निशा शर्मा।

हिमाचल एक्सप्रेस एक घंटा लेट चल रही है, यह एक ऐसी ट्रेन है जो बरेली से हिमाचल के अन्दौरा तक चलती है, दिवाली का माहौल था यही कारण की रिजर्वेशन नहीं हो पा रही थी किसी तरह जनरल डिब्बे में में सीट मिली है। रात सो कर गुजर गई लेकिन ठंडी हवा ने एसहास करवाया कि मैं दिल्ली से काफी दूर आ चुकी हूं। किसी तरह रात निकाली। मेरे पास ज्यादा गर्म कपड़े नहीं थे। ट्रेन के जिस कोच में मैं थी वहां दो ही तबके के लोग हैं या वह पहाड़ी हैं या पंजाबी। वैसे भी इन्ही दो तबकों के लोग हिमाचल में ज्यादा रहते भी हैं। सुबंह कड़ाके की ठंड ने सोने तो नहीं दिया सोचा पास बैठे लोगों से बात ही कर लूं। साथ बैठे एक शख्स ने बताया कि वह दिल्ली से आ रहा है, उसका घर हिमाचल में बंगाणा के पास है। उसका भाई आर्मी में है, उसकी ज्यादा तबियत खराब थी। जिसकी वजह से वह बेस अस्पताल में दाखिल है। मैंने पूछा क्या हुआ भाई को तो वह कहने लगा कि कैंसर है। अभी भाई के पास भाभी हैं, त्यौहार का दिन हैं घर में माता-पिता के पास जा रहा हूं, उन्हें अभी भाई के बारे में में जानकारी नहीं दी है। अचानक घर को निकला हूं। टिकट भी नहीं थी, किसी ने कहा कि जनरल की टिकट लेकर स्लीपर में घुस जाना, जब टीटी आए तो उसे कुछ पैसे दे देना तो टीटी स्लीपर में सीट दे देगा। लेकिन जब यहां टीटी आया तो उसने मुझ से टिकट के पैसे के साथ जुर्माना भी ले लिया। इससे अच्छा होता मैं टिकट बुक करवा के ही आता। बाहर भाखड़ा डेम में पानी की आवाज आपका ध्यान अपनी ओर खींच लेती है। ऐसे में एक बुजुर्ग बोल पड़ते हैं कि तुम्हे पर्ची दी जुर्माने की या नहीं तो उस शख्स ने कहा नहीं कोई पर्ची नहीं दी, पर्ची का मुझे क्या करना है मुझे तो सीट चाहिए थी। तो वह हसते हुए कहते हैं कि फिर तो सारे पैसे गए उसकी जेब में।

मैंने पूछा कि अंकल आपने कहां जाना है, तो वह कहने लगे कि देहरा जाना है। मैंने पूछा कि क्या ट्रेन देहरा तक जाती है तो उन्होंने नहीं। मैं ट्रेन से अम्ब तक जाऊंगा, अम्ब से उतर कर टेम्पो लूंगा फिर बस से जाऊंगा। मैंने कहा इतने सामान के साथ आप अकेले इतना सफर कैसे करेंगे तो वह कहने लगे कि अब तो ट्रेन अम्ब तक जाती है, पहले तो नांगल तक ही थी। तब तो बसें भी कम हुआ करती थी। अब हिमाचल की किस्मत ही ऐसी है कि हिमाचल से कोई रेलमंत्री ही नहीं रहा तभी ट्रेन की पटरी यहां चींटी की स्पीड से आगे बढ़ रही है। कोई इस ओर ध्यान ही नहीं देता। एक मुख्यमंत्री (वीरभद्र सिंह) बना उसने एक लकीर खींच कर हिमाचल का दो हिस्सों में बांट दिया। दूसरा मुख्यमंत्री (धूमल) बना उसने अपना ही घर भरा। एक मुख्यमंत्री शांता कुमार था जिसकी अब कोई सुनता ही नहीं है। ऐसे में मरेगा तो कौन हम ही ना। अब पूरी उम्र इसी तरह गुजारी है तो यहां उतरना वहां चढ़ना मुश्किल नहीं लगता। बातों-बातों में हम नांगल से ऊना पहुंचने वाले थे। मैंने सामान समेटा और ऊना उतर गई।

ट्रेन ना होना हिमाचल में एक मुख्य समस्या है। यहां से लोगों को आगे का सफर तय करने के लिए बस का सहारा लेना पड़ता है, यह इकलौती ट्रेन है जो दिन के समय में ऊना पहुंचती है और ट्रेनें तो रात में ऊना पहुंचाती हैं। जिससे महिला यात्रियों को आगे के सफर के लिए बस पकड़ने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यही वजह है कि उन ट्रेनों में ऊना से आगे जाने वाले कम ही लोग सफर करते हैं।

हिमाचल एक्सप्रेस पहले ऊना तक ही आती थी। लेकिन कुछ सालों से इसकी पटरी अंदौरा तक पहुंची है। पहले यह अकेली ट्रेन थी जो हिमाचल के एक बड़े तबके का सफर आसान बनाती थी लेकिन अब दो ट्रेने ओर हैं लेकिन वह सप्ताह में दो ही बार चलती हैं।

ऊना स्टेशन खूबसूरत स्टेशनों में से एक है, यहां ना कोई गंदगी है ना ज्यादा चहल-पहल। ट्रेन के गुजरने के एक घंटे बाद यहां सिर्फ पक्षियों की ही आवाज़ें आती हैं यात्रियों की नहीं। स्टेशन से एक संकरा रास्ता सड़क तक जाता है और बस अड्डे तक पहुंचने में टेम्पो मदद करते हैं। यह टेम्पो कुछ लोगों की गुजर बसर का साधन हैं जो ट्रेन के पहुंचने के समय स्टेशन के बाहर खड़े मिल जाते हैं यही नहीं अगर आपने स्टेशन से बाहर निकलने में थोड़ा समय ज्यादा लगा दिया तो वह टेम्पो भी वहां नहीं मिलेंगे फिर आपको करीब एक किलोमीटर का रास्ता पैदल ही तय करना पड़ेगा। स्टेशन से मुख्य सड़क तक का रास्ता कच्चा है लेकिन जैसे ही आप सड़क तक पहुंचते हैं तो ट्रॉली बैग सरपट दौड़ने लगते हैं।