गुलाम चिश्ती।

आमतौर पर पूर्वोत्तर राज्यों की गणना गैर-हिंदी प्रदेशों में होती है। समय-समय पर असम व मणिपुर में हिंदीभाषियों की हत्याएं इस मान्यता को और भी बलवती करती हैं। फिर भी, पूर्वोत्तर भारत के लोग जब अपने किसी पड़ोसी राज्य के लोगों से मिलते हैं तो उनकी संपर्क भाषा हिंदी होती है। उनके लिए हिंदी विचारों के आदान-प्रदान के लिए सबसे आसान माध्यम है। इस मामले में अंग्रेजी अब तक हिंदी की बराबरी नहीं कर पाई है। गुवाहाटी स्थित बी. बरुवा कालेज में हिंदी के प्राध्यापक अरविंद शर्मा ने ओपिनियन पोस्ट को बताया कि हिंदी असम की ब्रह्मपुत्र घाटी को बराक घाटी से जोड़ती है।

आज भी यहां असमिया या बांग्ला भाषा एक-दूसरे के लिए संपर्क की कड़ी नहीं बन पाई हैं, जबकि हिंदी उनके लिए सेतु का कार्य करती है। असम के दो पहाड़ी जिलों (कार्बी आंग्लांग व डिमा हसाऊ) के लोग जब गुवाहाटी, तिनसुकिया, तेजपुर या राज्य के किसी अन्य हिस्से में होते हैं तो उनकी भी संपर्क भाषा हिंदी होती है। कार्बी आग्लांग जिले के निवासी राम शरण चौहान का कहना है कि डिमा हसाऊ जिले के मुख्य शहर हाफलांग के ट्राइबल अपनी मिट्टी से रची-बसी हिंदी बोलते हैं, जिसे हाफलांगी हिंदी कहते हैं। यह दीगर बात है कि हाफलांगी हिंदी अभी तक शोध कार्यों से वंचित है। समझा जाता है कि इस पर अभी तक किसी शोध संस्था की नजर नहीं पड़ी है और यदि पड़ी भी है तो शोध पर कोई विचार नहीं किया गया। नि:संदेह हाफलांगी हिंदी को भी विस्तृत हिंदी परिवार में शामिल किए जाने की आवश्यकता है। ऐसे में केंद्रीय हिंदी संस्थान (आगरा) सहित राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में जुटी संस्थाओं को अपने कार्यों में और भी सुविधा होगी।

असम प्रदेश कांग्रेस समिति (एपीसीसी) के प्रवक्ता रमन झा का कहना है कि असम और हिंदी बहुल राज्यों में गहरा संबंध रहा है। रामायण और महाभारत काल में भी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा या पंजाब जैसे राज्यों से लोग पूर्वोत्तर में आते-जाते रहते थे। उनका यहां के लोगों के साथ धार्मिक, सांस्कृतिक और विवाहेतर संबंध भी स्थापित हुआ। रामायण काल के मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के गुरु वशिष्ठ असम के रहने वाले थे, जिसका नमूना हम गुवाहाटी में वशिष्ठ आश्रम के रूप में देख सकते हैं। महाभारत काल में भीम भी यहां आए थे। उस समय उन्होंने मणिपुर की हिडिंबा से शादी की थी। परिणामस्वरूप उन्हें घटोत्कच जैसे पुत्र की प्राप्ति हुई और उसका पराक्रम महाभारत में वर्णित है। हालांकि हिमाचल के मनाली को भी हिडिंबा और घटोत्कच से जोड़ा जाता है। दूसरी ओर असमिया जाति, सभ्यता व संस्कृति के प्राणतत्व श्रीमंत शंकरदेव के पूर्वज उत्तर प्रदेश के कन्नौज से आकर असम में बसे थे तो असमिया फिल्म के पितामह ज्योति प्रसाद आगरवाला के पूर्वज भी राजस्थान के केड़ से आकर यहां बसे थे। पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के पूर्वज भी उत्तर प्रदेश से आकर असम में चाय बागान चलाते थे। उनका जन्म दिल्ली में हुआ था।

इतिहास के छात्र स्नेहाशीष चक्रवर्ती का कहना है कि मुगल काल और अंग्रेजों के जमाने में देश की हिंदी पट्टी से लोगों का पूर्वोत्तर राज्यों में आने का सिलसिला जारी रहा। अंग्रेजों ने जब असम में चाय बागानों का विस्तार करना शुरू किया तो उस समय अविभाजित बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से लोगों को यहां लाकर बसाया गया, जो अब यहां चाय समुदाय या चाय जनजाति कहे जाते हैं। उनमें से अधिकांश मूल रूप से हिंदीभाषी हैं। परंतु समय के साथ उन्होंने स्थानीय सभ्यता व संस्कृति को अपनाया और यहां की मिट्टी में रच-बस गए। आज वे वृहत्तर असमिया समुदाय के सदस्य हैं। वे सार्वजनिक तौर पर असमिया, बांग्ला, संथाली और उड़िय़ा बोलते हैं। परंतु उनकी जातीय पहचान और संस्कृति हिंदीभाषियों की तरह है। उनके उपनाम में मुंडा, उरांव, मांझी, सिंह, घटोवार, धनोवार, कुर्मी, मल्लाह, ग्वाला और तेली जैसे शब्द लगाए जा रहे हैं। वे अपने घरों में झारखंड और बिहार की लोकभाषाओं का उपयोग करते हैं। आज हाट-बाजार, बस अड्डों, हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों, नाई व धोबी की दुकानों की भाषा हिंदी है। यदि किसी सफाई मजदूर को आमंत्रित करना है तो उसके लिए भी हिंदी की जरूरत है। यदि रिक्शा चालक और दैनिक मजदूरों से बात करनी है तो हिंदी के बिना काम नहीं चल सकता। उल्लेखनीय है कि गुवाहाटी सहित राज्य के विभिन्न इलाकों में कार्यरत नाई, धोबी और सफाई मजदूरों में अधिकांश हिंदीभाषी हैं।

दलित नेता दीनानाथ बासफोर का कहना है कि हमारे पूर्वज बहुत पहले बिहार के गोपालगंज जिले से असम आए थे। आज हमारे काफी लोग सफाई मजदूर के रूप में यहां कार्यरत हैं। हम यहां के जनजीवन में पूरी तरह घुल-मिल गए हैं और अब असमिया भाषा, सभ्यता व संस्कृति हमारी पहचान है। हम वृहत्तर असमिया संस्कृति के अंग हैं। बावजूद इसके, हम अपने परिजनों के साथ हिंदी और भोजपुरी में भी बात करते हैं। गुवाहाटी के लाचित नगर में धोबी का काम करने वाले रामाशीष बैठा का कहना है कि उसके पूर्वज भी बिहार के गोपालगंज से आए थे, परंतु अब गुवाहाटी ही अपना सब कुछ है। बताते चलें कि गुवाहाटी के बड़ी में सफाई मजदूर और धोबी गोपालगंज से जुड़े हैं। दूसरी ओर असम के सफाई मजदूरों में एक बड़ी संख्या राजस्थान से आए सफाई मजदूरों की है, जिनकी नगर में एक अलग ही कॉलोनी बसी है। इनकी भी संपर्क भाषा हिंदी है, जबकि ये घरों में राजस्थानी या मारवाड़ी में बात करते हैं।

बाबूराम पंवार इनके नेता हैं, जो आईएनटीयूसी से जुड़े हैं और इनकी समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर उठाते रहते हैं। इस क्षेत्र में खुदरा से होलसेल तक के अधिकांश व्यापारी हिंदीभाषी हैं। सचिवालय, जिला प्रशासन और पुलिस प्रशासन में कार्यरत अधिकांश अधिकारी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी भी जानते और बोलते हैं। ऐसे में, असम सरकार हिंदी को भले ही अनिवार्य भाषा के रूप में मान्यता न दे, पर हिंदी आज अनिवार्य भाषा बन चुकी है। असम के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी पढ़ाई जाती है। मेघालय और मिजोरम हिंदी शिक्षकों की नियुक्ति कर हिंदी के प्रचार-प्रसार पर विशेष जोर दे रहे हैं। अरुणाचल की संपर्कभाषा पूरी तरह से हिंदी है। सिक्किम में हिंदी और नेपाली का वर्चस्व कायम है। त्रिपुरा में बांग्ला के साथ-साथ हिंदी का उपयोग जमकर होता है। नगालैंड की व्यापारिक राजधानी डिमापुर में हिंदी के उपयोग के बिना वहां का व्यापार नहीं चल सकता।

उल्लेखनीय है कि असम में अधिकांश हिंदी शिक्षक मूलत: असमिया हैं। गौहाटी विश्वविद्यालय से हिंदी में मास्टर डिग्री हासिल करने वाले विद्यार्थियों की संख्या काफी है। दिलचस्प यह है कि इस विद्यालय में सभी हिंदी प्राध्यापक मूलत: असमिया समुदाय से संबंध रखते हैं और उनकी हिंदी किसी हिंदी बहुल प्रदेश के प्राध्यापकों से कमतर नहींं है। गौहाटी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अच्युत शर्मा कहते हैं कि आज हिंदी का दायरा सीमित नहीं रहा। इसे सीखना समय की जरूरत है। भाषाविदों का मानना है कि बांग्ला की अपेक्षा असमिया हिंदी के काफी करीब है। हिंदी के ऐसे सैकड़ों तद्भव शब्द हैं, जिनका असमिया में हूबहू प्रयोग किया जाता है। बांग्ला में जहां संस्कृत के तत्सम शब्दों का उपयोग किया जाता है, वहीं असमिया में हिंदी के तद्भव और देशज शब्दों का भी बाहुल्य है। दूसरी ओर असमिया और हिंदी दोनों का एक सामान्य गुण है कि दोनों की पाचन शक्ति एक जैसी है। इनकी खासियत है कि ये देशी-विदेशी और लोकभाषाओं के शब्दों को भी खुद में पचा लेती हैं। इसलिए असमिया भाषी को हिंदी और हिंदीभाषी को असमिया सीखने में परेशानी नहीं होती। भले ही कोई हिंदीभाषी फर्राटेदार असमिया न बोल पा रहा हो, पर यह सच है कि वे एक दूसरे की भाषा को भलीभांति समझते हैं।

राज्य के विभिन्न ट्राइबल समुदायों में हिंदी के प्रति ज्यादा रुझान है। राज्य की प्रमुख बोडो भाषा की लिपि भी देवनागरी है। इसलिए उन्हें हिंदी पढ़ने-लिखने में असुविधा नहीं होती। असम को छोड़कर मेघालय, नगालैंड, मिजोरम, त्रिपुरा, सिक्किम, अरुणाचल और मणिपुर में भी हिंदी समझने वालों की संख्या काफी है। वर्ष 2009 में तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्यमंत्री अगाथा के. संगामा ने हिंदी में शपथ ग्रहण कर जता दिया था कि मेघालय और पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदी किस तरह लोकप्रिय है। अगाथा के हिंदी के प्रति लगाव की सर्वत्र सराहना की गई थी। वैसे मेघालय, नगालैंड और मिजोरम में सरकार की ओर से अंग्रेजी पर विशेष जोर दिया जाता है। परंतु यह सच है कि इन राज्यों में ट्राइबल समुदाय की सैकड़ों जाति व उपजाति हैं। उनकी भाषा, बोली, पहनावा, खान-पान, रहन-सहन बिल्कुल एक-दूसरे से अलग हैं। ऐसे में उनकी संपर्क भाषा हिंदी होती है। कारण यह कि उनके बीच राज्य स्तर पर ऐसी कोई सर्वमान्य भाषा या बोली नहीं है, जिसका वे संपर्क भाषा के रूप में उपयोग कर सकें। उल्लेखनीय है कि मणिपुर में हिंदी का सर्वाधिक विरोध किया जाता है। वहां हिंदी फिल्मों पर पाबंदी है। आतंकी संगठन हिंदी स्कूलों को संचालित नहीं होने देते। पर उसी राज्य का कोई व्यक्ति गुवाहाटी या पूर्वोत्तर के किसी अन्य इलाकों में जाता है तो उसे हिंदी बोलने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इसका एकमात्र कारण है कि हिंदी बोलने के अलावा उनके पास कोई चारा ही नहीं है। आज उदारीकरण और वैश्वीकरण के युग में दुनिया ग्लोबल विलेज में तब्दील हो गई है। ऐसे में किसी भी राज्य के आतंकी या उग्रवादी अपनी राष्ट्रभाषा की अवहेलना कर अपने राज्यवासियों के लिए उन्नति की राह खोल पाएंगे, इसकी कम संभावना है। समझने की बात है कि पूर्वोत्तर में हिंदी की अपार संभावनाओं के बावजूद इसके विकास के लिए केंद्रीय स्तर पर प्रयास कम हुए। राष्ट्रभाषा के उत्थान के नाम पर केंद्र की राशि की बंदरबांट करने वालों की नजर पूर्वोत्तर की सुंदर वादियों पर क्यों नहीं पड़ी? यदि यहां ईमानदारी के साथ हिंदी का प्रचार-प्रसार किया गया होता तो आज इन राज्यों में आतंकी गतिविधियां उतनी तेजी से नहीं फैलतीं। आज समय-समय पर राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को यहां के कुछ युवकों से राष्ट्र की मुख्यधारा में लौटने का निवेदन नहीं करना पड़ता। बहरहाल, बदलती परिस्थिति में पूर्वोत्तर के कुछ संगठनों को हिंदी के प्रति अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है। वजह साफ है कि पूर्वोत्तर में हिंदी का जनाधार बढ़ता जा रहा है। बताते चलें कि हिंदी के विकास में पूर्वोत्तर के मारवाड़ी समुदाय की सबसे बड़ी भूमिका है।

हिंदी अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन या साहित्यिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों में उनकी अहम भूमिका है। यह सच है कि इस क्षेत्र में हिंदी की पहचान को जिंदा रखने का श्रेय मुख्यत: इसी समुदाय को जाता है। आज यहां सरकारी या गैर सरकारी हिंदी विद्यालयों के संचालन, पुस्तकालयों या वाचनालयों की स्थापना और साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन के नेपथ्य में भी यही पुरुषार्थी समाज है। हिंदी प्रदेशों से बड़े वक्ता, साहित्यकार, धर्माचार्य और कलाकार आज यहां पधार रहे हैं तो इसमें भी इस समाज की अहम भूमिका है। उल्लेखनीय है कि जब से राज्य में भाजपा की सरकार आई है, तब से असम सचिवालय में भी हिंदी को महत्व दिया जाने लगा है।