आनंद प्रधान

आखिरकार एनडीए सरकार पिछले दस साल से भी अधिक समय से राजनीतिक पार्टियों, केंद्र और राज्य सरकारों के आपसी झगड़ों और दांव-पेंच में फंसे वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संविधान संशोधन विधेयक को राज्यसभा में लगभग आमराय से पारित कराने में कामयाब हो गई। राजनीतिक रूप से यह एनडीए सरकार की बड़ी कामयाबी है लेकिन उसे यह कामयाबी आसानी से नहीं मिली है। इसके लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली को पिछले डेढ़ साल में खासी राजनीतिक कसरत के साथ पापड़ बेलने पड़े। एनडीए खासकर भाजपा को लोकसभा में बहुमत का घमंड छोड़कर विपक्षी पार्टियों से बातचीत और सहमति के लिए नीचे आना पड़ा और उनके सुझावों और चिंताओं को भी सुनना पड़ा।

शुरू में तो नरेंद्र मोदी सरकार लोकसभा में भारी बहुमत के घमंड में ऐसे थी कि उसने कांग्रेस-मुक्त भारत के अपने अभियान के बीच जीएसटी विधेयक पर व्यापक राजनीतिक सहमति तैयार करने की बजाय पिछले साल मई में लोकसभा से एकतरफा पारित करा लिया। लेकिन राज्यसभा में एनडीए का बहुमत नहीं था और वहां कांग्रेस अड़ गई। इस कारण जीएसटी विधेयक साल भर लटका रहा। पहले तो भाजपा के हलकों से कांग्रेस पर नकारात्मक राजनीति करने के आरोप लगाए गए लेकिन उसे जल्दी ही संसदीय राजनीति की मजबूरियों का अहसास हो गया।

इसके बाद खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पहल करनी पड़ी। कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ उनकी मुलाकात के बाद राजनीतिक गतिरोध टूटा। फिर वित्त मंत्री को विपक्ष खासकर कांग्रेस और राज्य सरकारों के साथ सहमति बनाने के लिए कई दौर की वार्ताएं और मोलभाव करनी पड़ी। इस दौरान खूब खींचतान चली। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप हुए, रूठने-मनाने का खेल चला और आखिरकार काफी मोलभाव और लेनदेन के बाद समझौता हो पाया।

कहने की जरूरत नहीं है कि जीएसटी संविधान संशोधन विधेयक के राज्यसभा में पारित होने के बाद से सरकार से लेकर उद्योग जगत में और न्यूज चैनलों से लेकर गुलाबी (आर्थिक) अखबारों में जश्न का माहौल है। इसे ऐतिहासिक, दूरगामी, खेल बदलने वाला और 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से आर्थिक उदारीकरण और सुधारों की दिशा में सबसे बड़ा आर्थिक सुधार बताया जा रहा है। दावा किया जा रहा है कि जीएसटी से न सिर्फ भारत ‘एक देश, एक टैक्स, एक बाजार’ बनेगा, व्यापार सुगम और आसान होगा, भ्रष्टाचार खत्म होगा बल्कि इससे देश की जीडीपी भी डेढ़ से दो फीसदी तक बढ़ सकती है। गोया यह कि जीएसटी सिर्फ एक अप्रत्यक्ष करों में सुधार नहीं बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने खड़े हर मर्ज की दवा है।

साफ है कि जीएसटी के इस महिमागान में ‘आधी हकीकत, आधा फसाना’ और अतार्किक उत्साह या हाइप ज्यादा है। यह स्वाभाविक भी है। बिना इस हाइप के जीएसटी जैसे विवादास्पद सुधार को बिकने लायक बनाना आसान नहीं था। लेकिन इस अतिरेक को अलग कर दिया जाए तो इसमें शक नहीं है कि जीएसटी अप्रत्यक्ष करों में एक बड़ा सुधार है। अगर जीएसटी पूरी तैयारी, पारदर्शिता के साथ और ठीक तरीके से लागू हुआ तो इससे निश्चय ही उद्योगों को सहूलियत होगी, उन्हें देश के एक कोने से दूसरे कोने तक माल और उत्पाद ले जाने और लाने में आसानी होगी, भ्रष्टाचार और नौकरशाही की अड़ंगेबाजी पर भी एक हद तक रोक लगेगी, उनके उत्पादों और सेवाओं को एक राष्ट्रीय बाजार मिलेगा जिससे कारोबार बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या जीएसटी को लागू करने के लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर और तैयारी है? खुद वित्त मंत्री अरुण जेटली का मानना है कि पहली अप्रैल 2017 से जीएसटी लागू करना मुश्किल है। इसे लागू करना एक दु:स्वप्न से कम नहीं है। सबसे पहले जीएसटी संविधान संशोधन कानून को कम से कम पंद्रह राज्यों की विधानसभाओं से पारित करना होगा। इसके साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों के वित्त मंत्रियों की जीएसटी परिषद बनानी है। यह परिषद ही जीएसटी की दरें तय करेगी। जीएसटी की दरें तय करना और किन वस्तुओं-सेवाओं पर जीएसटी की क्या दर होगी और उसमें केन्द्रीय जीएसटी और राज्य जीएसटी का अनुपात क्या होगा, यह सर्वसम्मति से तय करना और उसे फिर संसद में पारित कराना इतना आसान नहीं होगा।

कहने की जरूरत नहीं है कि जीएसटी की दर को लेकर विवाद बना हुआ है। वित्त मंत्री के आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में बनी समिति ने जीएसटी की रेवेन्यू न्यूट्रल दर यानी बिना नफा-नुकसान वाली दर 15.5 फीसदी मानी है और इस आधार पर जीएसटी की स्टैंडर्ड दर 16.9 से 18.9 फीसदी रखने की पैरवी की है। अभी तक यही माना जा रहा था कि जीएसटी की स्टैंडर्ड दर 18 फीसदी होगी। जीएसटी की स्टैंडर्ड दर वह है जो ज्यादातर वस्तुओं-सेवाओं पर लगेगी लेकिन केंद्र की एनडीए सरकार इस मुद्दे पर साफगोई से बात नहीं कर रही है। वित्त मंत्री ने इस पर कोई स्पष्ट प्रतिबद्धता देने की बजाय स्टैंडर्ड दर के और अधिक होने से भी इनकार नहीं किया है।

असल में केंद्र सरकार को आशंका है कि 18 फीसदी स्टैंडर्ड दर के कारण राजस्व घट भी सकता है या उसमें बहुत मामूली बढ़ोतरी होगी। ऐसा होने पर जिन राज्यों का राजस्व घटेगा, वादे के मुताबिक केंद्र सरकार अगले पांच वर्षों तक उसकी भरपाई करेगी। ऐसा लगता है कि एनडीए सरकार यह जोखिम नहीं उठाना चाहती है और अपने विकल्प खुले रखना चाहती है। इसीलिए कांग्रेस के दबाव और इसे मुद्दा बनाने के बावजूद वह जीएसटी की स्टैंडर्ड दर को 18 फीसदी के अंदर रखने की संवैधानिक पाबंदी के लिए तैयार नहीं हुई। हालांकि खुद सरकार नहीं चाहेगी कि जीएसटी की दर 18 फीसदी से ज्यादा हो क्योंकि इससे महंगाई बढ़ने का खतरा है। इसलिए यह राजनीतिक जोखिम सरकार नहीं उठाना चाहेगी।

लेकिन केंद्र सरकार यह भी नहीं चाहती है कि राजस्व के घटने से उसके बजट का गणित गड़बड़ा जाए और राजकोषीय घाटा बढ़ाने की नौबत आ जाए। साथ ही वह वित्त वर्ष 2017-18 और 18-19 में वर्ष 2019 के आम चुनाव के मद्देनजर लोक-लुभावन योजनाओं और सब्सिडी पर भी खर्च बढ़ाना चाहेगी जिसके लिए उसे राजस्व चाहिए। वित्त मंत्री जानते हैं कि उनके लिए अप्रत्यक्ष कर यानी जीएसटी से पैसा जुटाना ज्यादा आसान है क्योंकि प्रत्यक्ष करों (इनकम टैक्स और कॉरपोरेट टैक्स) में बढ़ोतरी करने पर मध्यम वर्ग, अमीरों और उद्योगपतियों जैसे संगठित और मुखर वर्गों के नाराज होने का खतरा है। नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में भरोसा करने वाले अन्य वित्त मंत्रियों की तरह जेटली भी यह जोखिम नहीं उठाएंगे। ऐसे में उनके लिए जीएसटी की स्टैंडर्ड दर में वृद्धि का विकल्प है। हालांकि अप्रत्यक्ष करों की मार सबसे ज्यादा गरीबों, कमजोर और निम्न मध्य वर्गों पर पड़ती है। इस कारण ही जीएसटी जैसे अप्रत्यक्ष कर को प्रतिगामी कर माना जाता है। साथ ही इसमें भी राजनीतिक जोखिम कम नहीं है। लेकिन अब तक के वित्त मंत्रियों ने जिस तरह से अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोतरी को राजस्व वसूली का प्रमुख जरिया बना रखा है, उसे देखते हुए अगर जेटली भी इसमें बढ़ोतरी करने का फैसला करें तो हैरानी नहीं होगी।

लेकिन क्या वे इस मुद्दे पर जीएसटी परिषद और संसद में विपक्ष का समर्थन जुटा पाएंगे? यह तय है कि कांग्रेस और विपक्ष की दूसरी पार्टियां इसका विरोध करेंगी। कई राज्य सरकारें भी विरोध कर सकती हैं। ऐसे में इस मुद्दे पर फिर राजनीतिक गतिरोध पैदा हो सकता है। हालांकि एनडीए सरकार इससे निपटने के लिए इसे धन विधेयक के रूप में लाने का संकेत दे रही है जिसका अर्थ है कि लोकसभा में पारित होना काफी है और उस पर राज्यसभा में वोटिंग नहीं होगी। कांग्रेस इसका खुला विरोध कर रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि जीएसटी संविधान संशोधन विधेयक आम सहमति से पारित होने के बावजूद जीएसटी की आगे की राह की कठिनाइयां पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं।
जीएसटी की राह में राज्यों के साथ टकराव और विवाद की भी आशंकाएं पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं। तमिलनाडु अभी भी जिस तरह से विरोध कर रहा है और कई राज्य शंकित हैं, उसे देखते हुए जीएसटी परिषद में आम सहमति बना पाना कितना मुश्किल होगा इसे वित्त मंत्री अरुण जेटली से बेहतर और कौन जानता है? इसी तरह जीएसटी को अमल में लाने के लिए उसकी वसूली के लिए जिस तरह से जीएसटी नेटवर्क और उसका पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करना है, अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ-साथ उद्योग और व्यापार जगत का प्रशिक्षण होना है, वह भी छोटी चुनौती नहीं है।

आश्चर्य नहीं कि जेटली को यह एक दु:स्वप्न की तरह दिख रहा हो। वे अच्छी तरह जानते हैं कि संक्रमण आसान नहीं होगा। जिन भी देशों में जीएसटी या इस तरह का एकीकृत टैक्स लागू हुआ है, वहां शुरुआती वर्षों में मुश्किलें आई हैं और विवाद व मुकदमे हुए हैं। इन विवादों और मुश्किलों की आशंकाएं इसलिए भी ज्यादा हैं कि जीएसटी को लेकर कई भ्रम और अस्पष्टताएं अभी भी बनी हुई हैं। यह एक तरह से अंधेरे में छलांग लगाने की तरह है या यह कहें कि यह ट्रायल और लर्न यानी लागू करते हुए होने वाली गलतियों और समस्याओं से सीखते और उन्हें सुधारते हुए आगे बढ़ने की तैयारी है।

ऐसे में यह उम्मीद कुछ ज्यादा ही उत्साही और अतिरेक भरी उम्मीद है कि जीएसटी आते ही अप्रत्यक्ष कर महकमे से भ्रष्टाचार रातों-रात खत्म हो जाएगा या चुंगी/नाकों और राज्यों की सीमाओं पर बने पोस्टों पर ट्रकों की लम्बी कतारें नहीं दिखाई पड़ेंगी। आॅनलाइन और आईटी के इस्तेमाल के बावजूद जीएसटी की वसूली से लेकर उसके सरकारी खजाने में पहुंचने की प्रक्रिया में मौजूद हेराफेरी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा पाना एक बड़ी चुनौती होगी। जीएसटी कोई जादू की छड़ी नहीं है जिससे खुद-ब-खुद भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि कई सेवाओं के आॅनलाइन होने के बावजूद उनमें फैला भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ है। भ्रष्ट व्यवस्था और उसके लाभार्थी हर व्यवस्था में छेद खोज लेते हैं या उसमें तोड़ मरोड़ करने का जुगाड़ बना ही लेते हैं।

जीएसटी को लेकर सबसे बड़ा सवाल यह है कि इससे आम लोगों या उपभोक्ताओं को क्या फायदा होगा? दावा किया जा रहा है कि इससे कीमतें कम होंगी खासकर कई विनिर्मित वस्तुओं की। लेकिन यह सब अभी अटकलें हैं। जब तक जीएसटी की दरें और किन वस्तुओं पर क्या दर लगेगी, यह स्पष्ट नहीं होता, उनके सस्ते होने का दावा करना जल्दबाजी होगी। दूसरे, जीएसटी की दरें खासकर वस्तुओं/उत्पादों पर कम होने की स्थिति में यह भी देखना होगा कि क्या उद्योग जगत इसका फायदा आम उपभोक्ताओं को देगा। वैसे दबी जुबान में खुद सरकार के आर्थिक मैनेजर भी मान रहे हैं कि शुरुआती वर्षों में इससे थोड़ी महंगाई बढ़ सकती है। खासकर सभी सेवाएं महंगी होंगी। इसकी वजह यह है कि अभी सेवाओं पर टैक्स की दर सेस सहित 15 फीसदी है जो जीएसटी के 18 फीसदी होने की स्थिति में तीन फीसदी तक महंगी हो जाएंगी। यह भी याद रखना होगा कि खुद सरकार की ओर से गठित समिति ने 15.5 फीसदी की दर को रेवेन्यू न्यूट्रल रेट (आरएनआर) माना है यानी जिसमें सरकार को राजस्व का कोई नुकसान नहीं होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि 15.5 फीसदी की दर पर उपभोक्ताओं को खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन 18 फीसदी की दर पर उन्हें मोटे तौर पर पहले की तुलना में ज्यादा टैक्स देना पड़ेगा। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, सिर्फ सेवाओं पर बढ़े जीएसटी के कारण उपभोक्ताओं की जेब से सालाना एक से डेढ़ लाख करोड़ रुपये अधिक निकल जाएंगे।

जाहिर है कि यह आम उपभोक्ताओं की जेब से ही जाएगा। अगर यह मान भी लिया जाए कि कुछ विनिर्मित वस्तुओं/उत्पादों की कीमतें कम होंगी लेकिन सेवा कर में बढ़ोतरी के कारण उपभोक्ताओं को फायदा कम और नुकसान ज्यादा होगा। उपभोक्ता कार, टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन जैसी चीजें रोज नहीं खरीदते लेकिन बैंकिंग से लेकर टेलीकॉम सेवाओं और रेस्तरां से लेकर बस/ट्रेन/हवाई सेवाओं का इस्तेमाल नियमित करते हैं। ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि मोटे तौर पर उपभोक्ताओं को जीएसटी से कोई बचत नहीं होने जा रही है, उलटे उन पर बोझ बढ़ने की आशंका ज्यादा है।

निश्चय ही, सरकार ने जीएसटी लाने का वादा पूरा करके कॉरपोरेट जगत और देशी-विदेशी निवेशकों से किया वादा पूरा किया है लेकिन एनडीए सरकार के लिए बड़ी चुनौती यह होगी कि इसे आम लोगों के बीच कैसे स्वीकार्य और लोकप्रिय बनाया जाए? इसके लिए उसे न सिर्फ जीएसटी की स्टैंडर्ड दर को 18 फीसदी से अधिक बढ़ाने के लोभ पर काबू रखना होगा, जरूरी और रोजमर्रा के इस्तेमाल की वस्तुओं पर जीएसटी की न्यूनतम दर रखनी होगी बल्कि वादे के मुताबिक जीएसटी व्यवस्था को सरल, सुगम, सक्षम और पारदर्शी बनाना होगा। उसे उद्योगों और व्यापारियों को तैयार करना होगा कि जीएसटी की कम दरों या टैक्स क्रेडिट का फायदा अपनी जेब में रखने की बजाय उसे आम लोगों तक पहुंचाएं। अन्यथा जैसे 1991 के ऐतिहासिक आर्थिक सुधारों के बावजूद कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार अगले आम चुनाव में हारकर सत्ता से बाहर हो गई थी, वैसे ही जीएसटी लागू होने के बाद अगर महंगाई बढ़ी तो एनडीए सरकार का भी वही हश्र हो सकता है। 