साहित्य अकादमी 2016 पुरस्कार मशहूर लेखिका नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘पारिजात’ को दिया गया है। 1948 में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में जन्मीं नासिरा के नाम 10 कहानी संकलन, छह उपन्यास और तीन निबंध संग्रह हैं। वह हिंदी के अलावा फारसी, अंग्र्रेजी, उर्दू और पश्तो भाषाओं पर भी अच्छी पकड़ रखती हैं। सुलझे मिजाज की संवेदना से भरपूर एक लेखिका जिनमें ज्ञान, मान, शान सब कुछ नजर आता है। दिलकश मुस्कान उनके चेहरे की खूबी है। बिना किसी लाग-लपेट के सामाजिक मुद्दों पर बोलना उनकी आदत में शुमार है। परिवार, समाज, महिला अधिकारों से लेकर शांति और सुरक्षा जैसे सवालों के प्रति वह संजीदा हैं। मशहूर शायर कैफी आजमी को पढ़ना और उनका लिखा सुनना उन्हें बेहद पसंद है। उनसे ओपिनियन पोस्ट के लिए निशा शर्मा की बातचीत के प्रमुुख अंश:-

लिखना कैसे शुरू किया, माहौल का असर रहा या लिखने का शौक था?

हमारे घर का माहौल तो था ही लिखने पढ़ने वाला, स्कूल का माहौल भी प्रोत्साहित करने वाला रहा। कई प्रतियोगिताएं हमारे स्कूल में हुआ करती थीं। वह समय ऐसा था जब मुस्लिम औरतों और लड़कियों को आगे बढ़ाने की बात की जा रही थी। एक आंदोलन था औरतों की शिक्षा के लिए। लिखने की प्रेरणा मुझे अपने स्कूल के माहौल से मिली क्योंकि हमारा घर जिस इलाके में था वहां बड़ी-बड़ी कोठियां, चौड़ी सड़कें थीं। दुकानें भी फैशनेबल थीं। लेकिन बाद में वो मोहल्ला बहुत रोचक हो गया क्योंकि बड़ी-बड़ी कोठियों के मालिकों की हालत जमींदारी खत्म होने के बाद गड़बड़ा गई थी। कोठियों के आगे के कमरों को किराये पर दे दिया गया। उनमें सब्जी की दुकानें, दवाखाना खुल गया। हलवाई आ गया। हमारा स्कूल एक पतली गली में था। घर से स्कूल जाने के दौरान हमें कई पतली गलियों से गुजरना होता था। चूंकि एक आंदोलन था शिक्षा को फैलाने का तो उन गलियों में रहने वाले धोबी, रिक्शेवाले, दुकानदार, मजदूर की लड़की को प्रोत्साहित करके स्कूल भेजा जाता था। उस माहौल में जो विभिन्नता थी वह हमें भाती थी और वह माहौल हमें प्रेरित करता था लिखने के लिए। इन हलचलों ने हमें भाषा से समृद्ध किया और भावों से भी भरा।

आपके अंदाज में शायरी है और शब्द अनगिनत, यह सब आपको विरासत में मिला या लेखन के दौरान?

शायरी हमारे खून में है। हमारे खानदान में बहुत अच्छे शायर रहे हैं। हमारे दादा, चाचा, परदादा सब शायर थे। घर का माहौल ऐसा था कि कोई अवधी में कह रहा होता तो कोई फारसी में। हां, यह सही है कि शब्द हमारी विरासत हैं हमारे पुरखों की जो लिखते वक्त हमारी लेखनी में कहीं न कहीं से आ जाते हैं।

आपकी मातृभाषा उर्दू रही होगी लेकिन लेखन हिंदी में कैसे संभव हुआ?

नहीं, ऐसा नहीं है। हम अवध के हैं। अब भी हमारे यहां अवधी बोली जाती है। यह हमारी पुश्तैनी भाषा है। हम कहीं भी चले जाएं लेकिन जब मिलेंगे तो सारे लोग अवधी ही बोलते पाए जाएंगे। अवधी में हिन्दी-उर्दू दोनों के शब्द हैं। उर्दू में हमारा दिल नहीं लगता था। हमने उर्दू को उस तरह से नहीं पढ़ा जिस तरह से वह भाषा पढ़ी जाती है। हमारा फोकस हमेशा हिंदी और अंग्रेजी पर ही रहा। दूसरा कारण था कि हमारा पढ़ने का मीडियम अंग्रेजी से हिंदी हो गया था। शायद यह भी प्रभाव रहा होगा। हालांकि जो माहौल हमारे घर में था उसमें तरह-तरह की भाषाएं बोली जाती थीं जिसमें जमीनी और अदबी दोनों भाषाएं थीं। इसके बाद हमने पर्शियन भाषा सीखी, फारसी सीखी और ईरान गई। फारसी के जरिये पूरी दुनिया का अदब पढ़ने का मौका मिला क्योंकि फारसी में ट्रांसलेशन बहुत हुआ था। सिमोन द बोआ की कई किताबें पढ़ीं और फारसी के बड़े लेखकों को पढ़ा। इस तरह से मेरी भाषा समृद्ध होती गई।

आपकी लेखनी में आपका मोहल्ला है, इलाहाबाद, लखनऊ है, पारिजात में भी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाके ऐसे हैं जिनसे आपको बेहद लगाव है। ये शहर अनायास ही आपकी लेखनी में आ जाते हैं या कुछ और बात है?

हमने अपने घर और मोहल्ले पर कोई कहानी नहीं लिखी। इलाहाबाद में बासी रोड पर हमारा घर था लेकिन जीरो रोड पर हमने उपन्यास लिखा जो बासी रोड को क्रॉस करती हुई जाती है। सुना है यह इलाहाबाद की पहली रोड थी। वहां इतनी ज्यादा परतदार जिन्दगी थी, दुख-सुख थे कि वह जगह मुझे भुलाए नहीं भूलती। हमें अपना नौकर बहुत याद आता है जिसका नाम अब्दुल्ला था। कभी-कभी हम डायलॉग भी दोहराते हैं- हमारे यहां एक बच्चा है मेरी बेटी का। उससे कहती हूं चलो खेल खेलते हैं। तुम मुझे नक्सो बीबी पुकारना, हम तुम्हें अब्दुल्ला पुकारेंगे। हमें अपना बचपन बड़ा याद आता है। उसके किस्से एकाएक किरदारों में आ जाते हैं। करीब 18 साल गुजारे हमने अपने मोहल्ले में लेकिन उसकी यादें आज भी साथ हैं। उस समय हमारी दोस्ती, रिश्तों में बड़ा खुलूस था। हमारी मां की जब मौत हुई थी तो हमें लगा था कि शहर हमसे छूट गया। अब कुछ भी नहीं रह गया हमारा अपना वहां। फिर लगा एक ही तरीका है हमें खुद को उससे बांधने का कि हम उस पर लिखें। इसी वजह से हमने इलाहाबाद पर चार उपन्यास लिखे हैं।

60 वर्ष में आप पहली मुस्लिम महिला हैं जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है?

2005 से 2008 के बीच में यह बात बहुत उठी थी कि क्या बात है कि किसी हिंदी सम्मेलन में और किसी भी सरकारी पुरस्कारों में मुस्लिम लेखकों के नाम नहीं आते। लेकिन यह सही नहीं है क्योंकि राही मासूम रजा को भी यह सम्मान नहीं मिला जबकि वह बहुत अच्छा लिखते थे। हम इस सोच का समर्थन नहीं करते। किसी लेखक को धर्म में बांधना अच्छी बात नहीं है। हमदर्दी का भाव अलग बात है, फन के ऊपर कसौटी होना अलग चीज है, इत्तेफाक होना अलग है लेकिन चीजों को धर्म से जोड़ना गलत है। अगर हमें यह सम्मान नहीं भी मिलता तो हमारा अक्षय वट, पारिजात वहीं रहता। हम जो लिखते हैं वह वहीं रहता। ईनाम हमारे लिए एक तरह के त्योहार होते हैं जिसमें हम खुश होते हैं। चीजें चर्चित होती हैं पर इसके अलावा हमारी प्रतिभा पर कोई फर्क नहीं पड़ता। वो जैसी होती है वह वैसी ही रहती है।

पारिजात लिखते समय कहीं यह जेहन में रहा कि यह कुछ अलग है या कुछ ऐसा जो बहुत खास हो?

गुजरी सदी के अंत में जोरशोर से बिना किसी नाम के यह उपन्यास लिखना शुरू किया था। पहले यह अड़चन आई कि मुताह (कानूनी वेश्यावृत्ति) या सीगा के बारे में पूरी मालुमात ले ली जाए फिर आगे बढ़ा जाए। कहानी का खाका लिखा था, उसमें रंग भरने थे। चरित्रों को कुछ और जानदार बनाना था। हमने मर्सिया, कर्बला, हुसैनी ब्राह्मण पर शोध किया। हमारा मुस्तफाबाद, इलाहबाद और लखनऊ आना जाना लगा रहा। पारिजात लिखते समय हमारे जेहन में एक बात हमेशा रहती थी कि नहर पर चल रही थी पनचक्की, धुन की पूरी थी काम की पक्की। लेकिन पारिजात को लिखने के दौरान कुछ ऐसी घटनाएं घटीं कि हम उसमें सबकुछ भूल गए। ऐसा उलझी कि न उसमें हुसैनी ब्राह्मण याद रहा न पारिजात। मामला कुछ संभला तो पुस्तकों के दूसरे संस्करणों के और नई किताब के प्रूफ आने शुरू हो गए। एक के बाद एक मसरुफियतें बढ़ती चली गर्इं, पारिजात कहीं पांडुलिपियों में गुम हो गया। बहुत ढूंढा लेकिन पारिजात की पांडुलिपियां नहीं मिलीं। दिल को यह कहकर समझाती कि उस में था भी क्या? कहानी और किरदारों के नाम याद थे, नई शुरुआत की, कई सालों के बाद फिर लिखना शुरू किया। मगर हर रचना की अपनी नियति होती है। 12 वर्ष बाद मेरा पांचवा उपन्यास अक्षय वट छपा लेकिन पारिजात प्रेस में जाते जाते रुक गया। फिर भी पारिजात की राम कहानी पूरी नहीं हुई। बाद में मैंने इसे पूरा किया क्योंकि इसके रिसर्च में काफी वक्त लगा। कोशिश उम्दा रही और आज हमारी उसी कृति को सम्मान मिला है जिसकी पांडुलिपि कहीं गुम हो गई थी।

पारिजात का आधार क्या है, इसे आपने कहां से लिया?
पारिजात त्रिकोणीय प्यार पर आधारित उपन्यास है। इस उपन्यास की तहजीब को हमने उठाया लखनऊ, इलाहाबाद से। लखनऊ की पुरानी तहजीब नवाबों की है और कैसा मिला-जुला कल्चर है वहां, कैसे आर्ट एंड कल्चर को बढ़ावा मिला था। इलाहाबाद कैसे शिक्षा का केंद्र था। उसके साथ हम ले आए हुसैनी ब्राह्मण का इतिहास, मर्सिया और कर्बला को। कर्बला की अपनी विशिष्ट कहानी है। उपन्यास में हमने बताया है कि कर्बला क्या है, हुसैनी ब्राह्मण क्यों हैं? हमेशा कहा जाता है कि मुस्लिम देश हमारे पड़ोसी हैं और पड़ोसियों से हमेशा प्यार, मोहब्बत का रिश्ता होता है तो मैं उन सब चीजों को उस माहौल में ले गई। इसमें हमने बहुत से किरदार गढ़े हैं, बहुत कहानियां कही ह, जैसे जहरे इश्क को ले आई हूं। मर्सियां को ले आई हूं।

साहित्य अकादमी मिलने की खबर सुनकर आपको कैसा लगा था? उन लोगों के बारे में आप क्या सोचती हैं जिन्होंने अवार्ड वापस किए?
हम बहुत थके हुए थे, हम पर बहुत दिमागी बोझ था क्योंकि पांच साल से हम शाहनामे पर काम कर रहे थे और शाहनामे की पांडुलिपि छपने के लिए निकल नहीं पा रही थी। वहीं हम सात साल से एक ट्रांसलेशन के काम में भी लगे हुए थे। वह समय ऐसा था कि हम दिमागी तौर पर बहुत थके हुए थे। जब यह खबर आई तो ऐसा लगा जैसे बहुत सूखी जमीन पर बारिश हुई पर उसका पता न लगा हो। बात आई-गई सुनी-अनसुनी हो गई। लेकिन जब लोगों की प्रतिक्रिया आई तो मुबारक वाला लहजा नहीं कहूंगी पर एक लहजा था खुशी का जिसने मुझे खुशी का अहसास करवाया। तब असल में लगा कि हां हमें सम्मान मिला है और लोग खुश हैं।

दूसरी बात, अगर सरकार से नाराजगी है, चाहे वह लेखक हो या आम आदमी, उसे संवाद से मसला हल करना चाहिए। सरकार को भी यह देखना होगा कि जनता क्या चाहती है? जनता की जरूरतें क्या हैं? सरकार लेखकों या बुद्धिजीवियों को साथ लेकर नहीं चलेगी तो शिकायतें तो होंगी ही। ऐसा नहीं है कि लोग भाजपा से ही नाराज हैं, कांग्रेस से भी नाराज थे। लेखक एक विचारधारा को लेकर नहीं चलते हैं। हम पूरी दुनिया को साथ लेकर चलते हैं।

लेखन के आधार पर नासिरा शर्मा को लोगों ने कब जाना?

लेखन की शुरुआत ही लोगों को भौचक करने वाली थी। बचपन में लिखा, स्कूल की मैगजीन में लिखा कौन नोटिस करता है। लेकिन जब हमने ईरान पर लिखा तो लोगों की नजर में आ गए। लोग पूछने लगे कि यह नासिरा कौन है? उनकी उम्र क्या है? हमने वो लिखा जो उस समय किसी लेखिका ने नहीं लिखा। पहले हमारी जिंदगी में ईरान नाम की कोई चीज नहीं थी और कभी सोचा भी नहीं था उस जगह के बारे में। हमारे ख्वाबों में तो अफ्रीका बसता था, चीना बसता था। जहां जाने की चाह थी ताकि तरह-तरह की चिड़ियों, जानवरों से मुलाकात हो सके। पर जिन्दगी हमें दूसरी तरफ ले गई।

बेखौफ लेखन ही नहीं बल्कि आपके व्यक्तित्व को लेकर भी आपको कुमारबाज कहते हैं। क्या कारण हैं?

कुमारबाज फारसी शब्द है जिसका मतलब होता है खतरों से खेलने वाली। हमें पढ़ने और जानने वाले कहते हैं कि हमने खतरों से खेल कर लिखा है। जिंदगी दांव पर लगा देना हमारे लिए मामूली बात थी। शहादत को हक समझने वाला दर्शन हमें विरासत में मिला है। हार मान लेना, दब जाना हमने सीखा ही नहीं। ईरान क्रांति के दौरान जब ईरान के शाह की सावक पुलिस उड़ते पंख की फड़फड़ाहट कैद कर लेती थी, उस समय मैंने कम्प्राडोर व्यवस्था पर लिखा। ईरान और अफगानिस्तान पर किए गंभीर लेखन और जिंदगी को जीने के अंदाज ने हमें कुमारब़ाज बनाया।

आपके लेखन में औरत का किरदार बहुत उभर कर आता है। आपके बचपन में ही पिता का देहांत और विषम परस्थितियों में पलने का यह परिचायक तो नहीं?

महिलाओं को लेकर हमारे लेखन में जो कुछ है उसमें हमारी मां या हमारा किरदार नहीं है क्योंकि हमारी मां मजबूत इरादों वाली औरत थी। उन्होंने बड़ी हिम्मत से हम पांच भाई-बहनों को पाला। हमें पैसे की कमी नहीं थी लेकिन लोग शोषण करना चाहते थे, बेवकूफ बनाना चाहते थे। उसकी जंग हमारी मां ने बहुत अच्छी तरह से लड़ी। हमारे आस-पास जो औरतें थीं वे बड़ी दिलचस्प थीं। उन औरतों में विभिन्नता थी। मोहर्रम के समय हमें उन औरतों से मिलने का भी मौका मिलता था। उस समय हमारे मोहल्ले में औरतें आती थीं। उस समय उनका रहन सहन देखा, बातें सुनी जो जेहन में रह गई और कहीं न कहीं किरदार के तौर पर सामने आ जाती हैं। हम सिर्फ औरत पर नहीं लिखते, समाज की कहानी लिखते हैं, उत्पीड़न की कहानी लिखते हैं। हम पूरी दुनिया की कहानी लिखते हैं। जब हम किसी भी सामाजिक मुद्दे पर लिखते हैं तो उसमें एक मुद्दा औरत भी होता है। हमारी तीन किताबें हैं औरत पर। औरत, औरत की आवाज, और औरत की दुनिया।

आपके बेबाक लेखन की क्या वजह है?

थोड़ी बहुत बेबाकी तो हममें बचपन से ही थी। जिस माहौल में हम थे उस समय मन में बड़े प्रश्न उठते थे। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा नहीं होना चाहिए था? बुराई को बहुत छांटती थी। भाई से बहुत सी बातें हो जाती थी। हमें लगता था कि अभी साहब इबादत कर रहे थे और अब ऐसी हरकत कर रहे हैं? ऐसे में अंदर जो गुस्सा और विरोध था, उसने हमें बहुत मजबूत किया। हम कम बोलते थे लेकिन एक्शन से ज्यादा जताया जाता था। उस समय यह बहुत बड़ा विरोध समझा जाता था कि कुछ बोला नहीं सिर झुका लिया, मतलब नहीं तो नहीं।

ईरान और अफगानिस्तान पर आपने बेबाकी से लिखा लेकिन उसके बाद आपने उनके लिए चुप्पी साध ली। ऐसा क्यों?

ऐसा नहीं है कि चुप्पी साध ली। अफगानिस्तान पर तीसरा खंड लिखना चाहती थी लेकिन कुछ इस तरह के हालात बनते रहे कि निकल ही नहीं पाई। हमने एक फिल्म बनाई थी ‘प्रिजनर्स आॅफ वॉर’ जर्मन और फ्रेंच टेलीविजन पत्रकारों के साथ। उसमें हमारा एक इंटरव्यू था। इस फिल्म के बाद लोगों ने हमारे खिलाफ प्रोपेगेंडा किया। हमें कहा गया कि दोबारा जाओगी तो जान को खतरा है। फिर गई ही नहीं। 35 साल बाद ईरान से तीन लोग आए और कहा कि हम बड़ा इंटरव्यू चाहते हैं आपका। उन्होंने कहा कि हम प्रिजनर्स आॅफ वॉर पर डाक्यूमेंटेशन कर रहे हैं तो उससे फिर दरवाजा खुल गया। उसके बाद ईरानी दूतावास ने भी बुलाया। रिश्ते ठीक होने लगे। फिर भी वहां जा नहीं पाई। पर ऐसा नहीं है कि चुप्पी है, बल्कि हालात ऐसे रहे कि चाह कर भी कुछ नहीं कर पाई। ईरान, अफगानिस्तान और सीरिया जैसे खूबसूरत छोटे मुल्क किस तरह से बर्बाद हुए और बहुत बड़ी तादाद में पूरे सिस्टम को बिना समझे हुए लोगों ने अपना कदम उठा लिया ये अब भी जेहन से नहीं निकलता है।

जिंदगी का कोई मलाल जो आपको परेशान करता हो?

शायर कैफी आजमी साहब ने एक किताब भेजी थी मुझे कि उसका पर्शियन अनुवाद कर दूं। उस समय हमारे पास काम बहुत था। हमने उनके खत का जवाब भी नहीं दिया था। उनके जाने के बाद जब हमें पता चला कि उन्हें पर्शियन बहुत पसंद थी तो हमारे अंदर इस बात का मलाल रहा कि उनकी ख्वाहिश पूरी क्यों नहीं की। कभी मौका मिला तो कर भी दूंगी पर तब क्यों नहीं कर पाई इसका दुख है।

लेखिका के तौर पर कोई ख्वाहिश?

बतौर लेखिका यही ख्वाहिश होती है कि जो लिखूं उस पर पाठक प्रतिक्रिया दें। साथ ही जिस तरह हम अपने पसंदीदा लेखकों को पढ़ कर बड़े हुए हैं, उसी तरह पाठक भी हमारी रचना के साथ उम्र की सीढ़ियां तय करेंगे और कुछ न कुछ जरूर ग्रहण करेंगे।