो चुके हैं। यहां घुसते ही हर तरफ चहल पहल नजर आई। मॉनेस्ट्री की मुख्य इमारत की छत की तरफ बढ़ा तो वहां एक ग्रुप कुंग-फू की प्रैक्टिस करता नजर आया। तलवार, भाले, डंडे लिए ग्रुप के सदस्य चार फुट ऊंची छलांग लगा रहे थे। तेज गर्मी की वजह से सभी पसीने से तरबतर थे मगर कोई उसे पोछ नहीं रहा था।

प्रैक्टिस खत्म होते ही मैंने उनमें से एक जिग्मे कुन्चॉक लामू से बात शुरू की तो पता चला कि ये सभी लड़कियां हैं। पहचानना इसलिए भी मुश्किल हो रहा था क्योंकि सबके सिर मुंडे थे। कुंग-फू पायजामा और शर्ट में इन्हें देखकर यह पता ही नहीं चला कि ये नन हैं। कुंग-फू इनके लिए जैसे फिटनेस का गुरु मंत्र है और आत्मरक्षा का बेहद भरोसेमंद कवच भी। कुंग-फू ने इन्हें न सिर्फ दुनिया भर में एक अलग पहचान दिलाई बल्कि जिंदगी जीने का नया रास्ता भी दिखाया। औसत कदकाठी की उनकी काया को देखकर किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि ये मठ में अध्यात्म की शिक्षा लेने वाली साधारण भिक्षुणियां ही हैं। मगर जरूरत पड़ने पर ये किसी की भी हड्डियां चटका सकती हैं। अपनी सुरक्षा के लिए ये किसी और पर निर्भर नहीं हैं। यही हैं कुंग-फू नन जो पिछले चार साल से उस मार्शल आर्ट के गुर सीख रही हैं जिसे सीखने की उन्हें सदियों से मनाही थी।

 बौद्घ धर्म में फेमिनिज्म का नया अध्याय रच रहे हैं

द्रुपका समुदाय के धर्मगुरु ग्यालवांग द्रुक्पा का नाम जिग्मे पद्माा आंगचेन है। चार साल की उम्र में उन्हें ग्यालवांग द्रुक्पा के 11वें अवतार के रूप में दार्जिलिंग के मुख्य मठ ले जाया गया था। द्रुपका पंथ में कुंग-फू लाने का सारा श्रेय उन्हें ही जाता है। पेश है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश :-

अहिंसा की देवियों को कुंग-फू की ट्रेनिंग का क्या मकसद है?

मन की एकाग्रता के लिए तन को स्वस्थ रखना जरूरी है। इसके लिए कुंग-फू सबसे कारगर है। अगर यह कहें कि यह मार्शल आर्ट उन्हें आत्मरक्षा और ध्यान दोनों में  मदद करता है तो गलत नहीं होगा। जब कोई कुंग-फू का अभ्यास करता है तो वो  ऐसा कुछ कर रहा होता है जो न सिर्फ उसके शरीर को मजबूत बनाता है बल्कि दिमाग की ताकत को भी बढ़ाता है।

बौद्ध धर्म में तो महिला भिक्षुणियों की परपंरा नहीं रही है, फिर यह सब क्यों?

यह सही है कि बौद्ध धर्म में भिक्षुणी बनने की परंपरा नहीं रही है। बौद्ध धर्म आधुनिकतावादी धर्म है। इसलिए हमें बदलना पड़ेगा। महात्मा बुद्ध अपने सभी शिष्यों के साथ समान व्यवहार करते थे। हम उनकी विरासत को ही आगे बढ़ा रहे हैं।

कहीं आपका इशारा महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने से तो नहीं है?

बिल्कुल, हम महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना चाहते हैं। हमारी इसी कोशिश का नतीजा है कि भिक्षुणियों को लेकर लोगों की धारणाएं बदल रही हैं। कुंग-फू ने इन्हें नई पहचान दी है। बल्कि मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि हम बौद्घ धर्म में फेमिनिज्म का एक नया अध्याय रच रहे हैं।

भारत सरकार से कोई शिकायत?

सरकार से तो हम यही कहेंगे कि अपनो को मत ठुकराइए। बौद्ध धर्म के नाम पर सरकार का बहुत पैसा उन लोगों के पास जा रहा है जिनका हिन्दुस्तान में रहने वाले बौद्धों से कोई लेना देना नहीं है। भारत के अधिकांश बौद्ध द्रुपका पंथ को मानने वाले हैं। लेकिन लेह लद्दाख में जाकर देखिए, वहां अभी काफी विकास की जरूरत है। चीन की सीमा पर जो बौद्ध हमेशा देश के लिए मर मिटने के लिए तैयार रहते हैं, सरकार उन्हें ही पराया समझती है। बौद्ध नेता के नाम पर जो कुछ गिने चुने नेताओं की चर्चा होती है उनका सीधा सरोकार भारत से नहीं है। हम तो यही चाहेंगे कि भारत सरकार द्रुपका पंथ और इसके कामों को समझे। विश्व शांति और पर्यावरण रक्षा की दिशा में हमनें जो काम किया है उसे विदेशों में तो सराहा गया लेकिन अपने देश में हमें वो पहचान नहीं मिल पाती है।

अमिताभ माउंटेन पर द्रुक गावा खिलवा ननरी की छत पर बौद्ध भिक्षुणियों को कुंग-फू का अभ्यास करते देखना एक सुखद अनुभव था। इन भिक्षुणियों की उम्र 14 से 22 साल थी। सूरज की पहली किरण हिमालय की पहाड़ियों को चूमती हुई जब तक धरती को छूने पहुंचे उससेपहले ही यहां सन्नाटे को चीरती हुई आवाजें गूंजने लगती हैं। ये आवाजें कुंग-फू की विभिन्न मुद्राओं के साथ निकाली जाने वाली ध्वनियों की होती है। कुंग-फू में महारत हासिल कर चुकी और लाहौल स्पीति में जन्मी 16 साल की  जिग्मे कुन्चॉक लामू गर्व से बताती है, ‘जिग्मे का मतलब है निर्भय और कुंग-फू सीखने के बाद मैं सचमुच निर्भया बन गई हूं। हर रात 8 से 10 बजे तक हम कुंग-फू का अभ्यास करते हैं और तड़के तीन बजे मेडिटेशन के लिए जग जाते हैं। फिर दिन भर तिब्बती व्याकरण, अंग्रेजी, धर्मशास्त्र की कक्षाएं होती हैं। हम प्लम्बिंग और इलेक्ट्रिशियन का काम भी सीखते हैं ताकि अपनी इस ननरी में पूरी तरह आत्मनिर्भर बन सकें।’ ये नन रात को मॉनेस्ट्री की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी खुद उठाती हैं। बारी-बारी से गार्ड की ड्यूटी निभाती हैं और मिनी ट्रक खुद चलाकर मॉनेस्ट्री का राशन और बाकी सामान काठमांडू से ले आती हैं।

दरअसल, ये नन बौद्ध परंपराओं के वाहक द्रुपका पंथ की अनुयायी हैं। द्रुपका यानी ड्रैगन पंथ भूटान का राष्ट्रीय धर्म है और लगभग एक हजार साल पुराना है। दुनिया भर में कुंग-फू नन के नाम से विख्यात ये भिक्षुणियां भारत के लद्दाख, सिक्किम, किन्नौर, लाहौल स्पीति, भूटान और नेपाल से आई हैं। द्रुक्पा वंश के प्रमुख ग्यालवांग द्रुक्पा  इस लिहाज से लीक से कुछ अलग हैं कि वे भिक्षुणियों को भी वे तमाम हुनर और सीख देने में जुटे हैं। यह इस मायने में भी लीक से अलग हटकर है क्योंकि कुंग-फू सदियों से सिर्फ भिक्षुओं के सीखने की चीज मानी जाती थी। इसकी शुरुआत भी दिलचस्प तकीके से 2008 में तब हुई जब ग्यालवांग द्रुक्पा वियतनाम की यात्रा पर थे । वहां उन्होंने लड़कियों को कुंग-फू करते देखा। उसी पल उन्होंने काठमांडू के अमिताभ ननरी में भी ननों को कुंग-फू का प्रशिक्षण दिलाने का फैसला किया। बस तभी से जिग्मे रिग्जैम समेत कुछ अन्य वियतनामी कुंग-फू ट्रेनर अमिताभ ननरी की भिक्षुणियों को वो गुर सिखा रहे हैं जो बौद्घ धर्म में महिला सशक्तीकरण का नया अध्याय रच रहा है।

नन का जीवन आसान नहीं होता। मुश्किल से चार-पांच घंटे की नींद ही उनके हिस्से  आती है। दोपहर के भोजन के बाद वे कुछ खा नहीं सकतीं। हां, चाय और पानी जरूर पी सकती हैं। बीमार होने पर ही उन्हें रात का खाना मिलता है। यानी ननरी में जीवन मानसिक और शारीरिक साधना का कठोर मेल होता है। सामान्य विषयों की पढ़ाई, धर्मशास्त्र की शिक्षा, ध्यान, जप, ननरी की साफ-सफाई और बाकी गतिविधियों के अलावा युवा ननों को कुंग-फू का हर दिन अभ्यास भी करना होता है। जिग्मे तुबतेम छह साल पहले जम्मू-कश्मीर पुलिस से आॅफिसर की नौकरी छोड़कर यहां आई थी । जिग्मे बाहर से आने वाले हर किसी को वो टूटा हुआ हॉल दिखाती हैं जहां पिछले साल 25 अप्रैल को वो और उनकी साथी मेडिटेशन के लिए जमा थे। भूकम्प के बाद सभी खिड़की तोड़कर बाहर निकलीं थी। जिग्मे उस भयावह दिन को याद करते हुए बताती हैं, ‘सीढ़ियां ढह चुकी थीं और दरवाजे कहां थे कुछ समझ नहीं आ रहा था। बस जिधर रोशनी दिखी हम निकलते चले गए। जिस बिल्डिंग में हम रहते थे वो भी ढह गई। पर किसी को खरोंच तक नहीं आई। अब सब टेंट में रहती हैं पर कोई इस जगह को छोड़कर जाने को तैयार नहीं।’

भूकम्प ने पास के गांवों  में भी भयंकर तबाही मचाई थी। इन ननों ने एक बचाव टीम बनाई और काम में जुट गर्इं। मलबे में दबे लोगों को बाहर निकाला। सबका इलाज किया। कई दिनों तक खाना पहुंचाया और टेंट के बंदोबस्त भी किए। मॉनेस्ट्री ने तबाह हुए दस गांव गोद लिए हैं। इनमें टूट चुके घरों को दोबारा बनाने का काम पूरा हो चुका है। ये आज नेपाल की अकेली आॅल वूमेन रेस्क्यू टीम है।

वैसे कुंग-फू की शुरुआत के साथ ही इस मठ की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। अब करीब 300 भिक्षुणियां यहां मार्शल आर्ट सीख रही हैं। वे कहती हैं कि शाओलीन कुंग-फू के दुहराने वाले अभ्यास के कारण शरीर पर नियंत्रण बढ़ता है और फोकस अच्छा होता है। 21 साल की मिग्युर पाल्मो हॉलीवुड अभिनेता और मार्शल आर्ट के माहिर जैकी चेन की बड़ी फैन हैं। वह कहती है, ‘कुंग-फू के कारण मेरे काम और ध्यान में तालमेल बढ़ा है। मैं बौद्ध दर्शन सीखने काठमांडू आई थी। अब मैं घर नहीं जाना चाहती। यहीं जिंदगी भर रहना चाहती हूं।’

देचिन नुब्राए लद्दाख से है। 2006 में भिक्षुणी का चोंगा धारण कर चुकी हैं। देचिन  पिछले तीन साल से यहां कुंग-फू सीख रही हैं। वह कहती हैं, ‘कुंग-फू से जुड़ने के  बाद ध्यान लगाना बेहद आसान हो गया है। तड़के जब काठमांडू घाटी नींद की चादर ताने सो रही होती है तब अमिताभ माउंटेन पर बनी ननरी के मेडिटेशन हॉल में 3 से 5 बजे अध्यात्म की क्लास शुरू हो चुकी होती है।’ वह ननरी में कई काम संभालती हैं। बगीचों की देखभाल से लेकर कैफे का संचालन तक। जरूरत पड़ने पर वो ननरी में  बने क्लीनिक के रिसेप्शन पर भी मुस्तैदी से ड्यूटी देती हैं। यानी उनका सफर है मेडिटेशन से मार्शल आर्ट तक, अध्यात्म से सेवा-सत्कार तक। इस कठोर अनुशासन को जीना इन कुंग-फू ननों के लिए जैसे चुटकी का खेल है। यह पूछने पर कि क्या नन बनने का फैसला उनका निजी था या किसी मजबूरी अथवा पारिवारिक परंपरा देचिन कहती हैं, ‘मैं खुद यहां आई थी। मैंने लद्दाख में मठों में भिक्षुओं का जीवन देखा था।  तभी मैंने ठान लिया था कि मुझे नन बनना है।’

द्रुपका पंथ के प्रमुख ग्यालवांग द्रुक्पा कहते हैं, ‘भिक्षुणियों को लेकर लोगों की धारणाएं बदल रही हैं। वे अपनी क्षमता का लोहा मनवा रही हैं। ऐतिहासिक रूप से देखें तो पूरी हिमालयी पट्टी में महिलाओं ने समाज में बराबरी की जगह हासिल करने के लिए हमेशा से संघर्ष किया है। अध्यात्म की दुनिया में तो बराबरी की उनकी चाह ने उन्हें कई बार समाज से बाहर तक धकेला है। ऐसे में कुंग-फू ने उन्हें नई पहचान दी है।’  