अभिषेक रंजन सिंह।

अक्सर विधानसभा के चुनावों में मुद्दा स्थानीय होता है। लेकिन इस बार गुजरात की कहानी कुछ अलग है। दिसंबर के दूसरे हफ्ते में यहां चुनाव होने हैं लेकिन चुनावी मुद्दा प्रधानमंत्री मोदी के इर्द-गिर्द घूम रहा है। एक तरफ कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी गुजरात में जीएसटी और बेरोजगारी को लेकर केंद्र सरकार पर हमलावर हैं। तो दूसरी तरफ भाजपा विकास के मुद्दे पर कांग्रेस को घेर रही है। अहमदाबाद के वरिष्ठ पत्रकार दर्शन देसाई का कहना है, ‘इस बार गुजरात चुनाव के परिणामों को लंबे समय तक याद रखा जाएगा। पहली बार ऐसा लग रहा है कि चुनाव एकतरफा नहीं हो रहे हैं।’ देसाई के मुताबिक, ‘जीएसटी से भविष्य में क्या लाभ होंगे यह तो नहीं पता लेकिन गुजरात की अर्थव्यवस्था की रीढ़ लघु और मध्यम उद्योग पर जीएसटी की मार सबसे ज्यादा पड़ी है। राजकोट स्थित डीजल इंजन इंडस्ट्री से बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार मिलता है। लेकिन जीएसटी का काफी बुरा असर इस इंडस्ट्री पर पड़ा है। अगर जीएसटी का विरोध गुजरात में नहीं हुआ होता तो शायद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपनी हर चुनावी रैली में इसे लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर हमला नहीं करते। वहीं भाजपा जीएसटी को अर्थव्यवस्था के लिए सही मान रही है। भाजपा नेताओं का दावा है कि गुजरात में विकास के मुद्दे पर कांग्रेस उनका मुकाबला नहीं कर सकती। इसलिए जीएसटी के नाम पर वह जनता को गुमराह कर रही है।’ आणंद जिले के व्यवसायी हरेश कक्कड़ का कहना है, ‘जीएसटी की असली परीक्षा गुजरात चुनाव में होगी। नोटबंदी को लेकर भी कुछ इसी तरह का माहौल था। लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद नोटबंदी का मुद्दा गायब हो गया।’

कितना बड़ा है पाटीदारों के आरक्षण का मुद्दा
हार्दिक पटेल की अगुवाई में दो साल पहले शुरू हुए पाटीदार आरक्षण आंदोलन का मुद्दा गुजरात चुनाव में क्या असर डालता है यह तो चुनावी परिणामों से तय होगा। लेकिन पाटीदार आरक्षण पर स्पष्ट नीति नहीं होने की वजह से पाटीदारों के बीच हार्दिक की संदिग्ध छवि बन रही है। रही-सही कसर कांग्रेस के प्रति उनके झुकाव ने पूरी कर दी। शायद यही वजह है कि पाटीदार आरक्षण और उनके समर्थन में न तो कोई कोई स्वत: स्फूर्त रैलियां निकल रही हैं और न ही कोई जनसभा हो रही हैं। कभी आरक्षण के कट्टर विरोधी रहे पाटीदार समाज को वाकई आरक्षण की जरूरत है या इसके नाम पर सिर्फ राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं? पाटीदारों की आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक स्थिति पर गांधीवाद से प्रभावित गुजरात किसान समाज के महासचिव सागर रवाडिया का अच्छा अध्ययन है। उनके अनुसार, ‘गुजरात में हुए भूमि सुधार का सबसे बड़ा लाभ पाटीदारों को हुआ। राजे-रजवाड़ों के समय काश्तकारों को जमीनों की मिल्कियत हासिल नहीं थी। लेकिन जमींदारी उन्मूलन के बाद एक नया कानून बना जिसमें कहा गया कि जिसके जोत-आबाद में जमीनें होंगी मालिकाना हक उसी को मिलेगा। साल 1960-61 में ‘गुजरात लैंड सीलिंग एक्ट’ पारित हुआ। उस समय गैर पाटीदार खेती की जमीनें लेने को तैयार नहीं थे क्योंकि उन्हें खेती का कोई अनुभव नहीं था। ‘लैंड सीलिंग एक्ट’ के बाद पाटीदारों को बड़े पैमाने पर जमीनों की मिल्कियत मिली। इसके बाद उनके जीवन में स्थायित्व, शिक्षा और समृद्धि आई। धीरे-धीरे गुजरात की सरकारी नौकरियों में पटेलों का दबदबा बढ़ने लगा। जिन्होंने नौकरी नहीं की वे शहरों की तरफ आए। इसी बीच ‘गुजरात इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन’ (जीआईडीसीई) की स्थापना हुई। इस तरह खेती की तरह कारोबार जगत में भी पाटीदारों का सबसे पहले प्रवेश हुआ। यही वजह है कि सूरत का हीरा उद्योग, राजकोट का इंजीनियरिंग वर्क्स, मोरबी का टाइल्स उद्योग और अहमदाबाद-सूरत के गारमेंट्स व टेक्सटाइल इंडस्ट्री पर पाटीदारों का कब्जा हो गया। इस तरह खेती, कारोबार और नौकरियों से पाटीदारों को अच्छी आमदनी होने लगी। नतीजतन राजनीति में भी इनका प्रभाव बढ़ने लगा। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद ओबीसी और वंचित समुदायों को आरक्षण का लाभ मिला और वे सरकारी नौकरियों में आने लगे। इस तरह पाटीदारों के वर्चस्व को पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों से चुनौती मिलने लगी। नब्बे के दशक में लागू आरक्षण और उदारीकरण के बाद पाटीदारों पर दोनों तरफ से हमले शुरू हो गए। एक तरफ नौकरी और दूसरा कारोबार के क्षेत्र में गैर पाटीदार अपनी जगह बनाने लगे। नब्बे के दशक में भारत सरकार द्वारा डंकल और गेट समझौते पर दस्तखत का असर गुजरात में दिखने लगा। चीन और कोरिया से सस्ते माल की आपूर्ति होने लगी। इस वजह से पाटीदारों का कारोबार प्रभावित होने लगा। सरकारी प्रोत्साहन और संरक्षण के अभाव में ‘गुजरात इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन’ की इकाइयां बंद होने लगीं। जबकि उत्तर प्रदेश के बाद गुजरात में सबसे अधिक छोटी औद्योगिक इकाईयां थीं। इस तरह पाटीदारों को तीन तरफ से मार झेलनी पड़ी। उनकी आर्थिक स्थिति पर इसका गंभीर असर पड़ा। हार्दिक की वजह से पाटीदारों को एहसास हुआ कि उनकी बेहतरी के लिए आरक्षण जरूरी है। यह अलग बात है कि इसे लेकर पाटीदार समाज खुद दो खेमों में बंटा है।