आशुतोष मिश्र

अभी हाल में अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग संस्था, मूडी के विश्लेषक ने भारत के बारे में नकारात्मक टिप्पणी किया है, जबकि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भारत की रेटिंग को ऊपर कर दिया है। विश्व बैंक और फोर्ब्स पत्रिका ने भारत और भारतीय प्रधानमंत्री को सकारात्मक तौर पर दिखाया है। मूडी के विश्लेषण पर भारत सरकार को विवश होकर यह स्पष्टीकरण देना पड़ा है कि यह विश्लेषण मूडी संस्था का नहीं है बल्कि उसके एक विश्लेषक की व्यक्तिगत व्याख्या मात्र है।

ये खबरें नवम्बर महीने की हैं। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भारत के मूल्यांकन की खबरें हमारे पास लगातार आती ही रहती हैं। हम इन पर हमेशा चर्चा करते हैं। इन संस्थाओं द्वारा अच्छे नंबर मिलने पर हम स्कूली बच्चों की तरह प्रसन्न होते हैं और खराब मूल्यांकन पर निराश हो जाते हैं। इस बात पर अचरज होता है कि किसी धारावाहिक सीरियल की तरह की इस घिसी-पिटी पटकथा से हमारा मन अभी तक भरा नहीं है। अगर हमारा मन ऐसी खबरों से हट गया होता तो ऐसी खबरें हमारी मीडिया की निगाह से भी ओझल हो जातीं।

यह अफसोस और अचरज की बात है कि रेटिंग संस्थाओं की इस साजिश को समझने के बाद भी हमारे प्रधानमेत्री भी इनके हनीट्रैप में फंस गये हैं।पिछले दिनों उन्होंने लंदन के वेम्बले स्टेडियम में अत्यंत आत्ममुग्ध अंदाज में बहुत विस्तार से बताया कि ट्रासपरेंसी इंटरनेशनल ने भारत का दर्जा चीन से उपर कर दिया है। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग संस्थाओं  ने ईज आॅफ डूइिंग बिजनेस के मामले में भारत का दर्जा बहुत उपर बढ़ा दिया है। उन्होंने उसके बाद कई साक्षात्कारों में भी इन बातों का जिक्र किया है।यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में चीन से तुलना करने की कोई भी भारतीय कोशिश बहुत ही बचकानी ही मानी जायेगी।

रेटिंग एजेंसियों की सकारात्मक या नकारात्मक रेटिंग से हलचल सबसे पहले दलाल स्ट्रीट पर दिखती है
रेटिंग एजेंसियों की सकारात्मक या नकारात्मक रेटिंग से हलचल सबसे पहले दलाल स्ट्रीट पर दिखती है

भारत  की प्रगति के आंकड़ों में उछाल इसलिये दिख सकता है क्योंकि भारत का आर्थिक आधार अभी बहुत ही निचले पायदान पर है। इससे चिंतित या शमिंर्दा होने का कोइ कारण नहीं है। लेकिन इस निम्न आधार की वजह से आंकड़ों में आने वाले उछाल पर हमको गर्व भी नहीं करना चाहिये। हमको इस मामले में चीन से तुलना करने की भूल नहीं करना चाहिये और इस मामलें में रेटिंग संस्थाओें का सहारा तो कभी नहीं लेना चाहिये।इन रेटिंग संस्थाओं से कभी-कभार अच्छे अंक पाने पर यदि हम बहुत चर्चा करेंगे तो हमको इनके मानदंडों पर लगभग हमेशा ही फिसड्डी रहने की चर्चा भी करनी पड़ेगी। यह हमारे अभिमान का नहीं बल्कि अपमान का कारण बनेगा।

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि हमारा मूल्यांकन करने वाली सभी संस्थाओं का मुख्यालय पश्चिमी देशों में है। ये मूल्यांकन संस्थाएं स्वतंत्र होने का दावा करती हैं। बहुत गहराई से देखने पर हमको मालूम पड़ेगा कि इनके और वित्तीय संस्थाओं के बीच एक पारिवारिक किस्म की आवाजाही लगी रहती है। इन मूल्यांकन संस्थाओं पर उन्हीं आर्थिक संस्थाओं का निंयत्रण है, जिनके मूल्यांकन का वे दावा करती हैं।

इस संदर्भ में बिल्कुल नयी खबर बैंक आफ अमेरिका मेरिल लिंच से आयी है। 213 अरब डॉलर के कारोबार का प्रबंधन करने वाली समिति ने भारत के शेयर बाजार की रेटिंग को विकसित देशों के वर्ग में भी ओवरवेट से गिराकर तटस्थ कर दिया है। एक साल मे भारत की रेटिंग की यह सबसे बड़ी गिरावट है। इसका एक प्रमाण यह है कि इस कैलेंडर वर्ष में भारत के शेयर बाजार में मात्र साढ़े तीन अरब डॉलर का निवेश ही आया है जबकि पिछले साल यह राशि इससे लगभग चार सौ प्रतिशत अधिक थी।इस साल तीस शेयरों वाले बेंचमार्क सूचकांक में छह प्रतिशत की गिरावट आयी है।

इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की रेटिंग का तरीका भी बहुत बेढब है। अमेरिकी संसद और उसको प्रभावित करने वाले कई संगठन और समिति दूसरे देशों में धार्मिक स्वतंत्रता की वर्तमान स्थिति बताने के लिए उन देशों के नक्शों पर लाल, पीला और हरा झंडा या निशान लगाते हैं।  इस तरह वे दुनिया के सर्वोच्च न्यायालय की तरह फैसला देते हैं कि किस देश में धार्मिक स्वतंत्रता सुरक्षित है, किस देश में संकट में है और किस देश में धार्मिक स्वतंत्रता समाप्त हो चुकी है। इस तरह वे पूरी दुनिया को बहुत मनोरंजक तरीके से और अपने हित के हिसाब से स्याह और सफेद में बांट देते है। ज्यादातर रेटिंग संस्थाएं गैर-पश्चिमी देशों को दसियों मामलों में सीधे नंबर या ग्रेड देते हैं। उनका अंदाज कुछ ऐसा होता है कि वे परीक्षक हैं, गैर-पश्चिमी देश परीक्षार्थी हैं और वे परीक्षक उनके भाग्य विधाता हैं। अधिकतर पश्चिमी संस्थाएं बाकायदा नंबर देकर या ग्रेड बनाकर हमको हमारी हैसियत बताने की हिम्मत करती हैं। हमारे बुद्धिजीवियों ने इन संस्थाओं से कभी प्रतिप्रश्न भी नहीं किया।

समाज विज्ञान में इस तरह की नंबर देने या ग्रेड देने की परिमाणात्मक शैली तीस साल पहले ही खारिज हो चुकी है। समाज वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि सामाजिक घटनाओं की जटिलता को इस तरह गिनकर, तौलकर या पटरी से नापकर किसी संख्या में समेट देना सरलीकरण की बचकानी कोशिश है। सामाजिक घटना के मूल्यांकन के मानदंड भी हर समाज में अलग हैं। यह सवाल प्रासंगिक है कि श्रेष्ठता के पश्चिमी पैमानों को भारत के लोग क्यों स्वीकार करें। मूल्यांकन के मानदंड और उसकी वैज्ञानिकता के सवालों से भी बड़ा सवाल इन मूल्यांकनों के पीछे की दूषित मानसिकता का है। हर हफ्ते हमारा मूल्यांकन करने वाले विदेशियों का इरादा नेक नहीं है।

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि हमारा मूल्यांकन करने वाली सभी संस्थाओं का मुख्यालय पश्चिमी देशों में है। ये मूल्यांकन संस्थाएं स्वतंत्र होने का दावा करती हैं। बहुत गहराई से देखने पर हमको मालूम पड़ेगा कि इनके और वित्तीय संस्थाओं के बीच एक पारिवारिक किस्म की आवाजाही लगी रहती है। इन मूल्यांकन संस्थाओं पर उन्हीं आर्थिक संस्थाओं का निंयत्रण है, जिनके मूल्यांकन का वे दावा करती हैं। कोई आश्चर्य नहीं है कि इन रेटिंग संस्थाओं ने 2008 के वैश्विक संकट के लिए दोषी बैकों और वित्तीय संस्थाओं को अत्यंत सुरक्षित और श्रेष्ठतम का दर्जा दे रखा था। इन रेटिंग संस्थाओं की सारी सख्ती गैर-पश्चिमी देशों के साथ के व्यवहार में दिखती है। अपने देशों के मूल्यांकन में यही संस्थाएं बहुत दयालु हो जाती हैं।

अभी हाल में एक संस्था ने अमेरिका की रेटिंग एक पायदान नीचे खिसकाने की गलती कर दी थी, जिसका तीखा प्रतिरोध हुआ। हम आदतन और अनजाने में ही इन संस्थाओं को वैश्विक संस्थाएं कहने की गलती करते हैं। मिसाल के लिए जिसे हम विश्व बैंक कहते हैं, वह सिर्फ नाम का विश्व बैंक है। हमेशा से ही इसके और इसके अनुषांगिक अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के दोनों प्रमुख पदों को अमेरिका और यूरोप के बीच ही बांटा जाता रहा है।

इसकी शक्ति को भी वैश्विक नहीं मानना चाहिए क्योंकि जापान और ब्रिक्स के अंतर्राष्ट्रीय बैंकों के बाद और उन सबसे बढ़कर अब चीन के अंतर्राष्ट्रीय बैंक की शक्ति इस कथित विश्व बैंक से कम नहीं है। इस नए गैर-पश्चिमी बैंक की शक्ति का प्रमाण ये है कि अमेरिका के दबाव के बाद भी आॅस्ट्रेलिया और कई यूरोपीय देश इसमें शामिल हो गए हैं। एक समय में पश्चिमी देश दुनिया को नियंत्रित करते थे, इसलिए पश्चिमी संस्थाओं को हम सबने वैश्विक संस्थाएं मान लिया था। अब इतिहास करवट ले चुका है। आज वैश्विक स्तर पर कच्चे माल की आपूर्ति, उत्पादन और उपभोग में गैर-पश्चिमी हिस्सेदारी साछ फीसदी से कम नहीं है। वैश्विक शक्ति की सीमा का निर्धारण अटलांटिक से नहीं, प्रशांत महासागर से होने लगा है।

वैश्विक शक्ति संतुलन के परिवर्तित परिवेश में अब हमको भी यह सोचना चाहिए कि इन पश्चिमी संस्थाओं को इतना महत्व देना उचित नहीं है। ध्यान रहे कि चीन, जापान, रूस या ब्राजील जैसे देश हमारा ऐसा घटिया, नियमित और सर्वांगीण मूल्यांकन करने की सोच भी नहीं सकते। कुल मिलाकर हमारा घटिया मूल्यांकन करने की यह प्रवृत्ति और विकृति केवल पश्चिमी संस्थाओं में ही पायी जाती है और इसके लिए वे वैश्विकता का वस्त्र पहनकर सामने आते हैं। यह उचित है कि हर भारतीय नागरिक अपने राष्ट्रीय जीवन के बारे में विदेशियों के विश्लेषण को अहमियत दे। इसमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह विश्लेषण एकांगी, अतिवादी या दुर्भावनाग्रस्त तो नहीं है।

पश्चिमी या अन्य किसी देश द्वारा हमारे बारे में की गई हर व्याख्या का महत्व है लेकिन एक सीमित संदर्भ में ही। यह माना जा सकता है कि इन मूल्यांकनों का हमारी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है। आखिर हमारे राजनेता इसी विदेशी निवेश को लाने के लालच में विदेश यात्राएं करते हैं। इन कोशिशों को एकदम नकारना भी ठीक नहीं है लेकिन इनकी गंभीरता और सार्थकता पर संदेह होता है। हम इन यात्राओं में विदेशी निवेश पाने की घोषणाओं को सुनते हैं लेकिन वास्तव में उन घोषणाओं को सच्चाई में बदलते हुए कम ही देख पाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने सही कहा है कि विदेशी निेवेशक सच्चाई को समझते हैं। अगर उन्हें सुरक्षित लाभ का भरोसा होगा तो वे आमंत्रण पाने का इंतजार नहीं करेंगे बल्कि आवेदन देकर आने की कोशिश करेंगे।

इसके अलावा भारत जैसे देश में विदेशी पूंजी की हैसियत हमेशा हाशिये पर ही रहेगी। हमको यह भी ज्ञात है कि इस विदेशी पूंजी का बड़ा हिस्सा तो संदिग्ध देशों से आता है। इस पूंजी का न आना ही अच्छा है। इस पूंजी का बड़ा भाग एकदम अस्थाई है जिसकी वजह से हमारे देश के संवेदी सूचकांक अर्थव्यवस्था के नहीं बल्कि सट्टा बाजार के संकेत को की शक्ल ले लेते हैं। इससे आर्थिक अनिश्चितता, असाधारण उतार-चढ़ाव और अराजकता का महोल बनता है। कराधान संबधी नए विवाद पैदा होते है। जिसमें हमारी सरकार को शायद ही कभी निर्णायक जीत हासिल होती है। हमारी अर्थव्यवस्था को अच्छी रेटिंग का यह लाभ अवश्य मिलता है कि कुछ निवेश इस रेटिंग की वजह से सहज रूप में आता है। पर्यटन जैसे व्यवसायों पर भी इसका असर होता है।

कोई कारण नहीं है कि विदेशी संस्थाओं की रेटिंग हमारे सिर चढ़कर बोलने लगे। इनको अधिक अहमियत देने का ही नतीजा है कि पूरे देश में पुरस्कार-सम्मान लौटाने और इस तरह असहिष्णुता का आरोप लगाकर देश की छवि को खराब करने का आंदोलन चल पड़ा है। ऐसे आंदोलन इन विदेशी संस्थाओं को यह मौका देते हैं कि वे हमारी रेटिंग को और नीचे ला सकें। इन पश्चिमी संस्थाओं के दोहरेपन का दायरा बहुत व्यापक है। ऐसी संस्थाओं और भारत पर लगाए गए तरह-तरह के आरोपों के सूची बहुत लंबी है। यह तो माना जा सकता है कि इन मामलों में भारत की स्थिति आदर्श नहीं हैं लेकिन पारदर्शिता, मानवाधिकार और भ्रष्टाचार जैसे मामलों में पश्चिमी देशों का दर्जा भारत से उपर नहीं हो सकता।

मूल्यांकन करने वाली पश्चिमी संस्थाओं की राजनीति को समझना आवश्यक है। इन्हीं संस्थाओं ने पूरी दुनिया में नकारात्मक माहौल बनाकर लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता के सामने से नरेंद्र मोदी का विकल्प समाप्त करने की कोशिश किया था। भारतीय मतदाताओं ने इस प्रयास को असफल कर दिया। लेकिन रेटिंग करने वाली संस्थाओं की राजनीति में कोई बदलाव नहीं आया है। भारतीय बुद्धिजीवियों को रेटिंग के पीछे के इस राज की जानकारी होनी चाहिए ताकि वे पूरे परिपेक्ष्य  में अ‍ेपने देश को और पूरी दुनिया को समझ सकें। धीरे-धीरे भारत समेत ब्रिक्स-बेसिक देशों को अपना स्वतंत्र सूचना, संचार, मूल्यांकन और बौद्धिक तंत्र विकसित करना होगा। रेटिंग संस्थाओं के नतीजों के नकारात्मक निहितार्थों से बचने का यही एक तरीका है।

(लेखक लखनऊ विश्लविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष हैं।)