कश्मीर में शांति के मसले में एक अहम और संवेदनशील हिस्सा कश्मीरी पंडित भी हैं। कश्मीरी पंडितों पर राहुल पंडिता की एक किताब ऑवर मून हैज ब्लड क्लॉट्स आई है जिसमें पंडिता नें कश्मीरी पंडितों के दर्द को बखूबी बयां किया है। निशा शर्मा ने राहुल पंडिता से जानने की कोशिश की पंडिता कश्मीर और कश्मीर के मुद्दों को  कैसे देखते हैं?

कश्मीर जिस तरह दहल रहा है ऐसे में आप किसको इन हालात का जिम्मेदार मानते हैं?

कश्मीर में कोई भी सरकार क्यों ना रही हो किसी भी सरकार कश्मीर के मुद्दों को कैसे सुलझाना है इस बारे में कोई भी पॉलिसी नहीं रही है। जैसा कि कहा जाता है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग रहा है। लेकिन सच बात है कि कश्मीर के साथ सौतेला व्यवहार होता रहा है। दूसरे राज्यों की तुलना में कश्मीर के साथ फर्क किया गया है यहां कि शिक्षा के स्तर को देख लीजिए। जैसा कि आपने कहा किसे जिम्मेदार मानते हैं तो कुछ कसूर कश्मीरियों का भी है। कुछ कसूर उन हुकमरानों का है जो राज्य में पिछले तीस सालों से शांति नहीं लौटा पाए सिर्फ वादे ही करते रहे। कुछ कसूर उन लोगों का है जो नहीं चाहते कि यहां शांति रहे जिनके व्यापारिक हित राज्य की अशांति में ही हैं।

आपने कश्मीर को काफी करीब से देखा है क्या लगता है कि जिस तरह कि हिंसा पहले थी उसी तरहं की अब है या हिंसा और कट्टरता का रूप बदला है?

मैं आतंकवाद के 1990 से पहले की बात कर रहा हूं, जब बगावत शुरु हुई। अलगाववादीयों के साथ कई लोग जुड़े जिसमें छोटे- छोटे अपराधी जुड़े जिसके बाद हिंसा शुरू हुई। उसमें कई लोग मारे गए, उसमें कश्मीरी पंडितों को भी मारा गया। लेकिन इस दौर में हिंसा करने वाले उतने कट्टर नहीं थे जितनी की यह नई पीढ़ी है। दरअसल हुआ यह है कि ये जो पीढ़ी है नब्बे के दशक के आस-पास पैदा हुई पीढ़ी है जिसने जन्म के बाद से ही कश्मीर में कर्फ्यू,हिंसा और लोगों की मौत जैसी ही वारदातें देखी हैं। इस पीढ़ी पर उसी का असर पड़ा है। अब जेहाद का भूमंडलीकरण हो चुका है, यह पीढ़ी उनसे भी जुड़ी है इसे सब पता है कि कौन सा आतंकवादी संगठन क्या कर रहा है। इससे भी और खतरनाक चीज़े जुड़ी हैं। सय्यद अली शाह गिलानी जो एक हार्डलाइनर हैं, यह पीढ़ी उससे भी खतरनाक है। बुरहान वानी का कहना था कि वह कश्मीर में इस्लामिक ख़िलाफ़त लाना चाहते हैं। लेकिन हमारी पुलिस, इंटेलिजेंस है कि इस बात पर गौर ही नहीं करती कि लोग किसे सपोर्ट कर रहे हैं।

बुरहान वानी के समर्थन में उतरे लोगों का हूजूम, उसकी चे ग्वेरा से तुलना कश्मीर की किस हालत को बयां करता है।

यह बहुत बड़ी बेवकूफ़ी है, चे ग्वेरा एक मार्क्सवादी क्रांतिकारी थे, ना कि आतंकवादी। बुरहान वानी एक आतंकवादी था जिसने कितने बेकसूर लोगों की जान ली। चे ग्वोरा ने किसी निर्दोष को घसीटकर गोली नहीं मारी, कोई कत्लेआम नहीं मचाया लेकिन बुरहान वानी ने ऐसा किया । एक ऐसे लड़के ने इस्लाम के नाम पर बंदूक उठाई और जो एक ऐसे आतंकवादी संगठन का सदस्य बना जिसने अल्पसंख्यक लोगों को बसों से निकाल निकालकर मौत के घाट उतारा । जिस हजूम कि आप बात कर रही हैं उस हजूम में एक तबका वह था जो गुस्से में शामिल था जिसका मानना था कि भारत सरकार कश्मीरियों के लिए कुछ नहीं कर रही है। एक बड़ा तबका वह था जो भारत का हिस्सा नहीं होना चाहता। एक तबका वह था जो पाकिस्तान में बैठकर कश्मीर में रह रहे लोगों को गाइड कर रहा है जिसमें सय्यद अली गिलानी कहता है कि सेक्लुरिज़म नहीं चलेगा सिर्फ इस्लाम चलेगा। इस्लाम के नाम पर खून-खराबा मचाने वाला तबका था। जिनकी स्पष्ट मंशा है, कश्मीर को एक ​इस्लामी खिलाफत का हिस्सा बनाना।

कश्मीरी पंडितों की वापसी को आप कैसे देखते हैं?

कश्मीरी पंडितों का कश्मीर में वापिस जाना ना के बराबर है।देखिए सच बात यह है कि कोई भी सरकार यह नहीं चाहती कि कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की वापसी हो। बीजेपी ने इसी मुद्दे को भुनाकर खुद को उभारा है। 26 साल हो गए कश्मीरियों के पलायन को लेकिन किसी भी सरकार ने कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ नहीं किया। बुरहान वानी की मोत के बाद कश्मीरी पंडितों पर हमले हुए वह अपने कैंपों को छोड़कर भागे हैं। जहां हैजाब स्कूल यूनिफार्म का हिस्सा हो चुक हो, जहां कश्मीरी पंडित दर ब दर भटकने को मजबूर हों, जहां सांस लेना मुश्किल हो चुका हो। जहां ना आप कोई नाटक, सिनेमा देख सकते हों, जहां आप मंदिरों में जाने में असमर्थ हों वहां रहना मुनासिब नहीं लगता। इस तरहं कि जिन्दगी तो नहीं जी जा सकती ना। कश्मीरी पंडितों को कश्मीर के बाहर देखिए एक सौ फीसदी साक्षर कौम है। अपनी जमीं के लिए दर्द आता है लेकिन वह दर्द किस काम का जब जान ही ना रहे तो।

आफ्सफा को लेकर क्या कहना चाहेंगे?

आफ्सफा की कोई ज़रूरत नहीं है, यह उन राज्यों को जिसमें यह लगा है उनको भारत से अलग करता है। कश्मीर में जितनी भी हिंसा हुई है। 2010 का मसला ही ले लो कितने लोगों की जाने गईं। मानवाधिकार हनन हुआ। नार्थ इस्ट में ही देख लीजिए।

आपको क्या लगता है कि क्या ऐसा नहीं हुआ है कश्मीर मुद्दे और कश्मीरी पंडितों को लेकर जो होना चाहिए था और नहीं हुआ है?

1990 से 2003 तक 700 से ज्यादा कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई है। और उसमे कुछ ऐसे भी हैं जिन्होने स्वीकारा भी है लेकिन कुछ नहीं हुआ। कश्मीरी पंडितों को न्याय की कोई बात नहीं करता। 1984 दंगे की बात होती है,गुजरात दंगों की बात होती है, मुंबई आतंकवादी हमलों की बात होती है, उत्तर प्रदेश में हाशिमपुरा में हुई वारदातों की बात होती है लेकिन कोई कश्मीर की बात नहीं करता। कश्मीर मसले पर किसी भी दोषी को सजा देने की कोई बात नहीं करता । मोदी सरकार ने सेप्रेट टॉउनशिप की बात की लेकिन उस पर कुछ नहीं हुआ। बतौर पार्टी आप कह रहे हैं कि आपको सत्ता में आए हुए दो ही साल हुए हैं।अगर बीजेपी गंभीर होती तो 25 साल में उसने कश्मीर के लिए मसौदा तैयार किया होता कि सरकार में आएंगे तो यह करेंगे। लेकिन नहीं आप तो ऐसे कह रहे है कि अमिताभ बच्चन मुझे आज मिले हैं अब मैं सोचूंगा कि मुझे इनके साथ कौन सी फिल्म बनानी है। कुछ नहीं किया मौजूदा सरकार ने भी।

कोई शिया समुदाय, अहमदी समुदाय, जम्मू के लोगों, बौद्ध धर्म के लोगों, हिन्दु समुदाय(जो कि चार लाख से ज्यादा है) से पूछा है कि वह क्या चाहते हैं। ऐसा नहीं हुआ। यह लोग जो दिल्ली में, लंदन में बैठे हैं यह सब सिर्फ कश्मीर मसले पर अपनी रोटियां सेक रहे हैं। इन्हें ना कश्मीरियों से मतलब है ना कश्मीर के मुद्दों से। सय्यद अली शाह गिलानी की जिंदगी पर कश्मीर की हिंसा से कोई असर नहीं है। आम लोग मर रहे हैं।सब गरीब मर रहे हैं। कोई मजदूर का बेटा है तो कोई बस कंडक्टर का। इस जंग में अगर किसी का कुछ जा रहा है तो वह है गरीब।

आपको क्या लगता है कि कश्मीर की कितनी आबादी पाकिस्तान के साथ रहने को तैयार है ? आप उन लोगों को क्या कहना चाहेंगे?

एक तबका वहां ऐसा है जो भारत के साथ रहना चाहता है । वैसे तो यह एक कटु सत्य है कि कश्मीर के मसले का हल 5000 साल में भी नहीं निकलने वाला। फिर भी अगर ऐसा होता है तो एक बड़ा तबका है जो भारत से अलग रहना चाहता है। लेकिन उन लोगों से मैं यह कहना चाहता हूं कि भारत में कईं समस्याएं हैं, फिर भी भारत पाकिस्तान से बेहतर मुल्क है रहने के लिए, जिन्दगी बसर करने के लिए। बंटवारे के दौरान पाकिस्तान में में जो मुसलमान गए, वे वहां मुहाजिर कहलाते हैं। वहां शिया मुसलमानों के हालात बद्तर हैं। लेकिन इन सब चीजों के बाद भी अगर वह पाकिस्तान को चुनते हैं तो मैं कहूंगा की वह सकून नहीं चाहते, मुल्क नहीं चाहते बेड़ियां, गुलामी, प्रताड़ना चाहते हैं।

दूसरी ओर कश्मीर को आजादी कभी नसीब नहीं होगी, अगर ऐसा हुआ भी तो पाकिस्तान या चीन उस पर अगले ही क्षण अपना कब्जा जमा लेंगे। कश्मीर में आजादी साहित्य में , कविता में लिखने की चीज़ नहीं है

पाकिस्तान या कथित आजाद कश्मीर के बजाय भारत के साथ रहने में आम कश्मीरी के हक ज्यादा सुरक्षित रहेंगे। कश्मीर आज एक सोने का अंड़ा देने वाली मुर्गी की तरह हैं जिसे कोई राजनीतिक पार्टी हाथ से जाने देना नहीं चाहती।

आपको लगता है कि कश्मीरी पंडितों की लड़ाई में उनके साथ देश की कोई पार्टी है जो निस्वार्थभाव से उनके हक के लिए खड़ी है या हो सकती है।

कोई पार्टी नहीं है। सब पार्टियों की वोट बैंक पर नजर है। हालांकि कश्मीरी पंडितों का समुदाय बहुत छोटा सा है जो किसी भी तरह किसी भी पार्टी को चुनावी जीत नहीं दिला सकता।