संध्या द्विवेदी

साल 2012 की बात है। जेएनयू की प्रसिद्ध प्रेसिडेंशियल डिबेट चल रही थी। बारी आई मार्क्सवादी पार्टी के छात्र संगठन एसएफआई के उम्मीदवार वी. लेनिन कुमार की। लेनिन ने अपने भाषण के दौरान मार्क्सवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा देश के राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन किए जाने का पुरजोर विरोध किया। ऐसा करके लेनिन ने अनचाहे रूप में अपनी पार्टी लाइन से एक अलग लाइन ले ली थी। यह बात पार्टी महासचिव प्रकाश करात को नागवार गुजरी। पार्टी की स्टेट कमेटी ने त्वरित कार्रवाई करते हुए न सिर्फ लेनिन कुमार को बल्कि छात्र संघ के चारों पदों पर लड़ रहे अपने उम्मीदवारों को पार्टी से निकाल दिया। इतना ही नहीं जेएनयू की एसएफआई यूनिट भंग कर दी गई। लेनिन कुमार ने एसएफआई-जेएनयू नाम से एक नई पार्टी बनाकर चुनाव जीता। चुनाव जीतने के बाद लेनिन कुमार पार्टी के भीतर चल रहे अलोकतांत्रिक और तानाशाही रवैए के खिलाफ खुलकर बोला था।

आप चाहकर भी यहां एपोलिटिकल नहीं रह सकते। आप ईश्वर को मानते हैं, आप भारतीय संस्कृति के पक्षधर हैं तो आपको संघी या एबीवीपी का मान लिया जाता है

जेएनयू के भीतर अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक बहसों का दावा करने वाले संगठनों के बारे में जब कैम्पस के छात्र-छात्राओं से बात की गई तो कई ऐसी बातें सामने आर्इं जिनसे साफ होता है कि ये दावे ठोस नहीं हैं। कैम्पस के भीतर निकलकर आई बातें वी. लेनिन कुमार की बात की तसदीक करती हैं और सभी विचारधाराओं को समान रूप से चलते रहने देने के दावे के भ्रमजाल को तोड़ती हैं।

2 मार्च 2016 को मैं क्लास के बाद शाम को करीब पांच-साढ़े पांच बजे हास्टल पहुंची। मैंने देखा कि मेरे कपड़ों से भरे तीन चार बैग डारमेट्री से बाहर फेंके हुए पड़े हैं। मैं अंदर पहुंची तो मेरे बेड पर एक स्लिप चिपकी थी जिसमें लिखा था, रिजेक्ट एबीवीपी। मैंने फौरन अपने कुछ सीनियर्स को फोन किया और सिक्युरिटी आफिसर को एप्लीकेशन देकर पूरा मामला बताया। वार्डन को भी सूचित किया। जे.एन.यू के कोयना छात्रावास की रहने वाली शुचिता (बदला हुआ नाम) को ऐसा करके डराने की कोशिश की गई। शुचिता ने बताया कि 9 फरवरी के बाद से यहां लगातार उन लोगों को निशाना बनाने की कोशिश हो रही है जो लोग एबीवीपी के समर्थक हैं या फिर इनसे जुड़े लोगों से संपर्क रखते हैं। हालांकि इस हास्टल में यह पहला मामला है जबकि किसी लड़की का सामान यूं फेंका गया और रिजेक्ट एबीवीपी का स्टीकर लगाया गया। लेकिन बहसों के जरिए यह बताने की कोशिश हमेशा से होती रही है कि जेएनयू में रहना है तो एबीवीपी से दूर रहना है और लेफ्ट-लेफ्ट कहना है। मैं पिछले एक साल से यहां हूं। मुझे लगातार यही बताने की कोशिश की जा रही है कि मैं पिछड़ी सोच का शिकार हूं। होस्टल में बहसें होती हैं। बहसों का मुद्दा यही होता है कि देवी-देवता होते ही नहीं हैं। कहा जाता है कि हमारे भगवान का अस्तित्व है ही नहीं। राम का जन्म ही नहीं हुआ। सबसे ज्यादा आहत मैं तब हुई जब कहा गया कि देवी दुर्गा वेश्या हैं। महिषासुर भगवान है। मैंने पहले इन लोगों का विरोध भी किया। मगर बाद में तो मैंने विरोध भी करना छोड़ दिया।

jnu-story-2नौ फरवरी के बाद से राष्ट्रवाद को लेकर गरमा गरम बहसें हुर्इं। ये लोग कहते हैं कि भारत माता क्या होता है? देश देश होता है। कई लोगों ने मुझसे कहा कि कन्हैया या किसी और को राष्ट्रद्रोही कहना गलत है। हम लोकतंत्र में रहते हैं। राष्ट्रवादी होना न होना हमारा निजी मसला है। जरूरी नहीं इंडिया में रहने वाला हर कोई भारत मां की जय या फिर वंदेमातरम बोले। ‘लैक आॅफ लव टू इंडिया’ राष्ट्रद्रोह नहीं है। सबसे बड़ी बात है कि आप चाहकर भी यहां एपोलिटिकल नहीं रह सकते। आप ईश्वर को मानते हैं, आप भारतीय संस्कृति के पक्षधर हैं तो आपको संघी या एबीवीपी का मान लिया जाता है। मैं तो ये सारी बातें अपने घर से यहां लेकर आई थी। अपने परिवार से लेकर आई थी। मेरा परिवार तो कोई संघी या भाजपाई नहीं है। विचारधारा को बदलने और थोपने का जो तरीका ये लोग अपनाते हैं उसे समझ पाना आसान नहीं है। इसे समझने के लिए इन बहसों का हिस्सा बनना पड़ेगा तब जाकर आप समझेंगे कि आजादी के नाम पर, रुढ़िवादिता के नाम पर, प्रगतिशीलता के नाम पर क्या हो रहा है। फ्रीडम आफ स्पीच की लड़ाई तो लड़ते हैं ये लोग। मगर इनकी विचारधारा के विरोधी स्वर के लिए इनके बीच कोई जगह नहीं है।

शुचिता की तरह ही लैंग्वेज डिपार्टमेंट में पढ़ने वाले मोहित से जैसे ही पूछा कि इन दिनों जेएनयू में क्या चल रहा है तो उन्होंने कहा कि चल तो बहुत पहले से रहा है आपको अब पता चला है। यहां हर नए आने वाले लड़के को ये लोग अपने समूह में शामिल करने की पूरी तरकीब लगाते हैं। नए लड़के को महत्वपूर्ण महसूस कराया जाता है। पुराने छात्र तुम्हारे सबसे गहरे मित्र बनकर तुम्हारे साथ रात दिन रहते हैं। यह सब बहुत अच्छा भी लगता है। शुरुआत में आपको सिगरेट और दारू मुफ्त में मिलेगी। मगर इन सबके साथ आपकी सोच में बदलाव की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। सबसे पहले देश की सरकार के खिलाफ आपकेसामने तर्क दिए जाएंगे।

अल्पसंख्यकों और हाशिए पर पड़े लोगों के साथ हो रहे अन्याय के बारे में बताया जाएगा। हर नए युवा को बताया जाता है कि केवल डिग्रियां लेने से क्रांति नहीं होगी। ऐसे बताया जाता है कि देश के भीतर सरकार बिल्कुल दमनकारी हो गई है। चारों तरफ भूख, बेरोजगारी, गरीबी और शोषण है। मुझे भी शुरुआत में यह सब बातें बताई गर्इं। यह भी बड़े तरीके से बताया जाता है कि सेना जनता विरोधी है। सेना के बारे में यही बताया जाता है कि सेना बलात्कारी है। मेरा मन पहली बार सेना के लिए बलात्कारी शब्द सुनने के बाद ही खराब हुआ। मैंने इन लोगों से कहा भी कि सेना में हो सकता है कि कोई अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करे। बलात्कार भी कोई सैनिक कर सकता है। मगर बलात्कार का आरोप साबित होने के बाद वह सैनिक तो नहीं रहता न। संविधान और न्यायप्रक्रिया पर तो भरोसा करना ही होगा? मगर ये लोग तो संविधान और न्याय प्रक्रिया पर भी संदेह जताने लगते हैं। यकीन मानिए इनकी बहसों से ऐसा लगता है कि देश में सब खराब ही है।

भारत दुनिया का मानो सबसे दमनकारी और शोषण करने वाला देश हो। औरतों और लड़कियों के लिए तो नर्क से बदतर जगह हो। मगर इन सबसे छुटकारा कैसे मिलेगा इसका कोई उपाय नहीं है इनके पास। दूर दराज के इलाकों से आने वाला कोई लड़का तो इन सब लच्छेदार बातों में फंसकर बस क्रांति की मशाल लेकर निकल पड़ता है। कुछ सालों बाद आपके ऊपर क्रांतिकारी होने का ऐसा तमगा लगता है कि आप चाहकर भी इस घेरे से निकल नहीं पाएंगे। इनकी फ्रीडम आफ स्पीच कितनी पक्षपाती है, इसका एक उदाहरण देता हूं। मेरा एक बंगाली मित्र है। नवदुर्गा के समय वह तिलक लगाकर क्लास में पहुंच गया। प्रोफेसर साहब ने बाकायदा उसे रुमाल आॅफर करके तिलक पुंछवाया। इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि यह सब करके क्या तुम माइनॉरटीज को डराना चाहते हो! यह तो इनकी फ्रीडम आफ स्पीच है। आस्तिक व्यक्ति इनके लिए पिछड़ा हुआ होता है, जिसे ये लोग प्रगतिशील बनाने का प्रयास करते हैं। फिर भी अगर उस व्यक्ति को अपने रास्ते पर नहीं ला पते तो उसे भाजपाई, संघी करार देते हैं। इनकी विचारधारा के बीच में किसी और विचार के लिए कोई जगह ही नहीं है। बेहद मनोवैज्ञानिक तरीके से यहे लोग ब्रेन वाश करने का काम करते हैं। इस वैचारिक अतिक्रमण की प्रक्रिया को आप साबित भी नहीं कर पाएंगे। इसे समझने के लिए आपको इन्हें लगातार सुनना पड़ेगा। बहसों के भीतर कितना अतिवाद होता है यह तो जेएनयू की ही एक छात्रा शैल ने बताया। उसने कहा कि सेक्स, कंडोम के बिना तो इनकी कोई बात पूरी ही नहीं होती। मैं भी मानती हूं कि इन सब बातों पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।

मगर आपकी हर चर्चा में ही यह शामिल हो जाए ऐसा तो नहीं होना चाहिए। मुझे तो लगता है कि सबसे पहले इन्हें एक खास तरह की विचारधारा की गुलामी से आजादी पाने की कोशिश करनी चाहिए। पास खड़ी उसकी एक दोस्त ने कहा कि लड़कियों की आजादी और उनके खिलाफ हो रही हिंसा से मुक्त कराने की बात करते हैं, ये लोग। मगर कितनी लड़कियों का शोषण इनके ही समूह के भीतर आजादी के नाम पर होता है, अंदाजा भी नहीं लगा सकते। दोनों ही लड़कियों ने आखिर में इतना कहा कि छोड़िए वामपंथ दरअसल एक छलावा है, एक दुष्चक्र है, जिसमें कुछ लोग तो अपनी मर्जी से हैं जबकि कुछ लोग तो इसमें फंस गए हैं और निकलने का कोई रास्ता न पाकर आजादी के नारे लगा रहे हैं। छोड़िए हम तो यहां पढ़ने आए हैं क्रांति करने नहीं। चलते हैं। इतना कहकर दोनों लड़कियां अपने होस्टल की तरफ चली गर्इं।