अजय विद्युत

आज डोकलाम में भारत और चीन की फौजें आमने सामने हैं। चीन से 1962 की जंग के बाद हमने काफी कुछ सीखा है। आज हम सीमावर्ती पहाड़ों तक जाते हैं, वहां के कई प्रसिद्ध स्थानों से हम वाकिफ हुए हैं। तमाम सुरम्य घाटियां, प्राकृतिक नजारे, अति प्राचीन धार्मिक स्थलों को हम देखने जाते हैं।

कुछ दिन पहले उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में गंगोलीहाट के विश्वप्रसिद्ध पातालभुवनेश्वर गुफा मंदिर में जाना हुआ था। इसे त्रेता युग में अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण ने और द्वापर में पांडवों ने खोजा था। कलियुग में आदि शंकराचार्य यहां आए थे और उन्होंने शिवलिंग को कीलित किया था। फिर आदि शंकराचार्य ने चंद राजाओं को इसकी जानकारी दी थी जिनकी राजधानी चंपावत थी। वे 1191 में पुजारियों को काशी से यहां लाए थे जिनके वंशज आज भी यहां पूजापाठ करा रहे हैं। चूंकि यह कैलाश मानसरोवर मार्ग में है तो वहां जाने वाले श्रद्धालु पहले यहां रुककर पाताल भुवनेश्वर के दर्शन करते हैं और इसके बाद ही कैलाश मानसरोवर को प्रस्थान करते हैं। स्कन्दपुराण के मानस खंड में इसका व्यापक वर्णन है।

पाताल भुवनेश्वर में 1975 से पूजापाठ कर रहे प्रधान पुजारी उमेश सिंह भंडारी ने बताया, ‘यहां के बारे में किसी के संज्ञान में नहीं था पहले। लोगों को बहुत कम ही मालूम था। वह तो जब 1962 में भारत-चीन का युद्ध छिड़ा था तब भारत सरकार ने पिथौरागढ़ जिले से चारों तरफ सड़क संपर्क जोड़ा और संचार व्यवस्था के जरिए पूरे देश से यह जुड़ गया। उसके बाद धीरे धीरे लोगों को यहां के बारे में पता चलता गया और वे यहां आने लगे।’

पूरे बार्डर के बारे में ही ऐसा है- शेखर पाठक

Dr. Shekhar Pathakइतिहासकार शेखर पाठक बताते हैं कि पूरे बार्डर के बारे में ही ऐसा है कि वहां विकास कार्य और खासकर सड़क के जरिए पहुंच चीन से जंग के बाद ही ज्यादा बढ़ी। लद्दाख, हिमाचल, उत्तराखंड और पूर्वाेत्तर सभी जगहों पर ऐसा हुआ है। और पिथोरागढ़ तो उत्तराखंड का ऐसा जिला है जिसकी सीमाएं दो देशों से जुड़ती हैं एक तरफ चीन से तो दूसरी तरफ नेपाल से।

लोगों को तमाम जगहों के बारे में पता था और वे दुष्कर यात्रा कर जाते भी थे। पाठक कहते हैं, ‘लेकिन दूरदराज इलाकों तक सड़कें न होने का कारण उतनी मोबिलिटी नहीं थी। और जो सुविधाएं वहां होनी चाहिए थीं वे भी नहीं थीं। हमारे भोटिया लोग जो चीन के साथ व्यापार करते थे वह भी रुक गया था 1959-60 में क्योंकि तिब्बत में चीनी फौज बड़ी संख्या में तैनात थी। चीन से बासठ की लड़ाई के दो परिणाम हुए। एक तिब्बत की ओर जो हमारा व्यापार के लिए आना जाना था वह बिल्कुल ठप हो गया था और ये गतिविधियां बीस साल तक बंद रहीं। फिर सीमा के इलाकों में सुरक्षा के नाम पर हमारे यहां सड़कें बनने लगीं, सुविधाएं दी जाने लगीं और प्रशासनिक निगाह रखी जाने लगी- और यह पूरे ही बार्डर एरिया में हुआ कश्मीर, हिमाचल, अरुणाचल और उत्तराखंड सभी जगहों पर। आईटीबीटी की स्थापना हुई और सीमा पर विशेष नजर रखी जाने लगी।

सोशल डेवलपमेंट का काम भी करती है सेना -प्रमोद जोशी 

Pramod Joshiवरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी बताते हैं, ‘पिछले दस बारह सालों में तो बीआरओ यानी बार्डर रोग आर्गनाइजेशन सड़कों का एक पूरा जाल बिछा रहा है सीमा से जुड़े इलाकों में। और सेना की मौजूदगी केवल सुरक्षा के लिए ही नहीं होती। सीमा के इलाकों में वहां रहने वाले लोगों से वह दोस्ताना संबंध बनाती है और एक तरह से वहां के लोगों के सोशल डेवलपमेंट का काम भी करती है। जैसे कम्युनिकेशन, स्वास्थ्य सुविधाएं। और फिर सड़क से आना जाना तो सरल होता ही है। उन पर केवल सैनिक वाहन ही नहीं दौड़ते, लोग भी चलते है और अपनी उपज आदि शहर के बाजार तक पहुंचाते हैं। व्यापार बढ़ता है। शिक्षा का भी काम होता है। अरुणाचल में एक बहुत लंबे पुल का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ महीने पहले ही किया था।’

प्रमोद जोशी ने कहा, ‘सन् साठ-बासठ के पहले कई कई घंटे लग जाते थे पहाड़ी इलाकों में एक जगह से दूसरी जगह जाने में। कभी अल्मोड़ा से हल्द्वानी जाना भी इतना आसान नहीं था। अब है।’ शेखर पाठक ने भी यही बात कही।