बनवारी

जगनमोहन रेड्डी ने आंध्र की राजनीति में एक तूफान ला दिया है। मनमोहन सिंह सरकार ने 2014 में आंध्र के विभाजन के बाद राजधानी हैदराबाद से वंचित कर दिए गए नए आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की घोषणा की थी। लेकिन चौदहवें वित्त आयोग ने विशेष राज्य का दर्जा केवल पर्वतीय राज्यों को दिए जाने की सिफारिश की और नरेंद्र मोदी सरकार ने उसे स्वीकार कर लिया। बदले में मोदी सरकार आंध्र को विशेष आर्थिक पैकेज देने की घोषणा कर चुकी है। चंद्रबाबू नायडू ने इसे स्वीकार भी कर लिया था, लेकिन जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस आंध्र के लिए विशेष दर्जे की मांग पर अड़ी हुई है। साल भर के भीतर आंध्र विधानसभा के भी चुनाव होने हैं और लोकसभा के भी। इन चुनावों को ध्यान में रखकर पिछले वर्ष नवंबर में जगनमोहन रेड्डी ने प्रजा संकल्प यात्रा आरंभ की थी। यह यात्रा छह महीने चलने वाली है और इस यात्रा के दौरान जगनमोहन रेड्डी आंध्र के मुख्यत: ग्रामीण क्षेत्रों से होकर तीन हजार किलोमीटर पैदल यात्रा करने वाले हैं। जगनमोहन रेड्डी की अब तक की यह यात्रा काफी सफल रही है। उससे उत्साहित होकर उन्होंने आंध्र के लिए विशेष दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर अपना रुख और कड़ा कर लिया है। उन्होंने घोषणा की है कि मोदी सरकार ने आंध्र की जनता को दिए गए वचन का पालन नहीं किया। इसलिए उनकी पार्टी संसद में सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाएगी। अगर केंद्र सरकार उनकी मांग मानने के लिए तैयार न हुई तो बजट सत्र की समाप्ति पर उनके सभी सांसद इस्तीफा दे देंगे।
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में भाजपा की हार ने अब तक निराश बैठे विपक्षी दलों में जान फूंक दी है। मोदी सरकार को घेरने के विचार से उन्होंने वाईएसआर कांग्रेस के अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन करने की घोषणा की। राज्य में विशेष दर्जे के पक्ष में हवा बनती देख चंद्रबाबू नायडू भी अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए विवश हो गए। उन्होंने केंद्र सरकार से अपने मंत्रियों का इस्तीफा दिलवा दिया। बदले में भाजपा के मंत्री भी नायडू सरकार से बाहर हो गए। उसके बाद तेलुगू देशम के एनडीए में रहने की गुंजाइश नहीं बची और चंद्रबाबू नायडू ने एनडीए छोड़ने की घोषणा कर दी। राज्य में वाईएसआर कांग्रेस, वामपंथी दलों, आम आदमी पार्टी, जनसेना और युवा संगठनों ने आंदोलन को तेलंगाना आंदोलन जैसा स्वरूप देने के लिए एक संयुक्त संघर्ष समिति बना ली और आंदोलन का एक व्यापक कार्यक्रम घोषित कर दिया गया। इसमें ओएनजीसी, गेल, एचपीसीएल जैसे केंद्रीय प्रतिष्ठानों को घेरने, राज्य के सभी प्रमुख मार्गों पर समय-समय पर धरना देकर रास्ता रोकने, सरकारी कामकाज बाधित करने आदि की घोषणा की गई है। इससे मोदी सरकार कठिनाई में पड़ेगी और आंध्र में भाजपा की स्थिति खलनायक जैसी हो जाएगी। विपक्षी दलों का उद्देश्य भाजपा को घेरना और उसके विजय अभियान को रोकना है और कम से कम अभी उन्हें इसमें सफलता मिलती दिखाई दे रही है।
विपक्षी दलों की इस अवसरवादिता से आंध्र को विशेष दर्जा दिलाने के आंदोलन ने जो स्वरूप ले लिया है, उसकी अपेक्षा स्वयं जगनमोहन रेड्डी और उनकी पार्टी ने भी नहीं की थी। जगनमोहन रेड्डी 2019 का चुनाव जीतने के लिए अपने पिता स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी की बनाई लीक पर चल रहे थे। तेलुगू देशम 1994 में दोबारा सत्ता में आई थी और अगले दस वर्ष तक उसकी सरकार रही थी। 2004 में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के नेता के रूप में राजशेखर रेड्डी ने तीन महीने सघन पदयात्रा करके व्यापक जनसमर्थन जुटाया था। राजशेखर रेड्डी लोकप्रिय नेता थे और उनकी इस पदयात्रा के फलस्वरूप 2004 का चुनाव कांग्रेस जीत गई थी। चंद्रबाबू नायडू को उसके बाद अगले दस वर्ष तक सत्ता से बाहर रहना पड़ा था। आंध्र के विभाजन के बाद 2014 के विधानसभा चुनाव में तेलुगू देशम को फिर बहुमत मिल गया। लेकिन वाईएसआर कांग्रेस को भी अच्छी सफलता मिली और वह कांग्रेस से तिगुनी से अधिक सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी दल हो गई। जगनमोहन रेड्डी तब से अगले चुनाव की तैयारी में लगे हैं। आंध्र को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग उन्होंने उठाए रखी। लेकिन स्वयं जगनमोहन रेड्डी को भी यह विश्वास नहीं था कि यह मांग राज्य की राजनीति में एक तरह का धु्रवीकरण कर देगी। चंद्रबाबू नायडू 2014 का चुनाव भाजपा से मिलकर लड़े थे। अपनी साख और सरकार बचाने के लिए उन्होंने आंदोलन का रुख केंद्र सरकार के खिलाफ मोड़ने के लिए ही एनडीए छोड़ने और अविश्वास प्रस्ताव को समर्थन देने का फैसला किया था। उन्होंने यह भी घोषित किया है कि वह विपक्षी दलों के इस आंदोलन को बिना उसमें पड़े समर्थन देंगे।
राज्य में कांग्रेस की विचित्र स्थिति हो गई है। 2009 में तेलंगाना आंदोलन को कांग्रेसी मुख्यमंत्री चिन्ना रेड्डी ने हवा दी थी। बाद में वह आंदोलन चंद्रशेखर राव के हाथ में आ गया और आज वे उसी के कारण तेलंगाना के मुख्यमंत्री हैं। 2014 में आंध्र का विभाजन करते हुए कांग्रेस ने सोचा था कि इसका श्रेय उसी को मिलेगा। 2009 से 2014 तक आंध्र में और केंद्र में भी उसी की सरकार थी और आंध्र के विभाजन की रूपरेखा उसी के नेताओं ने बनाई थी। लेकिन जब 2014 के विधानसभा और लोकसभा चुनाव हुए तो दस वर्ष से आंध्र और केंद्र की सत्ता में बैठी कांगे्रस हवा में उड़ गई। पिछले विधानसभा चुनाव में 36 प्रतिशत से अधिक वोट पाने वाली कांग्रेस 11.5 प्रतिशत वोट में सिमट गई। कांग्रेस के मतों का विभाजन करके जगनमोहन रेड्डी अपनी पार्टी को लगभग 28 प्रतिशत वोट दिलाने में सफल रहे। आंध्र और तेलंगाना दोनों जगह गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। आंध्र में तो भाजपा के गठजोड़ की ही सरकार बनी थी। तेलंगाना की चंद्रशेखर राव की सरकार ने भाजपा और कांग्रेस दोनों से अपनी दूरी बना रखी है। अपने कांग्रेस विरोध के कारण चंद्रशेखर राव 2019 के आम चुनाव के लिए तीसरे मोर्चे के गठन में लगे हैं और ममता बनर्जी के बुलावे पर कलकत्ता हो आए हैं। विशेष दर्जे के इस आंदोलन से कांग्रेस को शायद ही कोई लाभ हो, लेकिन फिर भी वह किनारे में खड़ी इस मांग को समर्थन दे रही है।
राज्य में कांग्रेस की इस दुर्गति के लिए कांग्रेस हाईकमान और उसकी नीतियां ही जिम्मेदार रही हैं। 1953 में राज्य के रूप में आंध्र प्रदेश के गठन के बाद 1983 तक तीस साल राज्य में कांग्रेस का शासन रहा। राज्य में नीलम संजीव रेड्डी, ब्रह्मानंद रेड्डी और नरसिम्हा राव जैसे मुख्यमंत्री हुए थे। कांग्रेस आलाकमान ने राज्य के शक्तिशाली नेताओं को कभी बर्दाश्त नहीं किया। इसलिए कांग्रेस हाईकमान का राज्य की राजनीति में निरंतर हस्तक्षेप होता रहा। 1978 से 1983 तक के पांच वर्ष में पांच मुख्यमंत्री बदले गए। इससे राज्य में यह धारणा बनी कि कांग्रेस हाईकमान आंध्र के नेताओं को अपमानित कर रही है। अभिनेता नंदमूरितारक रामाराव को कांग्रेस से पैदा हुए इस असंतोष का लाभ उठाने का मौका मिल गया। उन्होंने 29 मार्च 1982 को तेलुगू देशम पार्टी बनाई और 1983 में हुए चुनाव में 54 प्रतिशत वोट और 294 में से 201 सीट जीतकर वह सत्ता में पहुंच गई। कांग्रेस साढ़े बाईस प्रतिशत वोट और साठ सीटों में सिमट गई। इसी तरह 2004 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो वाईएस राजशेखर रेड्डी मुख्यमंत्री बने। वे एक कुशल और लोकप्रिय मुख्यमंत्री साबित हुए। लेकिन 2009 में एक हेलिकॉप्टर दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी लोकप्रियता को राजनीतिक समर्थन में बदलने के लिए जब उनके बेटे जगनमोहन रेड्डी ने श्रद्धांजलि यात्राएं आयोजित करने की कोशिश की तो उन्हें कांग्रेस हाईकमान द्वारा रोक दिया गया। मजबूर होकर 2011 में जगनमोहन रेड्डी ने कांग्रेस छोड़ दी और वाईएसआर कांग्रेस बना ली। राज्य में अब वही मुख्य कांग्रेस हो गई है।
राज्य में चंद्रबाबू नायडू की राजनीतिक स्थिति भी काफी जटिल हो गई है। उनके राजनीतिक जीवन में काफी उतार-चढ़ाव आए हैं। 1983 में जब नंदमूरितारक रामाराव पहली बार चुनाव के मैदान में उतरे थे तो उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू कांग्रेस में थे। उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था और तेलुगू देशम उम्मीदवार के हाथों पराजित हो गए थे। उसके बाद वे अपने ससुर रामाराव की पार्टी में आ गए। रामाराव को सालभर में ही पार्टी के भीतर नंदेला भास्कर राव का विद्रोह झेलना पड़ा। वह पार्टी में विभाजन करवाकर कांग्रेस की मदद से मुख्यमंत्री हो गए, लेकिन महीनेभर में ही उन्हें गद्दी छोड़नी पड़ी। चुनाव हुए और रामाराव की सरकार फिर बन गई। इस दौर में चंद्रबाबू नायडू की कुशलता से प्रभावित होकर रामाराव ने उन्हें पार्टी का महासचिव बना दिया। 1989 के चुनाव में रामाराव कांग्रेस से हार गए लेकिन 1994 में वे फिर चुनाव जीत गए। इस बार सालभर के भीतर चंद्रबाबू नायडू ने यह कहकर उनका तख्ता पलट दिया कि वे अपनी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती को शासन सौंपने की तैयारी कर रहे थे। सालभर बाद रामाराव की मृत्यु हो गई और तेलुगू देशम पर चंद्रबाबू नायडू का एकछत्र अधिकार हो गया। केंद्र में वाजपेयी सरकार थी तो नायडू संयुक्त मोर्चा छोड़कर एनडीए में शामिल हो गए। 2004 में केंद्र में कांग्रेसी सरकार बनी तो उन्होंने एनडीए छोड़ दी और 2013 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की वापसी भांपकर फिर एनडीए में शामिल हो गए। अब वे वाईएसआर कांग्रेस के आंदोलन से विवश होकर फिर एनडीए से अलग हुए हैं।
चंद्रबाबू नायडू और जगनमोहन रेड्डी दोनों व्यवसायी से राजनेता बने हैं। चंद्रबाबू नायडू महत्वाकांक्षी नेता हैं और तेज विकास और बड़ी योजनाओं के पक्षधर रहे हैं। खेती में वे छोटे किसानों की कोई जगह नहीं देखते और कृषि क्षेत्र में बड़ी कंपनियों को सहूलियतें दिए जाने के पक्षधर रहे हैं। अपनी इन्हीं नीतियों के कारण 2004 के चुनाव में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था। अलबत्ता हैदराबाद को एक आधुनिक शहर बनाने और उसे आईटी हब बनाने का श्रेय चंद्रबाबूनायडू को ही दिया जाता है। हैदराबाद के तेलंगाना में चले जाने के बाद उन्होंने अमरावती नाम से एक नई और भव्य राजधानी विकसित करने की घोषणा की थी। उनकी इस और अन्य योजनाओं के लिए बहुत अधिक साधनों की आवश्यकता है। केंद्र ने राज्य के विभाजन के समय आंध्र को विशेष दर्जा देने का वचन दिया था। लेकिन चौदहवें वित्त आयोग के निषेध के बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली ने 9 सितंबर 2016 को उसकी जगह राज्य को एक विशेष पैकेज देने की घोषणा की थी। उसके अंतर्गत उन्हें विशेष दर्जे के बराबर ही साधन मिलने थे। साधन देने के स्वरूप पर ही केंद्र और राज्य सरकार में बात हो रही थी। नायडू सरकार का आग्रह था कि साधन नाबार्ड के माध्यम से उपलब्ध किए जाएं। लेकिन इसी बीच वाईएसआर कांग्रेस के आंदोलन ने पासा पलट दिया। चंद्रबाबू नायडू के पास विकल्प अधिक नहीं है। भाजपा से उन्होंने हाथ छुड़ा लिया है और कांग्रेस का हाथ पकड़ना उनके लिए न आसान है, न अभीष्ट।
जगनमोहन रेड्डी ने 45 साल की आयु में ही राजनीति के काफी गुर सीख लिए हैं। अपने पिता की तरह वे छोटे किसानों, गरीब मजदूरों और युवाओं की हिमायत करते हुए पदयात्राएं कर रहे हैं। जगनमोहन रेड्डी एक ईसाई परिवार से हैं, लेकिन उनका परिवार कभी उसका उल्लेख नहीं होने देता। अपनी प्रजा संकल्प यात्रा शुरू करने से पहले जगनमोहन रेड्डी तिरुपति में बालाजी का आशीर्वाद लेने गए और वहां से वे कड़पा की दरगाह पर गए। अब तक उनके और भाजपा के बीच गठजोड़ की कोशिश चल रही थी। भाजपा की राज्य इकाई चंद्रबाबू नायडू की गिरती साख और मनमाने रवैये से दुखी रही है और वाईएसआर कांग्रेस से गठबंधन करने की बात सोचती रही है। राज्य में भाजपा की अधिक शक्ति नहीं है। अब आने वाले चुनाव के ख्याल से उसकी स्थिति और जटिल हो गई है। लेकिन 2019 के चुनाव में पवन कल्याण ने अपनी पार्टी जनसेना को मैदान में उतारने की घोषणा की है। वे अभिनेता चिरंजीवी के छोटे भाई है। चिरंजीवी ने प्रजा राज्यम पार्टी बनाकर 2009 का चुनाव लड़ा था और उनकी पार्टी को 16 प्रतिशत वोट मिले थे। बड़ी सफलता न मिलने के कारण 2011 में सोनिया गांधी से बात करके उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया। उस समय पवन कल्याण प्रजा राज्यम पार्टी के युवा संगठन के प्रभारी थे। वे कांग्रेस में नहीं गए। 2012 में पवन कल्याण ने अपनी जनसेना पार्टी बनाई, 2014 के चुनाव में उन्होंने तेलुगू देशम और भाजपा का समर्थन किया। अब वे आंध्र को विशेष दर्जा दिलाने के आंदोलन में कूद पड़े हैं। उनकी सभाओं में भी काफी लोग आ रहे हैं। इसलिए 2019 के चुनाव में चार बड़ी पार्टियां मैदान में होंगी।
सत्ता पलटने के इस खेल में देशहित और राजनीतिक मर्यादाएं भुला दी जा रही हैं। आंध्र के विभाजन से जो समस्याएं पैदा हुई हैं और नए राज्य की राजधानी और अन्य तंत्र खड़ा करने के लिए जो साधन चाहिए, उनका इलाज किसी के पास नहीं है। केंद्र भरसक मदद के लिए तैयार है। लेकिन अगर आंध्र को विशेष दर्जा देने की बात मान ली जाती है तो अन्य अनेक राज्य ऐसी ही मांग उठाएंगे। बिहार काफी समय से विशेष दर्जा दिए जाने की मांग करता रहा है। और भी अनेक राज्य विशेष दर्जा दिए जाने की मांग करना चाहेंगे। साधनों की इस राजनीतिक खींचतान का हमारे वित्तीय ढांचे पर काफी बुरा असर पड़ेगा। यह बात सभी दल समझते हैं। लेकिन क्षेत्रीय पार्टियां ही नहीं, कांग्रेस और वामपंथी दल भी इस समय मोदी सरकार को घेरने के लिए आंध्र की इस मांग का समर्थन कर रहे हैं। यह अवसरवादी विपक्षी राजनीति है और इसके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे। 