supreme-court

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया पर लगा यौन शोषण का आरोप बहुत बड़े विवाद का रूप ले चुका है. इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज परेशान हैं,सरकार और विश्लेषक भी हैरान हैं. अगर किसी महिला का यौन शोषण हुआ है, तो उसे न्याय मिलना ही चाहिए. गुनहगार को सजा मिलनी ही चाहिए. आरोपी चाहे कोई भी हो. सवाल यह है कि क्या चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया रंजन गोगोई ने यह अपराध किया है ? या फिर किसी साजिश के तहत उन्हें फंसाया जा रहा है? इन सवालों का फैसला अब अदालत करेगी. लेकिन, इस पहलू को समझना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को निशाना बनाने वाली घटना क्या है और न्यायपालिका जैसी संवैधानिक संस्था पर उसका क्या असर होने वाला है.

दरअसल, पूरे मामले में दो पेंच हैं. पहला एक महिला का आरोप है. दूसरा एक वकील का दावा कि चीफ जस्टिस के खिलाफ साजिश रची जा रही है. महिला जस्टिस गोगोई के दफ्तर की पूर्व कर्मचारी है. एक हलफनामे में उसने जस्टिस गोगोई पर यौन उत्पीडऩ और घटना के बाद उसके परिवार को परेशान करने का आरोप लगाया. यह महिला जूनियर कोर्ट असिस्टेंट के तौर पर काम करती थी. महिला ने आरोप लगाया कि चीफ जस्टिस ने पिछले साल 10 और 11 अक्टूबर को अपने घर के ऑफिस में ‘फायदा’ उठाने की कोशिश की. हालांकि, जस्टिस गोगोई ने महिला द्वारा लगाए गए इन आरोपों से इंकार किया है. महिला ने अपने हलफनामे में यह भी कहा है कि वह जस्टिस गोगोई की मांग ठुकरा कर दफ्तर से बाहर आ गई थी. इसके बाद 21 अक्टूबर को उसे नौकरी से निकाल दिया गया. लेकिन, जब यह मामला उछला, तो सुप्रीम कोर्ट के वकील उत्सव सिंह बैंस सामने आए. उन्होंने एक सनसनीखेज दावा किया कि चीफ जस्टिस को बदनाम करने के लिए उनके पास भी कुछ लोग आए थे और उन्हें रिश्वत देने की कोशिश की. उत्सव सिंह बैंस ने दावा किया कि जस्टिस रंजन गोगोई के खिलाफ यौन शोषण की ऐसी जबरदस्त कहानी गढऩे का ऑफर आया था, जिससे उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़े.

इस मामले को बारीकी से देखने पर कई सवाल जेहन में उठते हैं. पहला तो यह कि महिला को ऐसा आरोप लगाने में छह महीने से ज्यादा समय क्यों लग गया? जब उसके साथ ‘दुव्र्यवहार’ हुआ था, तो उसी समय उसने शिकायत क्यों नहीं की? दूसरा यह कि जब भी किसी महिला के साथ ऐसा होता है, तो अमूमन वह पुलिस के पास जाती है, महिला आयोग जाती है या फिर सीधे अदालत में गुहार लगाती है. लेकिन, संबंधित महिला ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. हैरानी तो इस बात की है कि चीफ जस्टिस पर यौन शोषण का आरोप ठीक उस समय लगा, जब राहुल गांधी को राफेल मामले में एक झूठे बयान के लिए सफाई देने को कहा गया. अब यह कोई भी सवाल उठा सकता है कि क्या चीफ जस्टिस पर दबाव डालने के लिए उन पर आरोप लगाए गए? ऐसे सवाल उठने लाजिमी हैं, क्योंकि इस मामले में मीडिया का एक वर्ग, जो जस्टिस लोया के मामले में झूठी कहानियां परोसता रहा, बढ़-चढ़ कर चीफ जस्टिस पर हमलावर हो गया.

लेकिन, इस मामले में नया मोड़ तब आया, जब वकील उत्सव सिंह बैंस ने अदालत में सनसनीखेज दावा किया कि चीफ जस्टिस के खिलाफ साजिश रची जा रही है. उन्होंने अपने दावे के समर्थन में बंद लिफाफे में सुबूतों के साथ-साथ सीसीटीवी के फुटेज भी दिए. उन सुबूतों और सीसीटीवी फुटेज में क्या है, यह तो किसी को नहीं पता, लेकिन जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दिल्ली पुलिस, सीबीआई एवं इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुखों के साथ इमर्जेंसी मीटिंग की और जांच में सहयोग करने का आदेश दिया, उससे साफ हो जाता है कि उत्सव सिंह द्वारा दिए गए सुबूत पुख्ता हैं. यही नहीं, जिस तरह से वामपंथियों एवं अर्बन नक्सलियों का गैंग इस मामले को लेकर सक्रिय हुआ है, उससे शक और भी गहरा जाता है.

आरोप लगाने वाली महिला सुप्रीम कोर्ट की पूर्व कर्मचारी है. उसे न सिर्फ कानून की जानकारी होगी, बल्कि उसकी कानूनी तौर-तरीके बताने वालों से अच्छी जान-पहचान भी होगी. अगर उसके साथ किसी ने दुव्र्यवहार किया था, तो उसे फौरन शिकायत दर्ज करानी चाहिए थी. सुप्रीम कोर्ट में ऐसी एक कमेटी मौजूद है, जो यौन शोषण के मामले की सुनवाई करने के लिए अधिकृत है. लेकिन, आरोप लगाने वाली महिला ने ऐसा नहीं किया. उसने बाकायदा एक ड्रॉफ्ट बनाकर सुप्रीम कोर्ट के हर जज को दिया, मीडिया को भी उसकी कॉपी दी. मतलब साफ है कि मामले को सनसनीखेज बनाने की पूरी कोशिश की गई. यह कोई छोटी-मोटी घटना नहीं हो सकती. समझने वाली बात यह है कि चार डिजिटल मीडिया ने एक साथ यह स्टोरी प्रकाशित की, सनसनी फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई. और तो और, चारों ने चीफ जस्टिस से एक जैसे सवाल पूछे. नोट करने वाली बात यह है कि ये वही वेबसाइट्स हैं, जिन्होंने कुछ समय पहले तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ मुहिम चलाई थी और अदालत में लंबित कुछ मामलों में दबाव बनाने की कोशिश की थी. यहां तक कि कांग्रेस ने चीफ जस्टिस को हटाने के लिए महाभियोग का प्रस्ताव रख दिया था. इतना ही नहीं, पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं. अब फिर से वही गैंग चीफ जस्टिस गोगोई को बदनाम कर सुप्रीम कोर्ट की गरिमा तबाह करने की कोशिश में जुटा है. मतलब साफ है कि मामला यौन शोषण का नहीं है, बल्कि यह सुप्रीम कोर्ट का इकबाल नष्ट करने की एक कोशिश है.

जहां तक बात न्यायपालिका की स्वायत्तता पर हमले की है, तो यह कोई नई बात नहीं है. 70 के दशक में जजों पर दबाव बनाने, उन्हें धमकी देने और उनके अनियमित तबादले की कई घटनाएं हुईं. इंदिरा गांधी के शासनकाल में खुल्लमखुल्ला राजनीति और विचारधारा से प्रेरित होकर जजों को नियुक्त किया गया. हाईकोर्ट हो या सुप्रीम कोर्ट, मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति हमेशा राजनीतिक ही रही. मतलब यह कि न्यायालय के जजों और क्रियाकलापों पर बाहरी नियंत्रण की कोशिश नई बात नहीं है. सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं, जो न्यायालय को भी ‘पिंजरे का तोता’ बनाना चाहते हैं. पिछले दो-तीन सालों से न्यायपालिका पर जबरदस्त हमले हो रहे हैं. जेएनयू में कभी सुप्रीम कोर्ट के जज को ‘अफजल का हत्यारा’ बताया जाता है, तो कभी चीफ जस्टिस के अधिकारों को लेकर सवाल उठाए जाते हैं. देश में वकीलों का भी एक ऐसा गैंग सक्रिय है, जो अपने हिसाब से न्यायपालिका का कामकाज चलाना चाहता है. इस गैंग में शामिल वकील चाहते हैं कि राजनीतिक एवं संवेदनशील मामलों में उनके हिसाब से जजों की बेंच बनें, उनके हिसाब से सुनवाई हो और फैसले भी उनके मुताबिक हों. अगर ऐसा नहीं होता है, तो जजों को मीडिया और राजनीतिक दलों द्वारा बदनाम किया जाता है. यह एक नया ट्रेंड है. अदालत के अंदर भी मामला ठीकठाक नहीं है. वकील अपनी वरीयता और रसूख का फायदा उठाकर जज के साथ कोर्ट रूम में उलझने लगे हैं. वे जजों के खिलाफ अनाप-शनाप टिप्पणी करने में भी जरा सा झिझकते नहीं हैं. अगर इस गैंग के मुताबिक फैसला नहीं आता है, तो वे मीडिया में फैसले के खिलाफ जहर उगलते हैं. हाल में केंद्रीय मंत्री एवं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अरुण जेटली ने अपने ब्लॉग में न्यायपालिका पर हो रहे कुठाराघात पर चिंता जताई. उन्होंने लिखा कि देश में संवैधानिक संस्थानों को क्षति पहुंचाने वाली ताकतें एकजुट होकर हमले कर रही हैं. वे लोग लेफ्ट और अल्ट्रा-लेफ्ट विचारधारा मानने वाले हैं, जिन्हें जनता का समर्थन हासिल नहीं है, फिर भी मीडिया में उन्हें काफी जगह मिलती रही है. इसके जरिये वे ‘पब्लिक ओपिनियन’ को अपने हिसाब से मोड़ लेने में कामयाब होते रहे हैं. लेकिन अब, जबकि मुख्य धारा के मीडिया में उन्हें जगह नहीं मिल रही है, तो वे सोशल मीडिया के जरिये संवैधानिक संस्थानों को तबाह करने में जुट गए हैं.

हैरानी की बात यह है कि जब अदालत ने दोनों मामलों को अलग कर जांच कराने का आदेश दे दिया, तो भी वामपंथी गुट को संतुष्टि नहीं मिली. ऐसा लगता है कि यह गैंग न्यायपालिका के खिलाफ एक मुहिम चला रहा है. कई फेमिनिस्ट, महिला कार्यकर्ताओं, वुमेन राइट्स ग्रुप्स एवं वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र लिखा है, जिसे मीडिया में भी प्रकाशित किया गया. इनकी मांग है कि चीफ जस्टिस पर लगे यौन शोषण के आरोप की एक स्पेशल इंक्वायरी कमेटी द्वारा जांच हो, जिसमें विश्वसनीय लोगों को रखा जाए. अब ये विश्वसनीय लोग कौन हैं, उनका तो इस पत्र में कहीं कोई जिक्र नहीं है, लेकिन पत्र के लुब्बेलुबाब से यही लगता है कि जांच कमेटी के सदस्य भी इनकी सहमति से रखे जाएं. अन्यथा, अदालत की किसी भी जांच को ये अविश्वसनीय करार दे सकते हैं. पत्र में एक और मांग की गई है कि जब तक जांच पूरी न हो जाए, तब तक जस्टिस गोगोई को उनके दायित्व से दूर रखा जाए. पत्र में यह भी मांग की गई है कि आरोप लगाने वाली महिला को उसकी पसंद का वकील मुहैया कराया जाए और जांच 90 दिनों के अंदर पूरी हो. अदालत द्वारा दोनों ही मामलों की जांच हो रही है. सच्चाई क्या है, यह जानने के लिए हमें अदालत के फैसले तक इंतजार करना होगा. लेकिन जिस तरह से यह मामला एक वैचारिक विवाद की शक्ल ले रहा है और इस पर राजनीति हो रही है, उससे न्यायपालिका की साख पर बट्टा तो जरूर लगेगा. लेकिन, जो लोग देश पर फासिज्म के खतरे और संवैधानिक संस्थानों की गरिमा को राजनीतिक मुद्दा बनाने में जुटे थे, वही आज शक के दायरे में हैं.