न्यायपालिका की संरक्षा और लोकतंत्र को बचाने के लिए चार न्यायाधीशों की चिंता के बाद राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाओं को देखते हुए न्यायपालिका में कार्यपालिका के हस्तक्षेप और राजनीतिक व्यक्ति की न्यायपालिका में नियुक्ति तथा न्यायपालिका के सदस्य का त्याग पत्र देकर या सेवानिवृत्त होने के बाद राजनीति में आने की भी घटनाओं का जिक्र जरूरी लगता है।

जस्टिस खन्ना की अनदेखी
शीर्ष अदालत में हुई इस अभूतपूर्व घटना ने जनवरी, 1977 की एक घटना बरबस याद दिला दी जब उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश एच आर खन्ना ने वरिष्ठता को नजरअंदाज किए जाने पर पद से इस्तीफा दे दिया था।
यह प्रकरण आपातकाल के दौरान नागरिकों को मौलिक अधिकारों से वंचित करने से संवंधित है। मौलिक अधिकारों से वंचित करने का मुद्दा जब एक ‘बंदीप्रत्यक्षीकरण’ याचिका के रूप में उच्चतम न्यायालय पहुंचा तो पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इसके खिलाफ फैसला दिया और आपातकाल के दौरान नजरबंद करने का अनियंत्रित अधिकार कार्यपालिका को दे दिया।
फैसला सुनाने वाली संविधान पीठ के सदस्यों में न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना भी शामिल थे। बहुमत के निर्णय से इतर अपने फैसले में उन्होंने कहा कि देश का संविधान और कानून नागरिकों की स्वतंत्रता और जीवन को पूरी तरह कार्यपालिका की दया पर रहने का अधिकार नहीं देता है।

न्यायमूर्ति खन्ना की यह व्यवस्था ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की आंखों में किरकिरी बन गई थी और जनवरी 1977 में न्यायमूर्ति खन्ना की वरीयता को दरकिनार करते हुए न्यायमूर्ति एम एच बेग को देश का नया प्रधान न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया था। इस तरह वरीयता नजरअंदाज किए जाने पर न्यायमूर्ति खन्ना ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
ऐसे भी कई दृष्टांत हैं जिनमें राजनीतिक व्यक्ति अचानक ही न्यायपालिका का सदस्य बन गया और न्यायपालिका के सदस्य पद का त्याग कर या फिर सेवानिवृत्ति के बाद राजनीति में आ पहुंचा।
बहरुल इस्लाम : सबसे पहली घटना असम के बहरुल इस्लाम की है। भारत के इतिहास में वह पहले राजनीतिक व्यक्ति थे जो संसद की सदस्यता से त्याग पत्र देकर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने थे। फिर वह उच्चतम न्यायालय के भी न्यायाधीश बने और सेवानिवृत्त होने से करीब डेढ़ महीने पहले ही उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए न्यायाधीश पद से इस्तीफा दे दिया था।
असम के प्रमुख राजनीतिक व्यक्ति बहरुल इस्लाम 1962 में राज्यसभा में कांग्रेस के सदस्य थे। उन्होंने राज्यसभा के सदस्य के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के बीच में ही त्यागपत्र दे दिया। उन्हें 1972 में असम और नगालैंड उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाया गया। बाद में वह जुलाई, 1979 में गौहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी बने। वह एक मार्च 1980 को सेवानिवृत्त हुए और इसके बाद चार दिसंबर, 1980 को उन्हें उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाया गया था लेकिन यहां भी कार्यकाल पूरा होने से पहले ही उन्होंने जनवरी, 1983 में त्यागपत्र दे दिया था।
जस्टिस रंगनाथ मिश्र : न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र को भी इसी कतार में रखा जा सकता है। वह 25 सितंबर, 1990 से 24 नवंबर, 1991 तक देश के प्रधान न्यायाधीश रहे। सेवानिवृत्ति के बाद वह राष्टÑीय मानवाधिकार आयोग के प्रथम अध्यक्ष नियुक्त किए गए लेकिन यहां से अवकाशग्रहण करने के बाद उन्हें 1998 में राज्यसभा का सदस्य नामित किया गया था।
विजय बहुगुणा : उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। विजय बहुगुणा को पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया और फिर वह बंबई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने। लेकिन अचानक ही उन्होंने 15 फरवरी, 1995 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। न्यायाधीश पद से इस्तीफा देने के बाद विजय बहुगुणा कांग्रेस में शामिल हो गए और 2007 से 2012 तक लोकसभा में कांग्रेस के सदस्य बने। फिर 13 मार्च 2012 से 31 जनवरी 2014 तक वह उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने। इस समय वह भाजपा में हैं।
जस्टिस पी सदाशिवम : इसी तरह 19 जुलाई, 2013 से 26 अप्रैल 2014 तक देश के 40वें प्रधान न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति पी सदाशिवम का मामला तो और भी रोचक है। सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें केरल का राज्यपाल बना दिया गया। ऐसा पहली बार हुआ कि किसी पूर्व प्रधान न्यायाधीश को किसी राज्य का राज्यपाल बनाया गया हो।
जस्टिस फातिमा बीबी : हालांकि, इससे पहले, उच्चतम न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनने का गौरव प्राप्त करने वाली न्यायमूर्ति एम फातिमा बीबी को सेवानिवृत्ति के बाद 25 जनवरी, 1997 को तमिलनाडु का राज्यपाल बनाया गया था। न्यायमूर्ति फातिमा बीबी ने राज्यपाल के रूप में राजीव गांधी हत्याकांड के दोषियों की मौत की सजा के मामले में दायर दया याचिकाएं खारिज की थीं।