संध्या द्विवेदी

हरियाणा पंचायती राज विधेयक में हुए संशोधन से नाराज लोग पूछ रहे हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में शैक्षणिक योग्यता मानक क्यों नहीं बनाई गई? पंचायतों में यह शर्त क्या इसलिए लाद दी गई क्योंकि लोकतंत्र की सबसे आखिरी इकाई ग्राम सभा या कहें कि ग्रामीण जनता पर सरकारी और कानूनी चाबुक चलाना आसान है? क्या यह लोकतंत्र में आम जनता को अपना नेता चुनने और चुनाव लड़ने के लिए मिले संवैधानिक हक को छीनने जैसा नहीं है? क्या यह फैसला जनता को नहीं लेने देना चाहिए कि वह किसे अपना मुखिया चुनेगी?

‘मैं कक्षा दो तक पढ़ी हूं लेकिन मैंने अपने इलाके में खूब काम करवाया है। सांच को आंच क्या? आप चाहें तो मेरे इलाके में जाकर लोगों से मेरा रिपोर्ट कार्ड ले सकती हैं। पढ़ा-लिखा होना अच्छी बात है। मगर पढ़ा लिखा मुखिया ही विकास करेगा या सोच गलत है।’ फतेहाबाद जिले के फतेहाबाद खंड की ब्‍लॉक पंचायत समिति के वार्ड नंबर 7 की पंचायत सदस्य राजबाला हरियाणा में पंचायत चुनावों के लिए उम्मीदवारों की शैक्षिक योग्यता तय किए जाने से नाराज हैं। वह कहती हैं कि मैं फिर चुनाव लड़ना चाहती थी। मगर बेहतर काम करने के बाद भी सरकार और कोर्ट ने मुझे अयोग्य करार दे दिया।

suprem-coaurt‘मैंने 2004 में सरपंच का चुनाव लड़ा था। कुछ ही वोटों से हारी थी। फिर 2008 में बीडीसी का चुनाव लड़ा था। इस बार फिर चुनाव लड़ने की तैयारी थी। मगर नए मानकों की वजह से मैं चुनाव लड़ने में अयोग्य हूं।’ हिसार जिले के कैमरी गांव की कमलेश दलित हैं। उन्होंने कहा मैं जिस परिवार से हूं, वहां आज भी लड़िकयों के लिए पढ़ना बहुत मुश्किल है। साक्षरता अभियान के तहत चलने वाली कक्षाओं में पढ़ाई कर लिखना-पढ़ना सीखा। फिर संस्था से जुड़ी और अनुभव पाया। मगर पहले गरीबी ने नहीं पढ़ने दिया। अब सरकार और कोर्ट ने आगे बढ़ने से रोक दिया। लोकतंत्र में जनता की हिस्सेदारी पर चाबुक चलाने वाले इस फैसले ने हरियाणा के एक बड़े हिस्से को चुनाव से बाहर कर दिया।

‘मैं रोजाना कम से कम चार अखबार पढ़ता हूं। मुझे रुचि है यह जानने में कि देश में क्या हो रहा है? क्या हर मैट्रिक पास चार अखबार पढ़ता है?  मैं किसानों की आवाज को सरकार के कानों तक ले जाने का काम करता हूं। पिछले कई सालों से लोग मेरा हौसला बढ़ा रहे थे कि मुझे चुनाव लड़ना चाहिए मगर मैं अब कितना भी जनप्रिय क्यों न रहूं? पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकता हूं। मैं मैट्रिक पास जो नहीं हूं।’ रोहतक जिले के प्रीत सिंह जिले में बेहद लोकप्रिय हैं। किसान अपनी समस्या इनसे कहते हैं। इन समस्याओं को सरकारी महकमे तक प्रीत सिंह बड़े आराम से लेकर जाते हैं। शैक्षिक योग्यता की शर्त के अलावा पक्का शौचालय, बिजली बिल का भुगतान और किसी बैंक की उधारी न होने जैसी शर्तों को भी भारत जैसे देश में पंचायती चुनाव उम्मीदवारी के लिए जरूरी करार देना भी प्रीत सिंह आम जनता के साथ नाइंसाफी मानते हैं।

10 दिसंबर, 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार के पंचायती चुनाव विधेयक में एक बड़े संशोधन के प्रस्ताव के पक्ष में फैसला दिया। इस संशोधित विधेयक के अनुसार अब वही पंचायत का चुनाव लड़ सकता है जो हरियाणा सरकार की चार कसौटियों पर खरा उतरेगा। पहली शैक्षिक योग्यता। इसमें सामान्य श्रेणी के प्रत्याशियों के लिए मैट्रिक पास होना, महिला प्रत्याशी के लिए आठवीं पास होना और पंच पद के लिए अनुसूचित जाति की महिला उम्मीदवार के लिए न्यूनतम योग्यता पांचवी पास रखी गई है। दूसरी योग्यता, घर में पक्का शौचालय होना है। तीसरी योग्यता, बिजली बिल बकाया न हो एवं प्रत्‍याशी पर कोई बैंक लोन न हो। चौथी योग्यता, आपराधिक रिकॉर्ड न हो।

इन सारी शर्तों पर हल्ला मचा मगर शैक्षिक योग्यता पर हंगामा सबसे ज्यादा हुआ। शिक्षा के मामले में सबसे ज्यादा पिछड़े होने के कारण इस मानक के लागू होने की गाज सबसे ज्यादा महिलाओं और दलितों पर ही गिरेगी। हरियाणा में पंचायत चुनाव के पहले चरण के वोट 10 जनवरी को पड़ चुके हैं और दूसरे चरण की वोटिंग 17 जनवरी और आखिरी चरण की वोटिंग 24 जनवरी को होनी है। लोकतंत्र में सबसे बड़ा लोकपर्व चुनाव को माना गया है। इसमें आम से लेकर खास लोगों तक की हिस्सेदारी इसकी वजह है। और जब बात पंचायत चुनावों की हो तो यह पर्व और भी अहम हो जाता है क्योंकि गांव की जनता अपना एक प्रतिनिधि चुनकर लोकतंत्र की जंजीर में सबसे आखिरी और जरूरी कड़ी को जोड़ती है। पंच और सरपंच ही ग्रामीण जनता की आवाज को आगे ले जाने का काम करते हैं। मगर इन पदों के चुनाव के विकल्प बेहद सीमित कर दिए जाएं तो चुनाव लड़ने के संवैधानिक अधिकार पर तो लगाम लगती ही है, साथ ही जनता द्वारा अपना प्रतिनिधि चुनने के हक का दायरा खुद ब खुद सीमित हो जाता है।

राजस्थान में भी 2014 में बिल्कुल इसी तरह अफरा-तफरी में एक अध्यादेश लाया गया था। इसके अनुसार पंचायत समिति और जिला परिषद के चुनाव में कक्षा दस और सरपंच के चुनाव में कक्षा आठ पास, आरक्षित सीटों पर योग्यता कक्षा पांच कर दी गई। इसे पंचायत चुनाव से ठीक कुछ दिन पहले लाया गया था। अब हरियाणा में सरकारी प्रस्ताव पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लगना फिर इसे अध्यादेश बनाकर चुनाव की घोषणा के साथ ही संशोधन की घोषणा करना भी जनता के विरोध से बचने का बेहद चालाक तरीका है। हरियाणा के पंचायती चुनाव को लेकर बहस चल ही रही थी कि विश्व शौचालय दिवस यानि पांच जनवरी को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी निकाय चुनाव और पंचायती चुनाव में उम्मीदवारी के लिए शौचालय होने की शर्त को लागू करने की न केवल बात कही बल्कि पंचायती राज चुनाव विधेयक में जल्द ही संशोधन करने की घोषणा भी की। कुल मिलाकर सरकार हाशिये पर पड़े लोगों को मुख्यधारा में लाने की जगह उन्हें किनारे करने में लगी है।

अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति ने हरियाणा में पंचायती राज विधेयक में किए इस संशोधन के खिलाफ सबसे पहले याचिका डाली थी। इस संस्था की राष्ट्रीय महासचिव जगमति सांगवान ने कहा कि पंचायती राज विधेयक में हुए इस संशोधन को रोकने के लिए हमने अपनी याचिका खारिज होने के बाद अब पुनर्विचार याचिका डाली है। वंचित तबके के अधिकारों को छीनने वाले इस संशोधित विधेयक के खिलाफ हमारी कानूनी लड़ाई जारी है।

 लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ है यह संशोधन

जगमति सांगवान

रियाणा सरकार ने पंचायती राज विधायक में जिस तरह से यह संशोधन किया है, हमारी पहली आपत्ति उस तरीके पर है। यह तरीका लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ है। बिना बहस, बिना जनता की राय के एक ऐसा कानून बना दिया गया जिसका असर आम जनता के एक बड़े हिस्से पर पड़ना है। अगर बदलाव करना भी था तो इसके लिए पहले चर्चा होनी चाहिए थी, पंचायत स्तर पर इसको लेकर सर्वे होने चाहिए थे, लोगों की रायशुमारी जरूरी थी। मगर यहां तो सरकार एकतरफा प्रस्ताव लेकर आ गई। सुप्रीम कोर्ट में जब इसे चुनौती दी गई तो सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकार के आंकड़ों पर भरोसा कर शैक्षिक योग्यता जैसी शर्त पर मुहर लगा दी। राज्य सरकार तो इतनी जल्दबाजी में थी कि मानों आपातकाल लगा हो। इस संशोधन को अध्यादेश के माध्यम से लाया गया। पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने जब अध्यादेश पर स्थगन आदेश दिया तो 7 सितंबर, 2015 को विधानसभा में रात साढ़े आठ बजे, जबकि सत्र खत्म होने का समय होता है, जल्दबाजी में ध्वनिमत से इसे पारित किया गया। वह भी बिना किसी चर्चा के। फिर साढ़े नौ बजे राज्यपाल के पास भेजा गया हस्ताक्षर कराने के लिए।

8 सितंबर, 2015 को सुबह साढ़े नौ बजे चुनाव की घोषणा के साथ ही पंचायती राज चुनाव विधेयक में हुए इस बदलाव की भी सूचना जनता को मिली। बिल्कुल उसी तरह जैसे राजस्थान में बिना बहस और पूर्व सूचना के अध्यादेश लाकर नगर निकायों और पंचायतों में शैक्षिक योग्यता की शर्त लागू कर दी गई थी। सरकार ने ऐसा इसलिए किया ताकि जनता को इसका विरोध करने का समय ही न मिले और न ही अदालत में जाकर फरियाद लगा सके।

पंचायती राज विधेयक में 73वां संविधान संशोधन दलितों, महिलाओं समेत वंचित तबकों को मुख्यधारा में लाने के लिए किया गया था। लेकिन राज्य सरकार का मौजूदा संशोधन तो 73वें संशोधन की मूल अवधारणा के बिल्कुल उलट है। साफ देखा जा सकता है कि संविधान की वंचित तबकों को मुख्यधारा में लाने के अहम मकसद के खिलाफ है यह संशोधन। इस संशोधन के बाद इतनी बड़ी संख्या में लोग चुनाव लड़ने से बाहर हो जाएंगे कि फिर पंचायतों को लोकतांत्रिक संस्थाएं कहना कठिन हो जाएगा। इस संशोधन के बाद शैक्षिक योग्यता की शर्त को पूरा न कर पाने के कारण राज्य की 83 फीसदी दलित महिलाएं चुनाव नहीं लड़ पाएंगी, 71 प्रतिशत सामान्य वर्ग की महिलाएं चुनाव नहीं लड़ पाएंगी, 64 प्रतिशत पुरुष चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। कुल 67 प्रतिशत लोग चुनाव लड़ने लायक नहीं रहेंगे। यह सारे आंकड़े 2011 की जनगणना को आधार बनाकर निकाले गए हैं। यानी केवल 33 फीसदी लोग ही चुनाव लड़ पाएंगे। जबकि सरकार ने जो आंकड़े सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए वह इसके उलट है। सरकारी दस्तावेजों के अनुसार केवल 33 फीसदी लोग ही इस फैसले के बाद चुनाव लड़ने की प्रक्रिया से बाहर होंगे। मैट्रिक पास लोगों को आधार बनाकर यह आंकड़ा बड़ी चतुराई से तैयार किया गया। हम तो बस यह चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट दोनों ही आंकड़ों की जांच कराए। हमारे यह आंकड़े तो केवल शैक्षिक योग्यता के आधार पर हैं जबकि पक्का शौचालय, बिजली बिल, बैंक लोन की शर्त के हिसाब से आंकड़े तैयार किए जाएं तो यह संख्या और भी बड़ी होगी। इस संशोधन के जरिए मतदाता और चुनाव लड़ने के हक को छीना गया है। जबकि जनता को दोनों ही अधिकार संविधान ने दिए हैं।

एक तरफ जहां वोटर के चुनने के हक का दायरा सीमित कर दिया गया, वहीं दूसरी तरफ लोकतंत्र में चुनाव लड़ने के हक पर भी कैंची चलाई गई। अध्यादेश लाकर शैक्षिक योग्यता की शर्त को जनता पर थोपने के तरीके और शैक्षिक आंकड़ों से की गई छेड़छाड़ के जरिए संवैधानिक हक पर हुए हमले के खिलाफ ही हमने पुनर्विचार याचिका डाली है। सरकार जनता को आजादी के इतने सालों बाद भी शिक्षित नहीं कर पाई तो नाकामी सरकार की है न कि जनता की। फिर सरकार की नाकामी की सजा जनता को क्यों दी जा रही है। हमने सरकारी आंकड़ों को चुनौती दी है। सुप्रीम कोर्ट से हमारी अपील है कि वह न तो हमारे आंकड़े को माने और न ही सरकार के। माननीय सुप्रीम कोर्ट को अपनी स्वतंत्र जांच कराकर फैसला सुनाना चाहिए।

(अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की राष्ट्रीय महासचिव ने जैसा ओपिनियन पोस्ट की विशेष संवाददाता संध्या द्विवेदी को बताया)