जिरह/प्रदीप सिंह

चुनाव हमेशा चौंकाते हैं। जरूरी नहीं है कि नतीजों से ही। हर राजनीतिक दल को चुनाव से पहले ही एक अदद मुद्दे की तलाश रहती है। मुद्दा ऐसा हो जो उसकी जीत का मार्ग प्रशस्त कर दे। इसलिए पार्टियां समय समय पर मुद्दे उछालती रहती हैं। हर पार्टी की कोशिश रहती है कि उसका उछाला हुआ मुद्दा चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बन जाए। इस मामले में सब अंधेरे में तीर चलाते हैं। क्योंकि किसका मुद्दा हिट हो जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं। हिट होने के लिए मुद्दे का गंभीर होना कतई जरूरी नहीं है। यों भी चुनावी मुद्दे और गंभीरता का नाता जरा कम ही होता है। वैसे, सही कहें तो राजनीति से ही गंभीरता कम होती जा रही है। चुनाव में बड़े बड़े गंभीर मुद्दों की हवा निकल जाती है। मतदाता भी चुनाव की घोषणा होते ही इंतजार में रहता है कि कब मुद्दा आए, उसे तौले, फिर अपना ले या उड़ा दे, यह पूरी तरह उसकी मर्जी पर निर्भर करता है।

बिहार में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। लेकिन चुनाव का मुद्दा क्या है? विकास, जाति, अगड़े पिछड़े वर्ग का संघर्ष, सुशासन बनाम जंगलराज या कुछ और। पिछले एक हफ्ते से चुनावी रैलियों, नेताओं और पार्टियों की प्रेस कांफ्रेंस में सबसे ज्यादा चर्चा गोमांस की हो रही है। घटना उत्तर प्रदेश के दादरी में हुई पर हंगामा बिहार में है। दनादन बयान आ रहे हैं। सब बछिया के ताऊ बन गए हैं। गोमांस खाया जा सकता है या नहीं इसके लिए वेद पुराण खंगाल लिए गए हैं। लालू प्रसाद यादव ने कहा कि हिंदू भी गोमांस खाते हैं। बस फिर क्या था, भाजपा ने इसे तुरंत लपक लिया। जाहिर है कि लालू का जवाब आना ही था। अंतिम समाचार मिलने तक बात ब्रह्म पिशाच से होते हुए उसे भगाने के लिए के लिए काले कबूतर को मारकर शराब डालने तक पहुंच गई है।

विकास का मुद्दा फिलहाल नेपथ्य में अपनी भूमिका की बारी आने का इंतजार कर रहा है। दुनिया का कौन सा ऐसा ज्योतिषी या समाज विज्ञानी है जो दो हफ्ते पहले यह बता सकता था कि बिहार चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा गोमांस होगा। इससे अगर आपको यह लगता हो कि राजनीतिक दलों को गाय की चिंता हो गई है, तो आप भ्रम में है। अब गाय तो किसी को वोट देने से रही। दरअसल, गाय और गोमांस में राजनीतिक दलों और नेताओं को हिंदू मुसलमान नजर आ रहे हैं। ये हिंदू मुसलमान चुनाव में बड़े काम के होते हैं। असदउद्दीन ओवैसी तो भाजपा के काम नहीं आ सके। गऊ माता काम आ रही हैं। लालू और नीतीश कुमार गाय से जान छुड़ाने की जितनी कोशिश कर रहे हैं उतना ही फंसते जा रहे हैं।

अचानक गोकशी देश में सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। इसका मकसद सिर्फ चुनाव में भावनाएं भड़काना है या कोई बड़ी योजना कहना कठिन है। चुनाव के बाद मुद्दे में कितनी गरमी बचती है या उसे गरमाने की कितनी कोशिश होती है, इससे अंदाजा लगेगा। लेकिन गोमांस का मसला बिहार तक सीमित नहीं है। कुछ साहित्यकारों ने इसे असहमति की आवाज दबाने का षडयंत्र बताया है। साहित्य अकादमी का पुरस्कार वापस किया जा रहा है। इस मुद्दे को केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद से देश में बढ़ रही असहिष्णुता के रूप में पेश किया जा रहा है। प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठ रहे हैं। उन्होंने जो बोला है वह देर से बोला और इसे नाकाफी बताया जा रहा है। देश के बुद्धिजीवियों के एक वर्ग को लग रहा है कि समय आ गया है कि लोग इसके विरोध में खड़े हों। कुछ लोग चुनौती दे रहे हैं कि मैं गोमांस खा रहा/रही हूं, आओ मुझे मारो। हर गंभीर मुद्दे को अपने प्रचार के लिए इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति वाले/वालियों को मौका मिल गया है। इसके लिए जरूरी है कि मुद्दे को सतही बनाकर उनके स्तर तक लाया जाय। ऐसे माहौल में परस्पर विरोधी गंभीर वैचारिक मत वालों के लिए बहस करना भी कठिन हो जाता है।

कौन क्या खाए यह उसकी निजी पसंद नापसंद का विषय है और उसे वहीं रहने देना चाहिए। लेकिन अपने इस अधिकार की रक्षा के लिए दूसरे के प्रति संवेदनहीन होने की जरूरत तो नहीं है। सवाल इसका नहीं है कि कौन क्या खाना चाहता है और कौन उसका विरोध करना चाहता है। सवाल है कि क्या शांति से रहने के लिए आपस में गुंजाइश बनाने की मन:स्थिति है। लड़ने के लिए मसलों की कमी नहीं है। एक दूसरे की जरूरतों, संवेदनाओं का खयाल करके जीने की इच्छा शक्ति का सवाल है। सारी उम्मीदें और शिकायतें सरकारों, राजनीतिक दलों से ही क्यों? हमारी और आपकी क्या कोई जिम्मेदारी नहीं है?