मोहन सिंह।

पूर्वांचल की राजनीति में इन दिनों ‘खाट’ ‘बाट’ और ‘घाट’ की चर्चा खूब हो रही है।‘खाट पंचायत’ राहुल गांधी कर रहे हैं। ‘बाट’ का तोहफा सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी बांट रहे हैं। बनारस और आस पास के गंगा ‘घाट’ संवारने का ऐलान केंद्रीय जलसंसाधन, नदी विकास एवं गंगा सफाई मंत्री सुश्री उमा भारती कर रही हैं। सबका लक्ष्य एक है-उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करना। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कहां पीछे रहने वाले। ‘वरुणा कॉरिडोर’ संवारने का काम बाढ़ आने से तीन-चार महीने पहले ही शुरू कर दिया। देखा-देखी वाहवाही लूटने के मकसद से। गंगा में बाढ़ आई और पानी का ‘रेला’ वरुणा की ओर बढ़ा तो वरुणा के किनारे संवरने वाले घाट तो नदी में समा ही गए, वे लोग और स्कूलों के बच्चे भी अचानक गायब हो गए जो सरकारी अमले की देखरेख में प्रायोजित तरीके से वरुणा की सफाई और घाटों को सजाने-संवारने की शपथ लेते थे। वरुणा किनारे अब कुछ बचा है तो वे ‘सूड़’ लटकाई ‘पोकलेन’ मशीनें, (जो वरुणा की सफाई के लिए सिंचाई विभाग की ओर से आई थीं) और वह दफ्तर जो फिलहाल पानी में डूबा है। अब पानी कम होने का इंतजार है, ताकि दफ्तर खुलें और फिर से काम शुरू हो।

एक अनुमान के मुताबिक, इस पूरी कवायद में करीब दो सौ करोड़ रुपये खर्च हुए। एक तरह से यह पैसा पानी में बहा दिया गया। गंगा मंत्री उमाभारती के ‘घाट’ संवारने की कोशिश से भी कम से कम बनारस ने जरूर सबक सीखा कि गंगा घाट संवारने से ज्यादा जरूरी है ‘मल-जल’ के निस्तारण की व्यवस्था । वरना नदी बरसात में सारी गंदगी नालों व सीवर के जरिये शहर में पहुंचा देगी, जिससे लोगों का जीना मुश्किल हो जाएगा। उससे तो जजों की कॉलोनी भी गंगा की चपेट में आने से नहीं बचेगी, क्योंकि नदी का अपना नियम होता है। नदी अपने तरीके से संदेश देती है और अपने नियम मनवाती है। जरूरत है उसके संदेश पर गौर करने की, ताकि भविष्य सुरक्षित रहे।

सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने लगभग 60 अरब रुपये की लागत से राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने का तोहफा पूर्वांचल को दिया। बलिया, आजमगढ़ और गोरखपुर जिलों से होकर यह सड़क निकलेगी। सड़क निर्माण की एकमुश्त इतने बजट की योजना शायद ही इससे पहले पूर्वांचल के हिस्से आई हो। वह जाति की बजाय ‘विकास’ की राजनीति की ‘सूक्ति’ देकर गए। इस ऐलान के साथ कि उनके पास द्रोपदी का ‘अक्षय पात्र’ है जो दान देने से कम नहीं होता। चुनावी साल में इसका मतलब उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करने की बेताबी से भी लगाया जा रहा है। हालांकि इस परियोजना के पूरा होने का इंतजार अगले लोकसभा चुनाव तक तो करना ही होगा।

भाजपा के रणनीतिकार इस बात से बखूबी वाकिफ हैं कि नरेंद्र मोदी के बनारस आने से पहले पूर्वांचल हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। ‘रामरथ’ का पहिया भी यहां रफ्तार नहीं पकड़ पाया था। पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी के करिश्मे का ही नतीजा था कि अमेठी, रायबरेली और आजमगढ़ को छोड़कर पूर्वांचल की सभी सीटों पर भाजपा काबिज हुई। अब इस करिश्मे को बरकरार रखने के लिए भाजपा जातीय आधार वाले छोटे दलों को साध रही है। अपना दल, भारतीय समाज पार्टी, जनवादी पार्टी और प्रगतिशील मानव समाज पार्टी जातीय समूहों की ही पार्टियां हैं। इन दलों में वे नेता है जो या तो बसपा और सपा से निकले हैं अथवा वे जो अपने जातीय समूह को संगठित कर सत्ता का मुकाम हासिल करना चाहते हैं। ये उस दल से समझौता करना चाहते हैं, जिसके पास इन्हें देने के लिए कुछ ‘खास’ हो अथवा सत्ता में भागीदार होने की उम्मीद हो। भाजपा के पास ये दोनों चीजें हैं।

सवाल है कि क्या कांग्रेस के पास भी इन जातीय समूह के नेताओं को देने के लिए कुछ ‘खास’ है, सिवाय ‘27 साल उत्तर प्रदेश बेहाल’ के नारे के। खासकर उस उत्तर प्रदेश में जहां नब्बे के दशक से ‘जातीय समूहों’ और ‘जातीय प्रतीकों’ की राजनीति पूरे दमखम के साथ काबिज है। कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ‘पीके’ को यह समझना होगा कि ‘खाट पंचायत’ और ‘खाप पंचायत’ का चलन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में उतना नहीं है, जितना पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में है। पंचायत खत्म होते ही‘खाट’ लूट ले जाने की घटना से भी साबित होता है कि यह ‘नया रिवाज’ प्रचलन में नहीं रहा है। क्या ‘पीके’ खाट पंचायत को राजनीतिक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं? इस ‘खाट’ की एक और खूबी है। एक सिरा बुना जाता है तो दूसरा अपने आप बुन जाता है। उधेड़ने पर भी इसका यही हश्र होता है। एक सिरा उधेड़ो तो दूसरा अपने आप उधड़ जाएगा। अब पीके और उनकी टीम को तय करना है कि ‘27 साल यूपी बेहाल’ की थीम के तहत कांग्रेस का कौन सिरा पहले बुनना और उधेड़ना चाहते हैं। इस टीम को यह भी समझने की जरूरत है कि सत्ता के दगे कारतूसों के सहारे सत्ता समर नहीं जीते जाते। कुछ देर के लिए धुआं और गुबार जरूर पैदा होगा, लेकिन उत्तर प्रदेश की सत्ता ‘जातीय समूहों’ को साध कर ही हासिल की जा सकती है। भाजपा, सपा और बसपा इस आजमाए फार्मूले पर ही चल रही हैं।

सत्ता की चाहत और विकास की ख्वाहिश हर आम और खास की जरूरत है। पर सत्ता से वंचित समूहों की राजनीति हर चुनाव में विकास के मुद्दे की चादर छेद कर ऊपर आ जाती है।सपा और बसपा का एक खास जातीय समूह पिछले कई चुनावों से उसके साथ रहा है। मुसलमान मतदाता भाजपा को छोड़कर यथा समय सपा, बसपा और कांग्रेस से जुड़ता रहा है। बसपा इस बार उत्तर प्रदेश में दलित-मुसलिम समीकरण साधने में लगी है। सपा को मुसलिम-यादव समीकरण के अलावा दूसरे जातीय समूहों पर भी भरोसा है। जाहिर है कि सत्ता के नजदीक रहे जातीय समूहों के इर्द-गिर्द ही निचले स्तर पर जातीय ध्रुवीकरण होगा। यह ध्रुवीकरण ही निर्णायक होगा कि सत्ता की बागडोर के मामले में किसे पुरस्कृत करना है और किसे दंडित करना है।