गगा उर्फ गुनवंत कडिया गुजरात में कुख्यात गोधरा (2002 से कुख्यात) जिले से 40 किलोमीटर उत्तर स्थित लुणावाडा कस्बे के कडियावाडा नामक मुहल्ले का रहिवासी है। उत्तर भारत में जिसे राजगीर और बोलचाल की भाषा में ‘मिस्त्री’ कहते हैं- र्इंट-गारे की जोड़ाई से घर-बार बनाने का काम करने वाले, उसी को महाराष्ट्र व गुजरात में कडिया कहते हैं और जोड़ाई करने के इस काम को ‘कडिया-काम’ कहा जाता है, जो हमारे यहां ‘मिस्तिराना’ है।
मैंने आज से लगभग 40 साल पहले उसे पहली बार तब देखा था, जब शादी के बाद पत्नी के साथ उनके पैतृक घर गया। उनके तीन मंजिल व एक भुइंधरा वाली बड़ी कोठी का ताला गगा की मां, गुजराती संबोधन में ‘ताराबेन’ ने खोला था। तब उसी गुजराती संबोधन में मिला ‘गगा भाई’ उम्र में मुझसे 4-5 साल बड़ा और गबरू जवान था। पता चला था कि वह कोठी और पत्नी के तीन चाचाओं की वैसी ही तीन और कोठियां बनाने वालों में प्रमुख थे गगा के पिता मुणजे भाई कडिया…। काम के दौरान मुणजे भाई की मेहनत और हुनर देखकर पत्नी के पिता स्व. चिमण लाल भट्ट ने उनके सामने मुंबई शहर के अपने बड़े कारोबार में अच्छा काम दिलाने का प्रस्ताव रखा, तो मुणजे भाई ने अपने छोटे भाई को भेज दिया, जिसका परिवार आज भी मुंबई में सुखी है। ऐसा ही प्रस्ताव इस घर से गगा को भी मिला और उसने भी अपने छोटे भाई को भेज दिया, जो अब बरोडा में समृद्ध जीवन बिता रहा है…। और आज गगा के अकेले बेटे (बेटी की शादी कर चुके) को दुबई जाने का मौका है, तो वह भी बाप-दादा की परिपाटी निभाते हुए लुणावडा में ही कडियाकाम में मरने-खपने को तैयार है…, पर रोजही पर नहीं, ठेका कर लेता है काम का। और अब तो उसे करने भर का काम भी मिल जाता है। खैर,
तब से याने चार दशकों से हर दो-चार साल बाद आते-जाते मिलता तो रहा ही गगा से, बनारस का घर खरीदने पर उसके परिष्कार व रंग-रोगन का काम करने भी लगभग महीने भर के लिए गगा भाई ही आए थे। और तब बहुत-बहुत बार पूछते हुए सचमुच ही ‘गर में उंगली डालने’ पर बेहद दबी जुबान में ‘विश्वनाथ-दर्शन’ की मासूम-सी इच्छा का पता लगा सके थे हम, जिसका अकूत बखान इतना कि पूरा लुणावडा में गूंजा…। और जब अभी मार्च के दूसरे सप्ताह में उसी घर की देखभाल के लिए अकेले ही लुणावडा पहुंचा, तो ताला खोलते हुए जो गगा भाई मिला, वह 70 साल का पका हुआ आदमी हो चुका है। पर जिसकी सिधाई और सरलता आज भी वैसी ही है, जैसा ‘गगा भाई’ वाला संबोधन। आज भी लुणावडा से अच्छी जगह गगा के लिए कहीं नहीं है। अपने परिवार व जमात के अलावा न देश-दुनिया का कुछ पता है, न पता करने की जरूरत है- ‘साहेब, वोट मोदी को देता हूं -भाजपा को, पन दर रोज काम मणी जावे, एना थी घर चाले, तो बीजू शुँ जोइए…?’ (पर रोज काम मिल जाए, जिससे घर चलता रहे, इसके अलावा क्या चाहिए?) मोदी तो गगा को सिलिंडर भी न दे सके, क्योंकि गगा ने पहले ही ले लिया था। पत्नी सुकन्या अवश्य किसी भक्ति संप्रदाय के सत्संग में जाती है और अच्छे भजन भी गाती है। सुर-कंठ ही अच्छा है और एक बार के कहने भर से गा-गाके सुना देती है। इस बार जो सुना उसके बोल हैं- ‘छेडि गयो, छेडि गयो नंद नो किसोर… ओ राधा तने छेडि गयो नंद नो किसोर…’ और कहां-कहां कैसे-कैसे छेड़ा, के वर्णन से भरा पूरा भजन शृंगारिक भी…।
इस बार सप्ताह भर के पूरे प्रवास में गगा द्वारा पत्नी सुकन्या बेन के हाथों बनवाकर लाया हुआ तरह-तरह का खास गुजराती खाना खाकर ही रहा। इसी में एक दोपहर उत्सुकतावश गगा भाई के घर भी खाने गया, कडियावाडा में, जहां (और ऐसे ही मोची-दर्जी…आदि वाडा में) नागर ब्राह्मणों के कुछेक पुश्तैनी घर भी हैं, पर हमारे ‘नागरवाडा’ (नागर ब्राह्मणों के मुहल्ले) से किसी का वहां जाके बैठना आज भी ‘अजूबा’ नहीं, पर लक्षित तो होता ही है। ऐसे में खाने जाना नागरों व संभ्रांत वर्गों को चाहे जैसा लगा हो…, लेकिन गुणवंत और उसकी गुणवती पत्नी सुकन्या की खुशी देखकर मन भर आया। अपनी औकात के ऊपर विविध व्यंजन व कितना खिला दें, के उनके उछाह से सराबोर हो उठा। उन्हें पता न चला, पर मैं तो शर्मसार हुआ ही कि आने का एक मकसद ‘हाशिये…’ के लिए ब्योरा जुटाना भी रहा।
अपनी जानकारी की पुष्टि की कि बिना किसी नशे या लत के पूरी शराफत व मेहनत से कडिया काम करते गगा की दो पीढ़ियां बीत गर्इं। पूर्वजों से मिले कुछ खेत थे पहले, पर पिता के जमाने में ही पटेल (साधन-शक्ति संपन्न जाति) लोगों ने हड़प लिए। एक रुपया रोज की दर से गगा के पिता ने काम शुरू किया था और गगा ने 5 रुपये से, किंतु महज 8-9 फिट चौड़ी और बमुश्किल 15-18 फिट लंबी पुश्तैनी जगह पर र्इंट-सीमेंट को कौन कहे, छत के नाम पर कवला (अपने यहां का थपुआ-नरिया) तक नसीब न हुआ। जिस दिन मैं गया, तीसरी पीढ़ी याने गगा का बेटा जिगर अपने चचेरे भाई मोंटू को लेकर पक्का घर (शायद कर्ज-कुआम लेकर) इसलिए बनवा रहा था कि घर के बिना आज कोई आदमी उससे अपनी लड़की ब्याहने को तैयार नहीं। पढ़ाई में हाईस्कूल भी न निकाल सका- अंग्रेजी बीच में आ गई…। बावजूद इन हालात के, आज के जमाने में एकदम अजूबा की तरह जिगर ने अपने पिता गगा को जोर देकर काम से आराम दे दिया है- याने रिटायर कर दिया है। गगा के पूरे जीवन की शराफत और किल्लत मैंने देखी है। उसके पिता की ऐसी ही लगन व कर्मठता सुनी है। इस कड़ी में अब जिगर की इस लायकियत को मिलाकर देखता हूं तो उस शेर पर यकीन होने लगता है-
‘कहीं एक मासूम-सी रहगुजर पर, फटेहाल मुफलिस वफादार निकले’…।