बनवारी

बाइस वर्ष लंबे राजनीतिक संघर्ष के बाद इमरान खान को पाकिस्तान की सत्ता का शिखर छूने में सफलता मिल गई है। इसमें कितना उनका पुरुषार्थ है, कितना सेना की सहायता, कहना मुश्किल है। पिछले आम चुनाव में उनकी पार्टी को नवाज शरीफ की पार्टी के बाद सबसे अधिक वोट मिले थे। हालांकि वह उसके अनुपात में सीट नहीं जीत पाई थी। इसलिए उनकी पार्टी की अपनी लोकप्रियता थी। लेकिन वे केवल अपनी लोकप्रियता के आधार पर जीत सकते तो सेना के इतने खुले समर्थन और मतदान से पहले और मतदान के समय उन्हें जिताने की सेना द्वारा की गई कोशिशों के बावजूद वे बहुमत पाने से रह न जाते। उनकी पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और उसे नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग के मुकाबले 40 लाख वोट अधिक मिले। लेकिन सफलता तभी तक मायने रखती है, जब तक उनमें और सेना में सहयोग और तालमेल बना रहता है। पाकिस्तान की सेना का सहयोग इमरान खान की शक्ति भी है और सीमा भी। शक्ति इस अर्थ में कि जब तक उन्हें सेना का वरदहस्त प्राप्त है, उनकी सरकार टिकी रहेगी। उनके पास अपना बहुमत न हो, सेना का प्रत्यक्ष और परोक्ष दबाव उनके लिए संसद में बहुमत जुटाए रखेगा। लेकिन लोगों के वोट से चुना हुआ कोई प्रधानमंत्री अगर सेना की वैसाखी का सहारा लिए रहने के लिए मजबूर हो तो लोगों में वह अपनी लोकप्रियता टिकाए नहीं रख सकता। इमरान खान सेना और पाकिस्तान के लोगों दोनों का भरोसा कैसे बनाए रख पाते हैं, यह उनकी सबसे बड़ी चुनौती है।
पिछले लगभग एक-डेढ़ वर्ष में सेना ने उन्हें सत्ता तक पहुंचाने के लिए जो किया, वह सत्ता में पहुंचने के बाद उनका सिरदर्द साबित हो सकता है। सेना जानती थी कि अगर निष्पक्ष चुनाव होने दिए गए तो नवाज शरीफ की पार्टी को सत्ता में पहुंचने से रोकना मुश्किल होगा। इसलिए उसने सबसे पहले नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग और बिलावल भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेताओं पर दबाव बनाना शुरू किया। दोनों पार्टियों के अनेक कद्दावर नेता अपनी पार्टी छोड़कर इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पाकिस्तान में शामिल होने के लिए मजबूर किए गए। इस तरह इमरान खान की पार्टी के जो सांसद चुनकर आए हैं, वे सबके सब इमरान खान के अनुयायी नहीं हैं। अगर इमरान खान की सरकार पाकिस्तान के लोगों की अपेक्षाओं पर खरी न उतरी और उसका समर्थन डांवाडोल होने लगा तो ये सभी लोग जो सेना के दबाव में इमरान खान की पार्टी में शामिल हुए, असहयोग आरंभ कर सकते हैं। पाकिस्तान की दोनों मुख्य पार्टियों ने इमरान खान की विजय को धांधली बताते हुए चुनाव के नतीजों को स्वीकार करने से इनकार किया है। लेकिन वे संसद की कार्यवाही में भाग लेंगी और इमरान खान के लिए मुसीबत पैदा करती रहेंगी। उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए संसद में अपना उम्मीदवार भी खड़ा करने की घोषणा की, लेकिन वह सब इमरान खान के सामने एक राजनीतिक चुनौती बनाए रखने के लिए था। कम से कम अभी इमरान खान को विपक्षी दलों और सांसदों से कोई खतरा नहीं है।
पाकिस्तान के लोगों ने पहली बार किसी पठान को मतदान में लगभग बहुमत दिलाकर सत्ता तक पहुंचाया है। अब तक लोकप्रियता के मामले में या तो पंजाबी नेता आगे रहे हैं या सिंधी। सबसे ताकतवर और लोकप्रिय प्रधानमंत्री के तौर पर जुल्फिकार अली भुट्टो का नाम लिया जाता है। उन्हें सेना ने सूली पर लटकवा दिया था। उनकी बेटी बेनजीर भुट्टो को भी व्यापक समर्थन और लोकप्रियता मिली। लेकिन उनकी हत्या कर दी गई और बहुत लोगों का शक है कि उसके पीछे जनरल परवेज मुशर्रफ का हाथ था। पंजाब की शक्ति पर नवाज शरीफ सत्ता की सीढ़ियां चढ़े। वे तीन बार प्रधानमंत्री बने और तीनों बार सेना के प्रत्यक्ष या परोक्ष दबाव के कारण उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ी। इसलिए इमरान खान को अपनी लोकप्रियता का कोई गुमान नहीं हो सकता। अभी तक वे सेना की सभी नीतियों के हिमायती ही रहे हैं। एक पठान होने के नाते उन्हें तालिबान के बारे में अपना और अपनी सरकार का रुख साफ करना पड़ेगा। अब तक वे तालिबान की भी हिमायत करते रहे। इसके कारण उनका नाम तालिबान खान पड़ गया। लेकिन सत्ता में पहुंचकर तालिबान की हिमायत करना आसान नहीं होगा। कुछ लोगों का मानना है कि तालिबानी नेतृत्व से अब तक रही उनकी नजदीकी अमेरिकियों के काम आ सकती है। इमरान खान तालिबान और अमेरिकियों के बीच बातचीत शुरू करने की हिमायत करते रहे हैं। अब वे दोनों के बीच सूत्र जोड़ने का काम कर सकते हैं। लेकिन इस तरह के सुझाव वही दे सकता है, जिसे इस समस्या की जटिलता का अहसास न हो। अब तक इमरान खान ने अपनी अमेरिका विरोधी छवि बनाई है। उस छवि से निकलना इतना आसान नहीं होगा।
तालिबान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों तरफ फैले हुए हैं। पाकिस्तान में पठानों की संख्या बीस प्रतिशत यानी चार करोड़ है। अफगानिस्तान में पठान बहुसंख्या में हैं। तालिबान के उदय से पहले पाकिस्तान और अफगानिस्तान के पठान नेता एक होकर एक मजबूत पख्तून राज्य बनाने का सपना देख रहे थे। तालिबान के उदय ने पठानों को एक नई दिशा दे दी और तालिबान के रूप में वे इस्लामी कट्टरपंथ के वाहक हो गए। अब इस पूरे क्षेत्र में आईएस के आने से एक नया अध्याय जुड़ गया है। तालिबान नेतृत्व विदेशी जेहादियों के विरुद्ध था। लेकिन हक्कानी परिवार ने उनकी घुसपैठ करवाई और अब सीरिया और इराक से खदेड़े जा रहे बहुत से आईएस के जत्थे अफगानिस्तान की पहाड़ियों में सक्रिय हो गए हैं। ये सब तत्व किसी एक नेता के पीछे नहीं हैं, इसलिए उनसे बात करना या उनसे कोई समझौता करना आसान नहीं होगा। विपक्ष में रहते हुए इमरान खान पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा को खोलने की हिमायत करते रहे, जबकि पाकिस्तानी सेना 2,300 किलोमीटर लंबी इस सीमा पर बाड़ लगाकर तालिबान की आवाजाही नियंत्रित करना चाहती थी। तालिबान की इमरान खान से जो भी अपेक्षाएं रही हैं, उन्हें सत्ता में पहुंचकर इमरान खान के लिए पूरा करना आसान नहीं होगा। इससे इमरान खान और तालिबान के बीच खाई पैदा हो सकती है। यह भी इमरान खान के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन सकता है। तालिबान से नजदीकी के कारण वे अफगानी नेतृत्व के लिए भी संदेहास्पद बने रहेंगे। इसलिए अब तक की इमरान खान की राजनीति उन्हें सत्ता में पहुंचाने में भले सहायक हुई हो, सत्ता में बने रहने के लिए वह उतनी ही बड़ी समस्या होगी।
सेना चाहेगी कि इमरान खान पाकिस्तान की आर्थिक समस्याएं हल करने में अपना कौशल दिखाएं। लेकिन इमरान खान को कांटों का ही ताज मिला है। पहली समस्या तो कर्ज अदायगी के लिए कर्ज जुटाने की है। पाकिस्तान के पास विदेशी मुद्रा भंडार खतरे के निशान तक पहुंच गया है। उससे केवल दो महीने के आयात का ही भुगतान किया जा सकता है। पाकिस्तान को चीन के कर्ज की किस्त भी अदा करनी है। यह माना जा रहा है कि पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 12 अरब डॉलर के कर्ज के लिए आग्रह करेगा। लेकिन अमेरिका ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अगर यह कर्ज चीन का कर्ज चुकाने के लिए मांगा जा रहा होगा तो मुद्रा कोष उसे नहीं देगा। पाकिस्तान की अपनी वित्तीय स्थिति भी अच्छी नहीं है। उनकी सरकार ऊर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में जो सुधार लाना चाहती है, उसके लिए पैसा नहीं है। इमरान खान की सरकार सेना के खर्च में कटौती कर नहीं सकती। इमरान खान अब तक भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुहिम छेड़े रहे। हालांकि उन्होंने सेना के भीतर के भ्रष्टाचार के बारे में कभी एक शब्द भी नहीं कहा। पर नागरिक जीवन से भ्रष्टाचार समाप्त करना आसान नहीं है। इमरान खान को सत्ता में बने रहने के लिए सभी तरह के लोगों को बर्दाश्त करना पड़ेगा। इसलिए उनकी सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ भी कोई कारगर और विश्वसनीय कदम नहीं उठा सकती। पाकिस्तान की आंतरिक समस्याएं काफी जटिल हैं। अब पाकिस्तान में भी सत्ता के कई केंद्र उभर आए हैं। सेना एक केंद्र थी ही, अब न्यायपालिका भी सत्ता का एक दूसरा केंद्र बनती जा रही है। पाकिस्तान में आतंकवादी तत्व और मजहबी पार्टियां भी अपने आपको किसी से कम नहीं समझती।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामलों में पाकिस्तान कितना अकेला पड़ गया है- यह इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह से स्पष्ट है। इमरान खान ने नरेंद्र मोदी के 2014 के शपथ ग्रहण समारोह की नकल करते हुए यह जानने की कोशिश की थी कि उनके बुलावे पर कौन से देशों के राष्ट्राध्यक्ष आ सकते हैं। विदेश मंत्रालय ने इमरान खान को बताया होगा कि शायद ही कोई देश इस समय उनका निमंत्रण स्वीकार करे। इस बीच भारत सरकार की ओर से भी घोषणा कर दी गई कि भारत का कोई प्रतिनिधि इमरान खान के समारोह में शामिल नहीं होगा। इसके बाद इमरान खान की पार्टी की ओर से कहा गया कि समारोह को सादा और कम खर्चीला रखने के लिए किसी विदेशी राजनेता को आमंत्रित नहीं किया जा रहा। जबसे पाकिस्तान और अमेरिका के संबंधों में दरार पड़ी है, पाकिस्तान अकेला पड़ता जा रहा है। अमेरिका उससे अपनी अप्रसन्नता दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। किसी समय अमेरिका से दो अरब डॉलर की वार्षिक मदद पाने वाला पाकिस्तान इस वर्ष केवल डेढ़ करोड़ डॉलर पाएगा। अमेरिका एक तरफ भारत को महत्व दे रहा है, दूसरी तरफ पाकिस्तान की उपेक्षा कर रहा है। इमरान खान की अमेरिका विरोधी छवि के कारण दोनों देशों के बीच खाई बढ़ेगी ही। चीन लंबे समय से पाकिस्तान का हितैषी होने का दम भरता रहा है। लेकिन उसकी सबसे बड़ी चिंता औद्योगिक कॉरिडोर है, जिसमें वह 62 अरब डॉलर निवेश कर रहा है। असल में निवेश के नाम पर इसका बड़ा हिस्सा पाकिस्तान पर कर्ज है, जो उसकी आर्थिक स्थिति और बिगाड़ेगा। चीन को सबसे बड़ा डर सीमावर्ती आतंकवादी तत्वों का रहता है। इमरान खान ने चीन के सामने एक नई मांग यह रख दी है कि अपने औद्योगिक कॉरिडोर को वह पंजाब से आगे बढ़ाकर खैबर पख्तूनवा तक ले जाए। चीन इसके खतरे अच्छी तरह जानता है।
भारत अभी न इमरान खान के भरोसे पाकिस्तान से संबंध सुधरने की आशा कर सकता है, न सेनाध्यक्ष कमर बाजवा के भरोसे। इमरान खान के प्रधानमंत्री रहते हुए पाकिस्तानी सेना को नागरिक नेतृत्व से किसी चुनौती की आशंका नहीं है। पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान पर उसका नियंत्रण सुरक्षित है। फिर भी भारत से संबंध सुधारने की पहल कोई ऐसा सेनाध्यक्ष ही कर सकता है, जो पाकिस्तान के दूर तक के भविष्य के बारे में सोचता हो। पाकिस्तान का नागरिक और सैनिक नेतृत्व यह अच्छी तरह जानता है कि वह भारत से कश्मीर प्राप्त नहीं कर सकता। लेकिन अब तक पाकिस्तान की सेना ने भारत से असुरक्षा दिखाकर ही सत्ता पर अपना वर्चस्व बनाए रखा है। अब वह एक समानांतर सत्ता प्रतिष्ठान है और उसने अपना आर्थिक प्रतिष्ठान खड़ा कर लिया है। फिर भी पिछले दिनों पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जिस तरह अकेला पड़ा है, उसके भीतर कुछ मंथन तो शुरू हुआ होगा। केवल चीन के भरोसे पाकिस्तान कब तक रह सकता है। पाकिस्तान के लोगों में चाहे जितना भारत का भय बनाकर रखा गया हो, पाकिस्तान का नागरिक और सैनिक नेतृत्व यह जानता है कि भारत से उसको कोई वास्तविक खतरा नहीं है। उसके आर्थिक हित भी भारत से अच्छा संबंध बनाकर ही सध सकते हैं। लेकिन इसके लिए जिस साहस और दूरदर्शिता की आवश्यकता है, वह न इमरान खान में दिखाई देती है, न पाकिस्तान के सैनिक नेतृत्व में। भारत-पाकिस्तान संबंधों की एक और बड़ी बाधा आतंकवादी तंत्र है, जिसे सैनिक नेतृत्व नियंत्रित करने की कोशिश में एक भस्मासुर पैदा करता जा रहा है। इसलिए कम से कम अभी यह भारत-पाकिस्तान संबंध सुधारने की आशा पालने का समय नहीं है। 