अमलेंदु भूषण खां
गुजरात के 12 साल के पार्थ का इलाज करवाने के लिए पिता ने पूरा पैसा लगा दिया। पत्नी के गहने तक बिक गए, लेकिन बेटा ठीक नहीं हुआ। पार्थ को ब्रेन की जानलेवा बीमारी है। पिता ने अपनी लाचारी और बेबसी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर मदद की गुहार लगाई। मोदी की पहल पर उसे एम्स लाया गया और मुफ्त में इलाज हो रहा है। एम्स की न्यूरोलॉजी डिपार्टमेंट की डॉ. शेफाली गुलाटी का कहना है कि ‘यह जानलेवा बीमारी है। इसमें शरीर के अंग धीरे-धीरे काम करना बंद कर देते हैं। हम मरीज को हर मुमकिन इलाज दे रहे हैं। सभी जरूरी टेस्ट हो चुके हैं। अभी भी उसके बचने की उम्मीद काफी कम है। उसकी हालत बहुत नाजुक है।

इसी तरह झारखंड के गढ़वा जिले के रंका शहर के सोनार मोहल्ला निवासी महेश सोनी के 30 वर्षीय पुत्र शैलेश को अर्थराइटिस, सोरयासिस, क्रॉनिक, रिटायरस व पीजीस नामक बीमारी है। आठ साल से शैलेश बेड पर है। उसके माता-पिता इलाज कराने में अपना घर-बार व सारी संपत्ति खो कर अब लगभग कंगाल हो चुके हैं। मध्यमवर्गीय परिवार के महेश सोनी की पूरी चल अचल संपत्ति बेटे के इलाज में बिक चुकी है। यहां तक कि जिस घर में रहते हैं। उसे भी इन्होंने पांच लाख रुपये में गिरवी रख दिया है। इसके अलावा कई लोगों से छह लाख रुपये ब्याज में उधार लिया है सो अलग। वृद्ध महेश सोनी व उनकी पत्नी फूलमती देवी बताती हैं कि अब बेटे का दर्द देखा नहीं जाता। शैलेश का इलाज एम्स में करवाया जा रहा है।

एम्स के डॉ. उमा कुमार का कहना है कि यह अनोखी बीमारी है और करोड़ों लोगों में एक व्यक्ति को यह बीमारी होती है। इसका इलाज मात्र इंजेक्शन है जो हर माह लगातार दिलाना होता है। एक इंजेक्शन की कीमत एक लाख 20 हजार रुपये है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब डॉक्टरों के लिए जेनेरिक दवा लिखने की अनिवार्यता की घोषणा की तो करोड़ों मरीजों को राहत मिलने की आशा दिखी, लेकिन उनकी इस घोषणा को विफल करने के लिए न सिर्फ दवा कंपनियां सक्रिय हो गर्इं बल्कि डॉक्टर व दवा विक्रेता भी अपनी अपनी बिसात बिछाने में जुट गए हैं।

आपको याद होगा कि कुछ समय पहले आमिर खान के टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ से महंगी दवाओं के विकल्प के रूप में जेनेरिक दवा सुर्खियों में आई। महंगी दवाओं के विकल्प के रूप जेनेरिक दवाओं ने कई सवाल खड़े किए हैं।इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल की मानें तो इलाज के खर्च का 70 फीसदी हिस्सा दवाओं की खरीद पर चला जाता है। इस वजह से गरीब मरीजों को बीच में ही इलाज छोड़ना पड़ता है।

दरअसल, दवाओं का कारोबार तीन तरीके से किया जाता है। एक कंपनी द्वारा बनाई जाने वाली किसी दवा का ब्रांड नाम देना आवश्यक होता है। हम पैरासिटामॉल टैबलेट को उदाहरण के तौर लें तो कोई भी कंपनी टैबलेट बनाकर बाजार में बेचने के लिए उतार देती है। ये दवाएं उसी ब्रांड नाम पर बिकती हैं। एक टैबलेट बनाने की लागत 10 पैसे है तो उस ब्रांड नाम का एमआर के माध्यम से डॉक्टरों को बताना और प्रचार करना, कुल मिलाकर दवा की लागत 80 पैसे पड़ती है। जिसका एमआरपी एक रुपया रखा जाता है। ऐसी दवाओं को बाजार में इथिकल कहा जाता है।

दूसरा, कारोबार ऐसे किया जाता है कि कंपनी, उसी फार्मूले के तहत उसी टैबलेट को अलग ब्रांड नेम से बनाती है, जिसकी लागत 10 पैसे, मुनाफा 10 पैसे और एमआरपी एक रुपया ही रखा जाता है। इन दवाओं का प्रचार नहीं किया जाता। वे सीधे बाजार में उतार दी जाती हैं।
तीसरा, बाजार में प्रोपेगंडा दवाएं भी उपलब्ध होती हैं। यह कारोबार निजी स्तर पर होता है। इसमें अधिकतर इस फील्ड से जुड़े लोग और जानकार शामिल रहते हैं। वे कंपनी से सीधे संपर्क कर बड़ी मात्रा में दवाइयों का आॅर्डर देकर उन्हें बनवाते हैं। यह कार्य उसके अपने कर्मचारियों द्वारा किया जाता है। इसमें भारी मुनाफा होता है। क्योंकि थोक भाव में आॅर्डर देकर बनवाई जाने वाली टैबलेट, सिरप, टॉनिक, इंजेक्टेबल आदि दवाइयों की लागत बहुत कम होती है और मार्जिन अधिक। इन दवाओं की बिक्री के लिए सीधे डॉक्टर से संपर्क किया जाता है जो मरीज को खुली दवा बांधकर दे देता है। जबकि अन्य दवाओं को मेडिकल स्टोर्स से खरीदने के लिए पर्ची लिखकर देता है। दवाओं का काला कारोबार देश में आजादी के बाद से ही जारी है, लेकिन किसी को गरीब मरीजों का ध्यान नहीं आया। मेडिकल काउंसिल की लचर व्यवस्था और डॉक्टरों को पैसे कमाने की भूख ने इस कारोबार को चार चांद लगा दिया। एक अहम तथ्य यह है कि जहां पेटेंट ब्रांडेड दवाओं की कीमत कंपनियां खुद तय करती हैं, वहीं जेनेरिक दवाओं की कीमत को निर्धारित करने में सरकार की भूमिका होती है।

मोदी सरकार ने 700 जरूरी दवाओं के दाम तय किए हैं और हृदय रोगियों के लिए बेहद जरूरी स्टेंट की कीमत भी घटाई है। जो स्टेंट एक लाख रुपये से ज्यादा में रोगियों को उपलब्ध कराए जाते थे वही स्टेंट अब मात्र 8,000 रुपये में मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने डॉक्टरों को नसीहत देते हुए यह भी कहा कि अभी कई डॉक्टर पर्चा लिखते हैं तो इस तरीके से लिख देते हैं कि मरीजों को महंगी दुकान पर जाना पड़ता है। पर जल्द ही वह ऐसा कानून बनाएंगे और व्यवस्था करेंगे कि डॉक्टरों के लिए सस्ती जेनेरिक दवाएं लिखना जरूरी होगा। उन्होंने लोगों से इस भ्रम को भी दूर करने का आह्वान किया कि सस्ती जेनेरिक दवाएं उतनी कारगर नहीं होतीं जितनी कि महंगी दवाएं। सरकार ऐसी अफवाहों के जरिये गरीब और मध्यमवर्ग को लुटने नहीं देगी।

क्या होती है जेनेरिक दवा
जेनेरिक दवाएं बिना किसी पेटेंट के बनाई और सरकुलेट की जाती हैं। हां, जेनेरिक दवा के फॉर्मुलेशन पर पेटेंट हो सकता है लेकिन उसके मैटिरियल पर पेटेंट नहीं किया जा सकता। इंटरनेशनल स्टैंडर्ड से बनी जेनेरिक दवाइयों की क्वालिटी ब्रांडेड दवाओं से कम नहीं होती, न ही इनका असर कुछ कम होता है। जेनेरिक दवाओं की डोज, उनके साइड-इफेक्ट्स सभी कुछ ब्रांडेड दवाओं जैसे ही होते हैं। जैसे इरेक्टाइल डिस्फंक्शन के लिए वियाग्रा बहुत पॉपुलर है लेकिन इसकी जेनेरिक दवा सिल्डेन्फिल नाम से मौजूद है। लेकिन लोग वियाग्रा लेना ही पसंद करते हैं क्योंकि ये बहुत पॉपुलर ब्रांड हो चुका है। इसकी खूब पब्लिसिटी इंटरनेशनल लेवल पर की गई है। वहीं जेनेरिक दवाइयों के प्रचार के लिए कंपनियां पब्लिसिटी नहीं करती।

ठीक इसी तरह से ब्लड कैंसर के लिए ‘ग्लाईकेव’ ब्राण्ड की दवा की कीमत महीने भर में एक लाख 14 हजार 400 रुपये होगी, जबकि दूसरे ब्रांड की ‘वीनेट’ दवा का महीने भर का खर्च 11 हजार 400 से भी कम आएगा। जेनेरिक दवाओं के बारे में संजीवन अस्पताल के हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. प्रेम अग्रवाल का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जेनेरिक दवाओं को प्रेस्क्राइब करने वाली बात बहुत अच्छी है लेकिन डॉक्टर्स दवा लिख भी देते हैं तो मेडिकल स्टोर्स किसी भी कंपनी की दवा ये कह कर मरीज को दे देते हैं कि उनके पास लिखी हुई मेडिसिन नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि मेडिकल स्टोर्स को जिस दवा कंपनी से अधिक मार्जिन मिलता है वे उसी कंपनी की दवा मरीज को देते हैं। ऐसे में कुछ ब्रांडों को ही जेनेरिक मेडिसिन बनाने की परमिशन मिलनी चाहिए। कई बार डॉक्टर जो दवा लिखते हैं और मेडिकल स्टोर से जो दवा मरीज को मिलती है उसमें उतनी मात्रा में वैसी कंपोजिशन और साल्ट नहीं होता जितना कहा गया होता है। ऐसे में मरीज को पूरा फायदा नहीं मिलता। अगर सचमुच जेनेरिक दवा अनिवार्य हो जाए तो इससे मरीज को बजट और हेल्थ दोनों तरह से फायदा होगा।

मसलन, लीवर और किडनी के कैंसर के लिए एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘सोराफेनिब टोसायलेट’ नामक दवा बनाती है जिसकी एक महीने की डोज की कीमत दो लाख 80 हजार 428 रुपये है। इसी दवा की जेनेरिक मेडिसिन का लाइसेंस हैदराबाद की एक कंपनी को मिला। उस कंपनी से तैयार की गई दवा की डोज की कीमत 8,800 रुपये है। ऐसा ही एक दूसरा उदाहरण है ‘निमोस्लाइड’ नामक मेडिसन का। आज बाजार में निमोलक्स, निमोलिड, लुसेमिन, निमोटास जैसी करीब 300 जेनेरिक दवाएं उपलब्ध हैं। ऐसी ही कई ब्रांडेड दवाएं हैं जिनकी जेनेरिक दवाएं बाजार में सस्ती कीमतों में उपलब्ध हैं।

लेकिन आल इंडिया केमिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष कैलाश गुप्ता का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी की पहल बहुत अच्छी है। इसका सबसे बड़ा स्टेक होल्डर डॉक्टर हैं। जब तक डॉक्टर पर अंकुश नहीं लगेगा तब तक यह कार्यक्रम सफल नहीं हो सकेगा। इससे भी जरूरी बात यह है कि सरकार पहले सभी सरकारी अस्पतालों और अपने स्टोरों में जेनेरिक दवाइयां खरीदे और डॉक्टर जेनेरिक दवाइयां लिखे। केमिस्ट तो सिर्फ दवाइयां बेचता है। मरीज जो दवाइयां मांगता है उसे केमिस्ट उपलब्ध करवाता है। यह कह देना कि मुनाफे के लिए केमिस्ट मरीज को महंगी दवा देता है, उचित नहीं है।

दवा कंपनी, डॉक्टरों व केमिस्टों के गठजोड़ से जेनेरिक दवा आम लोगों के बीच में लोकप्रिय नहीं हो पाई। दवा कंपनियां मुनाफे और डॉक्टर कमीशन के लालच में ब्रांडेड दवा के मकड़जाल में उलझे हुए हैं। इसका सीधा नुकसान आम मरीज को हो रहा है। सस्ता विकल्प होने के बावजूद उसे महंगी दवा खरीदनी पड़ रही है। आलम यह है कि दुनिया के 130 देशों में भारत सस्ती जेनेरिक दवाएं उपलब्ध कराता है जबकि भारत के अपने गरीब मरीजों को 5-6 रुपये की दवाई 300 रुपये में मिल रही है। पूरे अमेरिका में 2000 ब्रांड हैं जबकि भारत में एक लाख से अधिक ब्रांड हैं। अमेरिका की तरह भारत में भी इसको नियंत्रित करने की जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, डॉक्टर अगर मरीजों को जेनेरिक दवाएं प्रेस्क्राइब करें तो विकसित देशों में स्वास्थ्य खर्च 70 फीसदी और विकासशील देशों में और भी अधिक कम हो सकता है। हमारे देश में जेनेरिक दवाओं का सबसे ज्यादा उत्पादन होता है और हर साल करीब 45 हजार करोड़ रुपये की जेनेरिक दवाएं दूसरे देशों में भेजी जाती हैं। जाहिर है, अपने लोगों के लिए भी सस्ती दवाएं बन सकती हैं।

वैसे भी हमारे जैसे विकासशील देशों को इन दवाओं की जरूरत ज्यादा है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि महंगे इलाज के चक्कर में गंभीर बीमारी के शिकार 32 फीसदी लोग हर साल गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं। हालत यह है कि सरकारी अस्पतालों में भी सौ रुपये के इलाज में सरकार सिर्फ 22 रुपये खर्च कर रही है, 78 रुपये मरीजों को खुद खर्च करना पड़ता है। ऐसे में जेनेरिक दवाएं और भी जरूरी हो जाती हैं। बस जरूरत है लोगों को जागरूक करने की। हालांकि गरीबी और अशिक्षा अभी भी भारत की एक बड़ी समस्या है, पर स्वस्थ भारत की परिकल्पना को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह पहल सराहनीय मानी जा रही है।

अज्ञानता से पैदा होता है अविश्वास
आमतौर पर डॉक्टर लोग महंगी दवाएं लिखते हैं जिससे ब्रांडेड दवा कंपनियां खूब मुनाफा कमाती हैं। दरअसल दवा बनाने वाली कंपनियां अपने ब्रांड के नाम से कई गुना महंगी दवाएं बेचती हैं। केवल लोगों को उन दवाओं पर भरोसा नहीं होता और इन जेनेरिक दवाओं के मेडिकल स्टोर्स के बारे में भी लोगों को पूरी जानकारी नहीं होती है। कई बार तो ब्रांडेड दवाओं की कीमत इतनी ज्यादा होती है कि गरीब मरीज इसे खरीद भी नहीं पाते हैं। हालांकि केंद्र सरकार जेनेरिक औषधियां उपलब्ध कराने के लिए जन औषधि केंद्र चलाती है। वर्ष 2008 में शुरू हुई योजना के तहत अधिकांश बड़े शहरों में ऐसे जन औषधालय के नाम से जेनेरिक मेडिकल स्टोर खोलने की योजना है। देश भर में 250 जन औषधालय खुलने थे, लेकिन अभी तक इस लक्ष्य को पूरा नहीं किया जा सका है। जैसा कि किसी भी सरकारी पहल का हश्र होता है, इन केंद्रों पर अमूमन पर्याप्त दवाइयां उपलब्ध होती ही नहीं हैं। साथ ही इनका ठीक से प्रचार-प्रसार नहीं होता जिसके कारण इनका लाभ आम जनता को नहीं मिल पाता।

गरीबों को सस्ती चिकित्सा उपलब्ध कराने के लिए इस साल के अंत तक 3000 प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र खोले जाएंगे। अभी एक लाख करोड़ का दवा व्यापार होता है जिसमें लगभग 75 हजार करोड़ का हिस्सा ब्रांडेड कंपनियों की उन दवाओं का है जिसके बदले कम कीमत वाली जेनेरिक दवाएं उपलब्ध हैं। अभी जेनेरिक दवाओं का व्यापार महज आठ हजार करोड़ रुपये का है। जेनेरिक दवाओं की कीमत अमूमन ब्रांडेड दवाओं की तुलना में एक तिहाई होती है।