प्रदीप सिंह/प्रधान संपादक (ओपिनियन पोस्ट)।

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता एक ऐसी क्षेत्रीय नेता थीं जिसकी दृष्टि राष्ट्रीय थी। इसलिए उनके निधन से केवल राज्य की ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति भी प्रभावित होगी। केंद्र में शासन करने वाली राष्ट्रीय पार्टियों को अक्सर ऐसे क्षेत्रीय नेताओं की जरूरत महसूस होती है जो अपने क्षेत्र के दायरे से निकलकर देश के व्यापक हित की सोच सकें। जयललिता देश की शायद अकेली मुख्यमंत्री थीं जिन्होंने 1991 में आर्थिक विकास के नेहरू मॉडल को छोड़कर बाजार की अर्थव्यवस्था अपनाने के पीवी नरसिंहराव सरकार के फैसले की न तो आलोचना की और न ही प्रशंसा। उस दौरान उन्होंने मिड डे मील की अपनी योजना को बंद करने की बजाय उसका विस्तार किया। यही नहीं उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत किया और उसमें कुछ और सामान जोड़े। उनके इस कदम से भी जयललिता के व्यक्तित्व का एक अहम पक्ष उजागर होता है कि उन्होंने लोगों की आलोचना प्रशंसा की परवाह किए बिना जो ठीक लगा, किया। यह अलग बात है कि उनका यह आचरण उन्हें अधिनायकवाद की ओर ले गया। जयललिता ने अपनी छवि एक कल्याणकारी अधिनायकवादी नेता की गढ़ी। अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों के कारण वह लोकप्रिय रहीं तो उनके अधिनायकवादी चरित्र ने पार्टी में किसी वैकल्पिक नेतृत्व को उभरने नहीं दिया। ये दोनों काम उन्होंने सायास किए। उनकी पार्टी में एक ही सिद्धांत था, नेता के प्रति एकनिष्ठ भक्ति का भाव। बराबरी या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे शब्द जयललिता के शब्दकोष में नहीं थे। उन्होंने जीवन में कड़े संघर्ष से ही सबकुछ हासिल किया। इस संघर्ष ने उन्हें आगे बढ़ने का जज्बा और जीवट दिया तो साथ ही प्रतिशोधी भी बनाया। अपने प्रति बुरा व्यवहार करने वालों को माफ करने में उनका यकीन नहीं था, वह फिर नेता हो, शंकराचार्य या सहेली। उनका व्यक्तिगत जीवन बचपन से ही एकाकी था। पूरे जीवन उन्होंने किसी को इसके अंदर झांकने की इजाजत नहीं दी। जयललिता बहुत से राज अपने साथ ही लेकर चली गर्इं। उन्होंने अपनी वसीयत भी नहीं बनाई। बनाई होती तो शायद यही पता चलता कि वे किसे अपने सबसे करीब मानती थीं।

तमिलनाडु की राजनीति में द्रविड़ आंदोलन ने कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी को हाशिए पर धकेल दिया। करीब पांच दशक से द्रमुक और अन्ना द्रमुक सत्ता पर काबिज हैं। जयललिता के जीवन के बहुत से विरोधाभासों में उनका राजनीतिक उन्नयन भी एक विरोधाभास को दर्शाता है। द्रविड़ आंदोलन ब्राह्मणवाद की मुखालफत में शुरू हुआ। इसके सभी नेता (एमजीआर और जयललिता को छोड़कर) नास्तिक थे। नास्तिकों की इस सूची में करुणानिधि भी शामिल हैं। जयललिता द्रविड़ आंदोलन के दूसरे नेताओं के विपरीत धर्मपारायण थीं। अयंगार ब्राह्मण होते हुए भी वे ऐसे आंदोलन से उपजे राजनीतिक दल के एक धड़े की सबसे लोकप्रिय और सर्वमान्य नेता बन गर्इं। उनका अधिनायकवादी स्वभाव, बदले की भावना से काम करने की आदत और भ्रष्टाचार के तमाम आरोप भी राज्य के आम लोगों में उनकी लोकप्रियता को कम नहीं कर सके। वे राज्य की पहली मुख्यमंत्री बनीं जो भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गर्इं। पर उनके लोककल्याण के कार्यक्रम कभी रुके नहीं। अम्मा कैंटीन, अम्मा दवाखाना, अम्मा पेयजल और ऐसे तमाम कार्यक्रमों से उनकी छवि गरीबों के मसीहा की बनी। इसलिए तमाम आरोपों और विरोधों को दरकिनार कर तमिलनाडु के मतदाता ने इस साल उन्हें लगातार दूसरी बार सत्ता सौंपी। तकनीकी रूप से छह बार और वैसे चार बार (साल 1991, 2001, 2011 और 2016) वे राज्य की मुख्यमंत्री बनीं।

जयललिता के निधन से तमिलनाडु की राजनीति में एक बड़ा खालीपन आया है। अन्नाद्रमुक में उसे भरने वाला कोई नजर नहीं आता। मुख्यमंत्री ओ पन्नीरसेल्वम और जयललिता की मित्र शशिकला में अम्मा का करिश्मा नहीं है। संगठन पर उनकी वैसी पकड़ भी नहीं है। वैसे अन्नाद्रमुक सत्तोन्मुखी पार्टी है। पार्टी नेता और कार्यकर्ता उसके साथ रहेंगे जो सत्ता में रखेगा। इसलिए अन्नाद्रमुक के टूटने का खतरा तब तक नहीं है जब तक शशिकला और पन्नीरसेल्वम में पार्टी पर कब्जे की जंग नहीं छिड़ती। इन दोनों के लिए एक और समस्या है कि दोनों ही थेवर समुदाय से आते हैं। इसलिए बाकी समुदाय के विधायकों, समर्थकों का रुख भी अहम होगा। शशिकला बहुत महत्वाकांक्षी महिला हैं। जयललिता से उनके संबंध खराब होने का यह भी एक कारण था। शशिकला पार्टी और उसके जरिए सत्ता के सूत्र अपने हाथ में रखना चाहेंगी। अगले विधानसभा चुनाव अभी साढ़े चार साल दूर हैं। यह समय ही अन्नाद्रमुक का राजनीतिक भविष्य तय करेगा। जयललिता के निधन ने गैर द्रमुक दलों के लिए संभावना के द्वार खोले हैं। एक समय राज्य में राज कर चुकी कांग्रेस अपने घर की लड़ाई से ही घायल है। भाजपा की नजर काफी समय से इस राज्य पर है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पार्टी को राज्य में खासतौर से दक्षिण के औद्योगिक इलाके में खड़ा कर सकती है। पर पार्टी की समस्या यह है कि उसके पास स्थानीय स्तर पर कोई नेता नहीं है जो जयललिता के निधन से खाली स्थान और मोदी की लोकप्रियता को चुनावी लाभ में बदल सके।