संध्या द्विवेदी

सोने के सिक्कों, चांदी के सिक्कों की अर्थव्यवस्था। अनाज के बदले जरूरत की चीजों को खरीदने की अर्थव्यवस्था। गिलट के, एल्युमिनियम के, लोहे के सिक्कों की अर्थव्यवस्था। कागज के नोटों की अर्थव्यवस्था। अब कुछ ही प्रतिशत सही पर प्लास्टिक के कार्ड की अर्थव्यवस्था। इस अर्थव्यवस्था को बिना नकदी की अर्थव्यवस्था कहते हैं। जहां रकम का स्वरूप कागज या कोई धातु न होकर इलेक्ट्रॉनिक हो जाता है। यानी अर्थव्यवस्था एक बार नहीं बल्कि कई बार बदली है। या यों कहें कि अर्थव्यवस्था परिवर्तनीय है। अर्थव्यवस्था की इस परिवर्तनीय व्यवस्था का जिक्र इसलिए जरूरी था क्योंकि नोटबंदी के बाद देश में कैशलेस इकोनॉमी यानी नकदी विहीन अर्थव्यवस्था की चर्चा जोरों पर है। फरवरी में केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी इसका जिक्र किया तो कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में भी इसका जिक्र किया था। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि नकदी अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाने की बात कही गई है, न कि कोई तुगलकी फरमान जारी किया गया है। कैशलेस इकोनॉमी का जिक्र होने के बाद अर्थशास्त्री दो धड़ों में बंट गए। एक धड़ा इसका धुर विरोधी है तो दूसरा धड़ा इसका समर्थक।

लोग आगे आकर अपनाएंगे
सीआरआईएसआईएल यानी क्रेडिट रेटिंग इनफॉर्मेशन आॅफ इंडिया लि. के चीफ इकोनॉमिस्ट डी.के. जोशी नकदी अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ते कदमों को अर्थव्यवस्था के लिए सकारात्मक बदलाव मानते हैं। उनसे जब पूछा गया कि क्या भारत जैसे देश में कैशलेस इकोनॉमी मुमकिन है? तो उनका जवाब था, ‘बिल्कुल मुमकिन है। पूरे विश्व में इस तरह की अर्थव्यवस्था के उदाहरण मौजूद हैं। आप कीनिया को देखिए जहां मोबाइल बैंकिग का इस्तेमाल बहुत होता है। एक नहीं ऐसे कई उदाहरण हैं। देश के भीतर स्मार्ट फोन का इस्तेमाल थोपा नहीं गया, मगर शहर की बात तो छोड़ दीजिए गांव में भी लोग स्मार्ट फोन का इस्तेमाल खूब कर रहे हैं। मोबाइल क्रांति हुई तो शहरों में ही सीमित नहीं रही। गांव-गांव तक पहुंची। भारत के लोग टेक्नोलोजी को अपनाना जानते हैं। इस्तेमाल भी करने में किसी से पीछे नहीं हैं। इसलिए जब लोगों को फायदे समझ में आएंगे तो वे आगे बढ़ेंगे। हां, सरकार को इसके लिए कुछ कदम उठाने चाहिए। सबसे पहली जरूरत डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाने की। इंटरनेट, वाईफाई जैसी व्यवस्था के विस्तार और रफ्तार देने की जरूरत है।’

क्या इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत बनाना आसान होगा? इस पर उन्होंने कहा, ‘अगर सरकार चाहे तो क्यों नहीं! दूसरी बात इंफ्रास्ट्रक्चर के अलावा जरूरत है कैशलेस इकोनॉमी को इंसेटिवाइस करने की। जैसे सरकार यह नियम बना सकती है कि अगर दो लाख से ज्यादा रकम जमा करनी है तो इसका इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर ही होगा।’

लेकिन अभी कई जगह इलेक्ट्रॉनिक पेमेंट पर एक्स्ट्रा चार्ज देना पड़ता है तो कैशलेस इकोनॉमी क्या घाटे का सौदा नहीं लगेगी लोगों को? डी.के. जोशी कहते हैं, ‘देखिए हर जगह ऐसा नहीं है। कुछ जगहों पर है, वह भी बंद हो जाएगा। पेटीएम समेत पेमेंट की कई और इलेक्ट्रॉनिक व्यवस्थाएं हैं जिनका कोई चार्ज नहीं है। मैं समझता हूं यूपीआई यानी यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस एक बार पूरी तरह से सक्रिय होने के बाद सबसे कारगर इलेक्ट्रॉनिक पेमेंट का जरिया साबित होगा। सिंगल आइडेंटिटी की इसमें जरूरत होगी। फिर आप पेमेंट ट्रांसफर कीजिए या शॉपिंग। बस लोगों को जागरूक और प्रेरित करने की जरूरत है। और अगर आप पूछें कि जो लोग लिट्रेट नहीं हैं, उनका क्या? तो पहली बात जैसे लोगों को फोन मिलाना सरकार ने नहीं सिखाया पर कम पढ़ा लिखा यहां तक कि गैर पढ़ा लिखा भी सीख गया। वैसे ही लोग इसे भी सीखेंगे। ऐसे परिवारों की संख्या बहुत हैं जहां कम से कम एक व्यक्ति तो पढ़ा लिखा है।’

डी.के. जोशी ने दो बातें साफ कहीं। सरकार को इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत बनाना होगा, रफ्तार देनी होगी और लोगों को प्रेरित करना होगा। और यह कोई साल दो साल में नहीं हो सकता। वक्त लगेगा। कितना समय लगेगा यह अभी आंका नहीं जा सकता। किसी पर जबरन थोपा नहीं जाएगा बल्कि लोगों को इसके फायदे बताए जाएंगे, सिखाया जाएगा। सबसे बड़ी बात यह है कि आपका सारा ट्रांजेक्शन दर्ज होगा। टैक्स चोरी, कालाधन जैसी समस्याओं से निपटने का एक नायाब तरीका साबित हो सकती है कैशलेस इकोनॉमी। डी.के. जोशी के विचारों से एक बात साफ है कि कैशलेस इकोनॉमी न तो नामुमकिन है और न ही नुकसानदेह। बल्कि उलटा यह एक फायदेमंद अर्थव्यवस्था है। लेकिन सरकार को इंफ्रास्ट्रक्चर के स्तर पर तेजी लाने की जरूरत पर इन्होंने भी जोर दिया।

नकदी और अपराध
मशहूर अमेरिकी अपराध विज्ञान के विशेषज्ञ मार्कस फेलसन भी अर्थशास्त्री डी.के. जोशी की बात का समर्थन करते नजर आते हैं। अपराध के कारणों को जानने और उन्हें खत्म करने में महारत हासिल कर चुके फेलसन के मुताबिक ‘कैश इज द मदर मिल्क आॅफ क्राइम’ यानी नकदी अपराध की जनक है। इस अवधारणा को साबित करने के लिए नेशनल ब्यूरो आॅफ इकोनॉमिक रिसर्च के जरिए एक रिसर्च पेपर भी तैयार किया गया है। इसमें फेलसन की अवधारणा के उलट एक हाइपोथिसिस बनाई गई कि ‘इफ कैश मोटिवेट क्राइम, कुड द एब्सेंस आॅफ कैश कैन रियूस क्राइम?’ यानी अगर नकदी अपराध को प्रेरित करती है तो क्या नकदी की अनुपस्थिति अपराध को घटाएगी? जवाब मिला- हां। अमेरिका के एक शहर मिसौरी के 1990 से लेकर 2011 तक के अपराध के आंकड़े लिए गए। देखने को मिला कि जिस दौरान नकदी के विपरीत डेबिट कार्ड यानी इलेक्ट्रॉनिक बेनिफिट ट्रांजेक्शन का इस्तेमाल शुरू हुआ और इस्तेमाल बढ़ा, उस दौरान अपराध की दर भी कम हुई। फेलसन की अवधारणा को साबित करता यह शोध अर्थशास्त्रियों के लिए आंखें खोलने वाला था।

अभी देश तैयार नहीं
जहां एक ओर डी.के. जोशी कैशलेस इकोनॉमी को लेकर बिल्कुल सकारात्मक हैं तो दूसरी ओर अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र सपाट शब्दों में कहते हैं, ‘भारत तो बिल्कुल भी कैशलेस इकोनॉमी के लिए तैयार नहीं है।’ उन्होंने कहा, ‘आप दिल्ली में बैठकर अगर देखेंगे तो हो सकता है आपको कैशलेस इकोनॉमी मुमकिन और लुभावनी लगे। मगर ग्रामीण भारत की तरफ जब नजरें घुमाएंगे तो पाएंगे कि यहां कैशलेस इकोनॉमी के लिए कोई भी तैयार नहीं। इसकी वजह यहां की अर्थव्यवस्था है। यहां खेत में दिहाड़ी मजदूर काम करते हैं। हालांकि दिहाड़ी मजदूर तो शहरों में भी हैं। मगर हम जब भी किसी बदलाव की बात करते हैं तो इस तबके को यूं नजरअंदाज कर देते हैं मानो वे हमारे लिए कोई मायने नहीं रखते। मैं ग्रामीण भारत की बात करता हूं। यहां बटाईदारी की प्रथा है। खेत मालिक अपना खेत किसी को खेती के लिए देता है। इसके बदले वह बटाईदार मेहनत कर जो फसल उगाता है उसका आधा हिस्सा खेत के किराए के रूप में खेत मालिक को देता है। कई बार कांट्रेक्ट होता है खेती का। इसमें आधा नहीं बल्कि मालिक और खेती लेने वाला व्यक्ति मिलकर तय करते हैं कि फसल का कितना हिस्सा मालिक को देना है। मान लीजिए पांच मन गेहूं हुआ तो दो मन मालिक ले लेगा। बाकी अनाज और खर्चा-पानी व मेहनत खेत लेने वाले व्यक्ति की। ऐसी व्यवस्था में कोई कैशलेस भुगतान या लेन देन की बात करे तो कितना अजीब लगेगा। भारत विविध संस्कृतियों वाला देश है। जहां व्यापार, लेन-देन की अपनी व्यवस्था है। बंगाल से लेकर गाजीपुर तक एक व्यवस्था तो उससे आगे अलग, आगरा के आसपास अलग। कहीं रैयतवाड़ी की व्यवस्था है। देश की लगभग पैंसठ फीसदी आबादी गांवों में है। मैं नहीं समझता की कैशलेस इकोनॉमी के लिए हम तैयार हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर की बात करें तो गांवों में आज तक हम सड़कें नहीं दे पाए। बिजली-पानी नहीं दे पाए। ऐसे में कैशलेस इकोनॉमी के लिए जिस इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होती है, उसे मुहैया करवाना सपने देखने जैसा है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि भारत की विविधता भी हमें यह इजाजत नहीं देती कि हम कैशलेस इकोनॉमी की तरफ बढ़ें।

संस्कृति, संसाधन और बदलाव की चाह
गिरीश मिश्र की राय को जरा गंभीरता से देखें तो यह लगता है कि स्वीडन, बेल्जियम या डेनमार्क जैसे देशों की एकरूप संस्कृति और ढांचे से अलग भारत की संस्कृति और ढांचा विविधतापूर्ण है। गिरीश मिश्र जी कहीं न कहीं यह भी कहना चाहते हैं कि केवल संसाधनों की गैरमौजूदगी ही नहीं बल्कि यहां की संस्कृति और लोग भी कैशलेस इकोनॉमी को नहीं अपनाएंगे। वे कहते हैं, ‘हमारे यहां अर्थव्यवस्था की विविधता और संस्कृति हमें कैशलेस इकोनॉमी की इजाजत नहीं देती। वैश्विक फाइनेंसियल सर्विस फर्म (सीआईटीआई) एंड इंपीरियल कॉलेज आॅफ लंदन की एक रिपोर्ट भी मिश्र जी की बात को बल देती दिखाई देती है। इस रिपोर्ट में बताया गया कि कई बार संसाधनों के स्तर पर तो देश कैशलेस इकोनॉमी के लिए तैयार होता है पर सांस्कृतिक स्तर पर नहीं। यानी संसाधनों की कमी नहीं बल्कि उस देश की संस्कृति और लोगों की सोच कैशलेस इकोनॉमी के रास्ते में रोड़ा बनती है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण जर्मनी है जहां कैशलेस इकोनॉमी के लिए सारे सांसाधन मौजूद हैं। पर लोग नकदी आधारित व्यवस्था ही अपनाते हैं। जर्मनी ही अकेला उदाहरण नहीं है। आस्ट्रेलिया में एक लाख लोगों पर एक सौ छाछठ एटीएम ही हैं। लेकिन यहां के लोग कैश आधारित व्यवस्था पसंद करते हैं। इसके विपरीत डेनमार्क में औसतन 54.4 % एटीएम हैं, लेकिनयहां की अर्थव्यस्था तेजी से कैशलेश इकोनॉमी की ओर बढ रही है। कई और देश हैं जहां लोगों का सिक्के और नकदी के प्रति लगाव ज्यादा है। हालांकि यह रिपोर्ट भी कैशलेस इकोनॉमी के फायदों की मजबूती से हिमायत करती है। रिपोर्ट के मुताबिक देश की अर्थव्यवस्था का एक छोटा सा हिस्सा भी अगर कैशलेस हो तो वह वहां की अर्थव्यवस्था को तेज और पारदर्शी बनाता है। यानी एक बात यह रिपोर्ट मजबूती से कहती है कि कैशलेस इकोनॉमी फायदेमंद है। लेकिन हां अर्थव्यवस्था के नए स्वरूप को नकारना या स्वीकारना लोगों के रवैये और संस्कृति पर भी निर्भर करता है। मिश्र जी की बातचीत कहीं न कहीं इस संस्कृति की तरफ भी इशारा करती है। विविध संस्कृति वाला देश भारत संसाधनों के स्तर पर तो कैशलेस इकोनॉमी के लिए तैयार नहीं ही है, साथ ही लोग भी इसे अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर संसाधन उपलब्ध भी करा दिए जाएं तो क्या लोग अपनी पारंपरिक अर्थव्यवस्था को छोड़कर अर्थव्यवस्था के इस बदले स्वरूप को स्वीकारेंगे? यह सवाल अर्थशास्त्री या विशेषज्ञों की बजाए अगर हम आम से लेकर खास लोगों से पूछें तो एक राय सामने आ सकती है। तो क्या लोगों से कैशलेस इकोनॉमी पर चर्चा करनी चाहिए? या फिर संसाधन उपलब्ध कराकर एक विकल्प के तौर पर इस व्यवस्था को उन तक पहुंचाना चाहिए? इन सवालों पर चर्चा से पहले एक और जानेमाने आर्थशास्त्री की बात को सुनते हैं।

यूपीआई (यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस)
इसे 11 अप्रैल 2016 को आरबीआई ने शुरू किया था। अन्य पेमेंट एप्लिकेशन की तरह यहां आपको लॉगइन करने या ओटीपी प्राप्त करने की जरूरत नहीं होगी। न आपको किसी अन्य कार्ड या कार्ड नंबर की जरूरत होगी। यूपीआई एप अपने स्मार्टफोन में डाउनलोड करके एक यूनिक आईडी बनाएं। आईडी बनाने के बाद मोबाइल पिन जेनरेट करना होगा। इस पिन को अपने आधार नंबर से जोड़ना होगा। यूपीआई में आपको अपनी वर्चुअल आईडी अपने बैंक से मिलेगी। अगर आपका फोन नंबर 9876543210 है और खाता एसबीआई में है तो आपका वर्चुअल आईडी 9876543210@एसबीआई हो सकता है।

रुपे कार्ड
भारत की स्वदेशी भुगतान प्रणाली पर आधारित एटीएम कार्ड है। इसे वीजा व मास्टर कार्ड की तरह प्रयोग किया जाता है। अभी देश में भुगतान के लिए वीजा व मास्टर कार्ड के डेबिट कार्ड तथा क्रेडिट कार्ड प्रचलन में हैं। ये कार्ड विदेशी भुगतान प्रणाली पर आधारित हैं। रुपे कार्ड को अप्रैल 2011 में विकसित किया गया था। इसे भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआई) ने विकसित किया है। अभी तक सत्तर लाख कार्ड जारी किए जा चुके हैं।

पेटीएम
इसकी शुरुआत 2010 में यूपी के अलीगढ़ के विजय शेखर नाम के व्यक्ति ने की थी। इसका हेडआॅफिस नोएडा में है। अभी ई-पेमेंट का भारत में सबसे बड़ा बाजार इसी ने खड़ा किया है। इसके एक करोड़ एप डाउनलोड किए जा चुके हैं। दस करोड़ के ई-वैलेट अभी तक बन चुके हैं। कंपनी के सीईओ विजय शेखर ने कहा कि नोटबंदी के दौरान उनके व्यापार में पांच गुना बढ़ोतरी हुई है। मोबाइल में इसका एप डाउनलोड करने के बाद जिसे पमेंट करना है उसका मोबाइल नंबर लेकर या फिर उसके पास मौजूद कार्ड में दिए कोड को स्कैन कर एक क्लिक में पैसा ट्रांसफर किया जा सकता है।
आॅक्सीजन वैलेट
यह भी आनलाइन शापिंग, पेमेंट, मोबाइल रिचार्ज का एक विकल्प है।
इसके अलावा मोबाइल बैंकिंग, इंटरनेट बैंकिंग भी ई-ट्रांजेक्शन के लिए उपयोग में लाए जा रहे हैं।

पेयू
2011 में ई पेमेंट के इस जरिए की शुरुआत हुई। बिना रजिस्टर किए कोई भी व्यापारी इससे पेमेंट स्वीकार कर सकता है। इसके लिए पैन कार्ड बैंक वेरिफिकेशन लेटर या कैंसिल चेक, आधार कार्ड की जरूरत होती है। हालांकि इसमें सौ रुपए में पांच रुपए ट्रांजेक्शन कॉस्ट और टीडीआर के कटते हैं।

अभी दूर की कौड़ी
अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा कैशलेस इकोनॉमी को भारत के लिए दूर की कौड़ी मानते हैं। वह पूछते हैं, ‘कैशलेस यानी प्लास्टिक आधारित अर्थव्यवस्था? जहां हर काम कार्ड से हो। एटीएम हों। हर दुकान में स्वाइप मशीन लगी हो। आपका मतलब इसी अर्थव्यवस्था से है न?’ फिर जवाब देने की बजाए वह एक सवाल पूछते हैं, ‘क्या सरकार यह सब मुहैया करवाएगी? एक ऐसा देश जहां कनेक्टिविटी नहीं। सड़कें नहीं हैं। एक गांव से दूसरे गांव को सड़कें जोड़ती नहीं हैं। ऐसे देश में क्या एटीएम और स्वाइप मशीन पहुंचाना सरकार के लिए आसान होगा? आज भी गांवों में बैंकों के लिए लोगों को ब्लॉक और जिलों में जाना पड़ता है। कई किलोमीटर का सफर और किराया खर्च कर लोग बैंक तक पहुंचते हैं। एटीएम क्या गांव-गांव पहुंचेगा? और अगर कुछ सीमित जगहों तक एटीएम रहेगा तो क्या मशीन तक आने-जाने में आई लागत की भरपाई सरकार करेगी? यह लागत पैसा और समय दोनों ही रूपों में होगी। उन मजदूरों का क्या होगा जो दिहाड़ी कमाते हैं। वे जिस दिन एटीएम जाएंगे उस दिन की दिहाड़ी भी मारी जाएगी। दिहाड़ी का मजदूर बेचारा रोज की कमाई से ही पेट भरता है। उसके पास सेविंग नहीं है। वह कैसे इस कैशलेस इकोनॉमी से तारतम्य बैठा पाएगा? देश की आर्थिक स्थिति का अंदाजा सामाजिक आर्थिक जनगणना रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया था कि पैंसठ करोड़ आबादी ऐसी है जहां एक घर में सबसे ज्यादा कमाऊ आदमी भी पांच हजार से कम कमाता है। सोचिए कि पांच हजार रुपए में एक परिवार कैसे चलता होगा? परिवार अर्थशास्त्र के मुताबिक साढ़े चार लोगों या पांच लोगों का माना जाता है। तो अब प्रति व्यक्ति कितना पैसा खर्च होता है, आप ही समझिए। ऐसी अर्थव्यवस्था को आप कैशलेस करने का सपना कैसे देख सकते हैं? इस वक्त सबसे बड़ी जरूरत है लोगों को जीवकोपार्जन की व्यवस्था देने की, न कि कैशलेस इकोनॉमी का शिगूफा छोड़ने की। अगर कोई कहता है कि काले धन पर रोक लगाने के लिए कैशलेस इकोनॉमी की जरूरत है तो यह फिजूल की बात है। आप पहले पांच सौ करोड़ और दो सौ करोड़ की संपत्ति वालों की संपत्ति का ब्योरा पारदर्शी करें। वे लोग तो नेता-बाबू-बनिया नेक्सस के जरिए सरकार से अपने अधिकार खरीद लेते हैं। एक पंक्ति में कहूं तो हमारे देश की सामाजिक-आर्थिक-वित्तीय और प्रशासनिक व्यवस्था कैशलेस इकोनॉमी को सपोर्ट नहीं करती। अभी यह दूर-दूर तक संभव नहीं है। हमारी जीडीपी का पैंतालिस प्रतिशत असंगठित और छोटे सेक्टर से आता है। नब्बे प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्हें बंधी तनख्वाह नहीं मिलती। आप उन्हें कैसे कैशलेस इकोनॉमी का हिस्सा बनाएंगे?’ अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा की नजर में भारत में कैशलेस इकोनॉमी की राह की मुख्य बाधाएं अर्थव्यवस्था के ज्यादातर हिस्से का असंगठित होना और डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर का न होना है। सामाजिक आर्थिक जनगणना के नतीजों को आधार बनाकर गरीबी की तस्वीर सामने लाकर उन्होंने कैशलेस इकोनॉमी की सोच को पूरी तरह से नकार दिया। उन्होंने सख्ती से कहा, ‘हमें कैशलेस इकोनॉमी की बजाए लोगों को बुनियादी सुविधाएं देने की बात करनी चाहिए।’

पेपर करेंसी आउटडेटेड
काबरा भले ही कैशलेस इकोनॉमी को भारत के लिए मुफीद न मानते हों लेकिन दुनिया के मशहूर अर्थशास्त्री रोल्फ बोफिंगर की नजर में कैश आधारित या पेपर करेंसी आउटडेटेड हो चुकी है। जर्मनी के एक नामचीन साप्ताहिक ‘डेर स्पीगेल’ को दिए इंटरव्यू में रोल्फ बोफिंगर ने साफ कहा, ‘पेपर करेंसी एन एनाक्रोनिज्म एंड द सूनर वी गेट रिड आॅफ देम द बेटर इट विल फॉर एव्रीवन’ (पेपर करेंसी वर्तमान में आउटडेटेड हो चुकी है। जितनी जल्दी हम इससे छुटकारा पा लेंगे उतना ही हम सबके लिए बेहतर होगा)। क्यों भारत के भीतर कैशलेस इकोनॉमी का विरोध करने वाले लोग रोल्फ बोफिंगर जैसे महान अर्थशास्त्री की इस बात से कोई इत्तफाक नहीं रखते? जर्मनी ऐसा देश हैं जहां कैश आधारित अर्थव्यवस्था को महत्व दिया जाता है। लेकिन बोफिंगर जैसे जर्मन अर्थशास्त्री कैशलेस इकोनॉमी को आधुनिक समाज की न केवल जरूरत मानते हैं बल्कि जल्द से जल्द इससे छुटकारा पाने की चेतावनी देते नजर आते हैं। बोफिंगर कहते हैं, ‘कैशलेस इकोनॉमी न केवल समय की बबार्दी रोकती है बल्कि उससे भी ज्यादा ड्रग ट्रैफिकिंग और काले धन पर रोक लगाने का एक नायाब हथियार है।’

डेबिट क्रेडिट कार्ड
 रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया के मार्च 2016 के आंकड़े बताते हैं कि भारत में डेबिट कार्ड की संख्या 6.5 करोड़ है। जबकि क्रेडिट कार्ड की संख्या 25 करोड़ है।
 एटीएम कार्ड की संख्या दो लाख से ज्यादा है। प्वाइंट आॅफ सेल टर्मिनल की संख्या 14.4 लाख है।
 भारत में एक लाख की आबादी में 18.07 एटीएम हैं।
मोबाइल फोन
 जून, 2016 तक भारत में कुल 61 करोड़ मोबाइल फोन उपयोगकर्ता हैं। इनमें महज 30 लाख लोगों के पास 4जी कनेक्शन है। भारत में ज्यादातर मोबाइल उपयोगकर्ता सिर्फ बात करने के लिए फोन का इस्तेमाल करते हैं।
इंटरनेट
 इंटरनेट लाइव स्टेटस वेबसाइट के मुताबिक, इंटरनेट की पहुंच कुल आबादी में 34.8 प्रतिशत है। उत्साहजनक यह है कि इंटरनेट पहुंच की रफ्तार साल दर साल बढ़ रही है। 2015 में यह पहुंच 27 फीसद लोगों तक थी। 2014 में 18 फीसद लोगों तक थी। यानी इंटरनेट की पहुंच लगातार बढ़ रही है।
 नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 12 फीसद लोग ई-मेल भेजना जानते हैं। जबकि 14.2 फीसद लोग इंटरनेट के जरिए टेक्स्ट फाइल भेजना जानते हैं।
 इंटरनेट स्पीड के मामले में विश्व में भारत का 114वां स्थान है। यहां औसत स्पीड सिर्फ 2.8 एमबीपीएस है।
इलेक्ट्रॉनिक पेमेंट
 140 लाख व्यापारियों में से केवल 12 लाख व्यापारियों के पास इलेक्ट्रानिक पेमेंट करने की मशीन है। कनफेडरेशन आॅफ आॅल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) ने पिछले दो सालों से कैशलेस व्यापार के लिए मुहिम छेड़ रखी है। इसी साल से कैट ने 15 अगस्त को कम नकद दिवस के रूप में मनाना शुरू किया है। कैट के नेशनल सेक्रेटरी बी.एस. भरतिया ने कहा, ‘देश के हर राज्य में हमारी शाखा है। हम लगातार सेमिनार और वर्कशाप करके लोगों को कैशलेस व्यापार के तरीकों के बारे में जागरूक कर रहे हैं।’

कैशलेस इकोनॉमी की तरफ बढ़ते देश
 स्वीडन की इकोनॉमी पूरी तरह से कैशलेस होने के बेहद करीब है। यहां की केवल तीन प्रतिशत इकोनॉमी ही कैश आधारित बची है।
 कैशलेस इकोनॉमी के रूप में अफ्रीकी देश सोमालिया उभरता हुआ नाम है। यहां पर मोबाइल बैंकिग सबसे ज्यादा इस्तेमाल होती है। अजीब बात यह कि सोमालिया दुनिया के गरीब देशों में से एक है। साक्षरता दर भी बेहद कम है। बावजूद इसके यहां पर प्रति व्यक्ति महीने में 34 ट्रांजेक्शन आॅनलाइन होते हैं। रेहड़ी वाले से लेकर छोटे व्यापारी तक आॅनलाइन पेमेंट को प्राथमिकता देते हैं। यहां के्रडिट कार्ड भी लोग कम ही इस्तेमाल करते हैं। मोबाइल बैंकिंग सबसे ज्यादा होती है।
 कीनिया आॅनलाइन पेमेंट के मामले में अग्रणी है। यहां पर मोबाइल बैंकिंग चलन में है। एम पैसा एप का इस्तेमाल सैलरी ट्रांसफर, शहरों से गांव में पैसा भेजने, स्कूल फीस जमा करने में होता है।
 कनाडा में 1 जनवरी 2013 के बाद करेंसी प्रिंट नहीं हुई। वजह यहां पर लोग क्रेडिट, डेबिट कार्ड का इस्तेमाल सबसे ज्यादा करते हैं। यहां की सत्तर फीसदी इकोनॉमी प्लास्टिक पेमेंट पर चलती है। जो कि वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा है। प्लास्टिक पेमेंट का वैश्विक औसत चालीस फीसदी है। यहां 90 फीसदी कैशलेस ट्रांजेक्शन होते हैं।
 बेल्जियम में 96, फ्रांस में 92, ब्रिटेन में 89, आस्ट्रेलिया में 86, नीदरलैंड में 85, अमेरिका में 80 और जर्मनी में 76 प्रतिशत कैशलेस ट्रांजेक्शन होते हैं।

कदम तो बढ़ चुका है
सेंट्रल बैंक आॅफ इंडिया के रिटायर्ड चीफ जनरल आॅफ मैनेजर सुनील पंत से पूछा गया कि क्या भारत कैशलेस इकोनॉमी की तरफ कदम बढ़ाने को तैयार है? उनका जवाब था, ‘हम तो कदम बढ़ा चुके हैं। और लोगों ने इस कदम को सराहा है। ध्यान कीजिए आप जब नए-नए एटीएम आए थे, तो लोगों की क्या प्रतिक्रिया थी। उन्हें डर था कि भला एक प्लास्टिक के कार्ड को किसी मशीन में डालने पर पैसा कैसे मिलेगा! मैं उस वक्त नौकरी पर था। मुझे ध्यान है लोग मुझसे लड़ने आए थे कि साहब आपने यह क्या थमा दिया। अफवाहें थीं कि सबकुछ हैक हो जाएगा। लेकिन आज देखिए लोग आसानी से एटीएम का इस्तेमाल कर रहे हैं। जब कोई चीज नई होती है तो भरोसा नहीं बनता। मगर इस्तेमाल करते-करते भरोसा कायम हो जाता है। लोग शहरों ही नहीं गांवों में भी डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल करते हैं। तो भरोसा तो बनते-बनते ही बनता है। अभी करीब दस बैंकों को लाइसेंस दिए गए हैं कि वे कोरिडोर बनाकर कैश ट्रांजेक्शन का ही काम करेंगे। अभी मोबाइल बैंकिंग को लेकर लोगों के मन में डर है, झिझक है। उन्हें लगता है कि कहीं गलत सूचना न भर जाए। पैसा दूसरे के अकाउंट में न चला जाए। मगर जब लोगों को भरोसा दिया जाएगा और यह भरोसा बैंकिंग सिस्टम देगा, सरकार इसके लिए कदम उठाएगी तब धीरे धीरे लोग एटीएम की तरह मोबाइल बैंकिंग को भी स्वाकार करेंगे। कोई माने या न माने, हम कैशलेस इकोनॉमी की तरफ तो बढ़ ही रहे हैं। हां, एकदम से सबकुछ नहीं बदलता पर सामाजिक-आर्थिक बदलाव की प्रक्रिया के तहत बदलाव तो आना ही है। धीरे-धीरे करेंसी इलेक्ट्रॉनिक स्वरूप में बदल ही रही है। प्रतिशत कुछ भी हो मगर यह बढ़ ही रहा है, घट तो नहीं रहा। आज का युग टेक्नोलॉजी का है। इसलिए बदलाव की रफ्तार भी बढ़ेगी। अगर आप मुनाफे के तौर पर देखें तो इलेक्ट्रॉनिक बेनिफिट ट्रांजेक्शन बहुत फायदेमंद है। समय और मेहनत दोनों की बचत होती है। भारत एक उभरती अर्थव्यवस्था है। अर्थव्यवस्था का यह फीचर चुनौती भी है और एक मौका भी। आप कीनिया को देखिए जहां लिट्रेसी रेट बहुत ज्यादा नहीं है। लेकिन वहां कैशलेस इकोनॉमी है। मोबाइल बैंकिंग में विश्व में सबसे आगे है। इसलिए भारत में कैशलेस इकोनॉमी का विरोध यहां की लिट्रेसी रेट के आधार पर करने से पहले कीनिया को देखना चाहिए। जापान की बात करें तो वह एक परिपक्व अर्थव्यवस्था है। इसलिए उससे हम तुलना नहीं कर सकते। हमारा देश अभी विकासशील है। आगे बढ़ रहा है। यहां बहुत कुछ बदल सकते हैं। नई टेक्नोलॉजी को यहां प्रचलन में लाया जा सकता है। देश में इंटरनेट यूजर्स की संख्या तेजी से बढ़ रही है। करीब 33 लाख लोग इंटरनेट का उपयोग करते हैं। मोबाइल यूजर्स की संख्या भी दिनोंदिन बढ़ रही है। कोई कहे कि कैश आधारित अर्थव्यवस्था से हम कैशलेस इकोनॉमी की तरफ यानी इतने बड़े बदलाव की तरफ कैसे बढ़ सकते हैं तो वर्ल्ड इकोनॉमी जब गोल्ड स्टैंडर्ड से सिल्वर पर आई तो लोगों को धक्का लगा था। मगर बदलाव तो आया। फिर अर्थव्यवस्था पेपर में तब्दील हुई। कहने का मतलब यह कि बदलाव तो अर्थव्यवस्था का हिस्सा है। आप इसे रोक नहीं सकते।’

कुल मिलाकर भारतीय अर्थशास्त्रियों का एक धड़ा डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, गरीबी, असंगठित क्षेत्र और संस्कृति को आधार बनाकर कैशलेस इकोनॉमी का विरोध करता दिखाई देता है तो दूसरा धड़ा भारत को उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में देखता है। अर्थशास्त्रियों का यह धड़ा उन बदलावों का उदाहरण देता है जो कि अर्थव्यवस्था में हुए हैं। इनका मानना है कि अर्थव्यवस्था परिवर्तनीय है। भारत के लोग टेक्नोलॉजी को स्वीकारना जानते हैं। जिज्ञासु हैं। स्मार्ट फोन, इंटरनेट यूजर की संख्या का बढ़ना इसका सुबूत है। इनकी राय में अगर सरकार लोगों तक टेक्नोलॉजी पहुंचा पाए, भरोसा बना पाए तो लोग आगे आने को तैयार हैं। हाल ही में कश्मीर में जब इंटरनेट सेवा चार महीने बाद बहाल की गई तो कई युवाओं ने मुझे मैसेज कर खुशी जाहिर की। वे उत्साहित थे कि वह फिर इंटरनेट का इस्तेमाल कर सकेंगे। एक युवा का मैसेज कहीं न कहीं टेक्नोलॉजी की तरफ बढ़ रहे युवाओं के उत्साह और बेकरारी को जाहिर करता है, ‘आप समझ नहीं सकतीं बिना इंटरनेट जिंदगी कितनी नीरस हो जाती है। कितना कट जाते हैं हम लोगों से, दुनिया से।’ यह व्हाट्सएप संदेश उन युवाओं के उत्साह को दर्शाता है जो टेक्नोलोजी के साथ कदमताल करने को बेकरार हैं। मगर दूसरी तरफ सरकार की सुस्त रफ्तार कई सवाल खड़े करती है। बनारस के जयापुर गांव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोद लिया था। फ्री वाई-फाई समेत कई सुविधाएं यहां देने का वादा किया गया था। युवाओं ने सबसे ज्यादा फ्री वाई-फाई की घोषणा पर खुशी जाहिर की थी। लेकिन कुछ ही दिनों बाद वाई-फाई बंद हो गया। सालों से बंद पड़ा वाई-फाई कहीं न कहीं सरकार की असफलता की कहानी कहता है। सवाल भी उठाता है कि जब पीएम के गोद लिए गांव में हम डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर देने में नाकामयाब रहे तो पूरे देश का डिजिटलाइजेशन सरकार कर पाएगी? कैशलेस अर्थव्यवस्था का जिक्र भर काफी नहीं, जरूरत इसके लिए बुनियादी व्यस्था देने की है, तब हम जनता का मिजाज समझ पाएंगे। क्या पता जनता तेज रफ्तार टेक्नोलॉजी आधारित अर्थव्यवस्था को अपनाने में न झिझके। खासतौर से स्मार्टफोन को हाथों हाथ लेने वाला युवा कैशलेस इकोनॉमी को स्वीकार कर खुद को और स्मार्ट बनाने में सबसे पहले आगे आए।