बनवारी
चुनावी राजनीति में शासकीय उपलब्धियां उतनी प्रभावी सिद्ध नहीं होतीं, जितना लोगों का असंतोष होता है। उसके बाद भी भारतीय जनता पार्टी छठी बार चुनाव जीतकर गुजरात की सत्ता में पहुंच गई, यह साधारण उपलब्धि नहीं है। अब तक केवल पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सात बार विधानसभा का चुनाव जीतकर सत्ता में पहुंची थी। लेकिन मार्क्सवादियों की यह उपलब्धि उस राजनैतिक माफिया के बल पर हुई थी, जो उनके राज में फला फूला था। कालांतर में वह राजनैतिक माफिया ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की ओर चला गया और उसके बल पर आज वह अजेय दिखती हैं। 2002 के गुजरात दंगों के बावजूद गुजरात में ऐसा कोई हिंसक तंत्र नहीं पनपने दिया गया। गुजरात के दस प्रतिशत मुसलमान यहां आज किसी भी और राज्य के मुकाबले अधिक सुरक्षित हैं। इसलिए भाजपा की यह चुनावी उपलब्धि महत्वपूर्ण है। इस बार उसकी सीट अवश्य कम हुई है, लेकिन उसका वोट प्रतिशत पिछले चुनाव से एक प्रतिशत बढ़ा है। उसका वोट प्रतिशत सबसे अधिक 2002 में था, लेकिन वह इस बार के वोट प्रतिशत से 0.8 ही अधिक था। उस बार भाजपा को 49.9 प्रतिशत वोट मिले थे और इस बार उसे 49.1 प्रतिशत वोट मिले हैं। यह हमारी चुनाव पद्धति की विसंगति है कि हिमाचल में भाजपा और कांग्रेस के वोट प्रतिशत में 7.1 प्रतिशत का अंतर था पर भाजपा कांग्रेस को मिली सीटों के दोगुने से भी अधिक सीटें जीत गई और गुजरात में जहां दोनों के वोट प्रतिशत में 7.7 का अंतर था, वहां भाजपा को कांग्रेस से केवल 28 प्रतिशत सीटें ही अधिक मिलीं।

राहुल गांधी ने पिछली बार के मुकाबले इस बार भाजपा को 16 सीट कम मिलने को उसे लगा बहुत बड़ा झटका बताया है। असल में गुजरात चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए झटका होना चाहिए। गुजरात में 6 जुलाई 2015 से पाटीदार अनामत आंदोलन शुरू हुआ था। उसने एक नए युवा नेता हार्दिक पटेल को उभारा। कांग्रेस को इस आंदोलन में भाजपा से सत्ता छीनने की संभावना दिखाई दी। गुजरात सरकार ने पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण से दस प्रतिशत कोटा पाटीदारों के लिए निश्चित करके आंदोलन शिथिल कर दिया। लेकिन गुजरात उच्च न्यायालय ने सरकार के इस फैसले को सही नहीं माना और उसे रद्द कर दिया। इससे पाटीदारों का असंतोष ज्यों का त्यों बना रहा। कांग्रेस ने चुनाव से ठीक पहले हार्दिक पटेल से वायदा किया कि उनकी सरकार बनी तो पाटीदारों को आरक्षण दिया जाएगा। यह बेईमानी से भरा वायदा था क्योंकि उसे पूरा करना संभव नहीं था। इस बीच सौराष्ट्र में उना गांव में दलितों पर हुए हमले के बाद एक दलित आंदोलन खड़ा हो गया। इस आंदोलन के नेता जिग्नेश नटवरलाल मेवानी ने अगस्त 2016 में 20 हजार दलितों को इकट्ठा करके गुजरात सरकार के सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी। हार्दिक पटेल के आंदोलन की प्रतिक्रिया में एक तीसरा असंतुष्ट युवा नेता अल्पेश ठाकुर उभर आया। उसने क्षत्रिय ठाकुर सेना बनाई। कांग्रेस ने इन तीनों युवा नेताओं को अपने साथ ले लिया, जिनके राजनैतिक लक्ष्य एक-दूसरे से उल्टी दिशा में थे। अल्पेश ठाकुर ने कांग्रेस में शामिल होकर चुनाव लड़ा। जिग्नेश मेवानी ने कांग्रेस का समर्थन लिया पर चुनाव निर्दलीय रूप से लड़ा। हार्दिक पटेल कई विवादों में घिर गए थे, इसलिए उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा।
कांग्रेस ने राजनीतिक अवसरवादिता दिखाते हुए इस अनमेल तिकड़ी को आगे किया। भाजपा सरकार को इनके अलावा कपास किसानों का विरोध भी झेलना पड़ रहा था। परंपरागत रूप से कांग्रेस का गढ़ रहे उत्तर गुजरात में भी भाजपा कुछ नई कठिनाइयां महसूस कर रही थी। इन सब परिस्थितियों में कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक संभावना देखी। राहुल गांधी हिमाचल के चुनाव की उपेक्षा करके गुजरात के मैदान में कूद पड़े और उन्होंने सीधे नरेंद्र मोदी पर हमला करना शुरू कर दिया। प्रचार माध्यमों के कुशल उपयोग से कांग्रेस ने कुछ ऐसा माहौल बनाया कि इस बार गुजरात में भाजपा हार रही है। सीएसडीएस के एक सर्वेक्षण में भाजपा और कांग्रेस का समर्थन करने वालों की संख्या बराबर दर्शाई गई। राहुल गांधी ने घोषित कर दिया कि इस बार गुजरात चुनाव के नतीजे आश्चर्यजनक होंगे। इस सबका भाजपा के चुनाव प्रबंधकों पर भी असर हुआ। दोनों ओर से आरोप-प्रत्यारोप तेज हो गए। राजनैतिक प्रचार का स्तर गिरता गया। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर ऐसे आक्षेप किए, जिन्हें शोभनीय नहीं कहा जा सकता। चुनाव नतीजे भाजपा के पक्ष में आए, फिर भी राहुल गांधी इसे भाजपा की पराजय चित्रित करते रहे।
कांग्रेस की रणनीति की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि वह चुनाव में स्थानीय भाजपा सरकार की असफलताओं पर निशाना साधने के बजाय सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साध रही थी। नरेंद्र मोदी इस समय अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं। राहुल गांधी की राजनीतिक छवि ऐसी नहीं है कि लोग मोदी के विरुद्ध कही गई उनकी बातों पर ध्यान देते। कांग्रेस की दूसरी बड़ी गलती यह थी कि वह आंदोलनकारी युवा तिकड़ी में उलझी रही। अपनी पार्टी के चुनावी तंत्र को मजबूत करने के बजाय वह इन युवा नेताओं को साधने में लगी रही। उसे पाटीदारों, कपास के किसानों और दलितों के असंतोष का जो फायदा मिला है, वह अन्यथा भी मिलता। लेकिन उसने अपने संगठन पर ध्यान दिया होता तो उसकी और भाजपा को मिली सीटों का फासला कुछ और कम हो सकता था। अलबत्ता किसी भी हालत में वह भाजपा को हराने की स्थिति में नहीं थी। निरंतर चार चुनावों में 48-49 प्रतिशत वोट पाती रही पार्टी को इतनी आसानी से अपदस्थ नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र में लोगों को शासन से काफी अपेक्षाएं होती हैं। केवल कुशल प्रशासन से लोगों का विश्वास नहीं जीता जा सकता। शासन की नीतियों के कारण कुछ न कुछ वर्ग असंतुष्ट होते रहते हैं। कांग्रेस के पुराने नेताओं को स्मरण होगा कि पाटीदारों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं 1973 में चिमनभाई पटेल के मुख्यमंत्री बनने से आरंभ हुई थीं। उन्हें गुजरात के औद्योगिक विकास का नींव डालने वाला माना जाता है, लेकिन गुजरात में जल्दी ही नवनिर्माण आंदोलन शुरू हो गया और 1974 में उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण न केवल इस्तीफा देना पड़ा बल्कि उन्हें कांग्रेस से भी निकाल दिया गया। 1975 में हुए नए चुनावों में विपक्षी दलों का जनता मोर्चा बना, चुनाव जीता और उसकी ओर से बाबूभाई पटेल मुख्यमंत्री बने। पटेलों ने कांग्रेस से चिमनभाई पटेल को हटाने का बदला ले लिया। यह सरकार 211 दिन बाद गिर गई। फिर माधव सिंह सोलंकी की कांग्रेस सरकार बनी, जो 108 दिन चली। 1977 के चुनाव में फिर जनता पार्टी जीती और बाबूभाई पटेल मुख्यमंत्री बने। 1980 में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और उसके बाद कांग्रेस सत्ता में लौट आई।
नई कांग्रेस सरकार की कमान माधव सिंह सोलंकी को दी गई और उन्होंने पटेलों को टक्कर देने के लिए एक नया चुनावी समीकरण बनाया। उन्होंने कांग्रेस के नेताओं को आश्वस्त किया कि क्षत्रिय, आदिवासी, दलित और मुसलमानों को मिलाकर भी चुनाव जीता जा सकता है। बहरहाल पार्टी के भीतर की स्पर्धा के कारण 1985 में उनको हटना पड़ा और कांग्रेस की ओर से गुजरात को पहला आदिवासी मुख्यमंत्री मिला अमरसिंह चौधरी। 1989 में सोलंकी फिर सत्ता में लौट आए। इस बीच पटेल कोपभवन में बैठे रहे और उन्होंने 1990 के चुनाव में चिमनभाई पटेल की पार्टी को जीतकर आई सबसे बड़ी पार्टी बना दिया। भाजपा से गठबंधन करके वे मुख्यमंत्री बने। कुछ दिनों में यह गठबंधन टूट गया तो उन्होंने कांग्रेस से मिलकर सरकार बना ली। 1994 में उनकी मृत्यु हो गई और बची अवधि के लिए कांग्रेस के छबीलदास मुख्यमंत्री बना दिए गए। चिमनभाई पटेल की मृत्यु के बाद पटेल भाजपा की ओर मुड़े और 1995 में पहली भाजपा सरकार बनी, जिसके मुखिया केशूभाई पटेल थे।
भाजपा की पहली सरकार पटेलों की शक्ति से बनी थी। लेकिन पार्टी के भीतर की प्रतिस्पर्धा ने 221 दिन बाद उनकी जगह सुरेश मेहता को मुख्यमंत्री बनवा दिया। इसके बाद शंकर सिंह बाघेला ने विद्रोह कर दिया और 23 अक्टूबर 1996 से 4 मार्च 1998 तक उनकी राष्ट्रीय जनता पार्टी की तरफ से उनके समेत दो मुख्यमंत्री हुए। 1998 के चुनाव में पटेलों की शक्ति से फिर भाजपा जीती और केशूभाई पटेल फिर मुख्यमंत्री बने। लेकिन उनके खराब स्वास्थ्य और भुज में आए भूकम्प के समय हुई लापरवाही के कारण 2001 में भाजपा ने नरेंद्र मोदी को दिल्ली से गुजरात मुख्यमंत्री बनाकर भेजा। नरेंद्र मोदी की व्यावहारिक नीतियों और हर समस्या को सकारात्मक ढंग से सुलझाने के तरीके ने राजनीति से बाहर के लोगों में भी उनके प्रशंसक पैदा किए। इस तरह गुजरात ही नहीं, देश की राजनीति में एक नया नायक उभर आया।
नरेंद्र मोदी ने गुजरात में 2001 से 2014 तक 13 वर्ष शासन किया। इस बीच तीन विधानसभा चुनाव हुए। 2002 के चुनाव गुजरात दंगों के बाद हुए थे। उस चुनाव में पार्टी को 127 सीट मिली और उसका मत प्रतिशत 49.9 रहा। अगले 2007 के चुनाव में मत प्रतिशत मामूली घटकर 49.2 रहा और सीटें घटकर 117 हो गर्इं। यह वह चुनाव था जब पाटीदारों में सत्ता से बाहर होने का अहसास बढ़ने लगा था। लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपनी कुशलता से उन्हें पार्टी से विमुख नहीं होने दिया। 2012 के चुनाव में पार्टी की सीटें घटकर 115 रह गर्इं और मत प्रतिशत घटकर 47.9 हो गया। लेकिन किसी ने इसे नरेंद्र मोदी की असफलता नहीं बताया। इस अवधि में कांग्रेस 45 सीटों से बढ़कर 77 तक पहुंच गई है और उसका मत प्रतिशत 33 से 41 के आसपास पहुंच गया है। लेकिन जो पार्टी 1985 तक 50 से 55 प्रतिशत वोट पाती रही हो, उसके लिए यह बहुत उपलब्धि की बात नहीं है। इस पूरे राजनैतिक इतिहास से एक सीधा निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि पार्टी के भीतर नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और समाज में जातियों की प्रतिस्पर्धाओं को संभालने में कांग्रेस से अधिक भाजपा सफल रही है। यही पिछले 19 वर्ष से गुजरात में उसके निरंतर शासन का रहस्य है।
अधिकांश विश्लेषकों ने गुजरात में भाजपा की जीत का विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि शहर कस्बों में उसे अधिक सफलता मिली है, ग्रामीण क्षेत्रों में उतनी नहीं। गुजरात के 39 शहरी विधानसभा क्षेत्रों में से 33 में उसके उम्मीदवार विजयी हुए हैं। छोटे कस्बों वाली मिश्रित 45 सीटों में से 26 उसे मिली हैं, 19 कांग्रेस को। लेकिन ग्रामीण आबादी वाली 98 सीटों में से उसे केवल 40 में ही सफलता मिली है। इससे उन्होंने यह संदेश लिया है कि आने वाले चुनावों में भाजपा को ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक चुनौती मिलेगी। अगर गुजरात के मतदाताओं के रुझान शेष राज्यों पर लागू किए जा सकते हों तो फिर इससे पहले उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के जो रुझान आए थे, उसके बारे में क्या कहा जाएगा। हर प्रदेश की अपनी विशेषता होती है। गुजरात में इन चुनावों में एकमात्र अंतर यह था कि पटेल और कपास के किसान नाराज थे, इसलिए भाजपा को सौराष्ट्र-कच्छ क्षेत्र में काफी नुकसान उठाना पड़ा। उत्तरी गुजरात में भी उसे कुछ नुकसान हुआ। पर थोड़ी बहुत भरपाई उसने शहरी क्षेत्रों में और दक्षिण गुजरात के औद्योगिक गलियारे में कर ली। फिर भी पिछले चुनाव के मुकाबले 16 सीट कम मिलीं। भाजपा में अनेक समर्थ पाटीदार नेता हैं और उसे विभिन्न वर्गों के बीच संतुलन बैठाना आता है। कांग्रेस की तरह उसकी राजनैतिक शैली संघर्ष बढ़ाकर चौधरी बनने की नहीं है, सामंजस्य बैठाने की है। अगले चुनाव तक इस बार की क्षतिपूर्ति के लिए उसके पास काफी समय रहेगा। लेकिन अगर कांग्रेस अपने संगठन को मजबूत करने के बजाय बाहरी असंतोष का सहारा ढूंढ़ती रहेगी तो वह इस बार की तरह ही ठगी रह जाएगी। गुजरात के इन चुनावों से उसे नसीहत लेने की अधिक आवश्यकता है।