अजय विद्युत।

यदि तुम गुरु के साथ निकटता का अनुभव नहीं कर रहे, तो गुरु की आवश्यकता ही क्या है? वह तुम्हारे लिए एक और बोझ है। तुम्हारे पास पहले ही बहुत बोझ हैं। बस, अलविदा कह दो।

तुम गुरु के साथ हो ताकि तुम गुरु के आनंद में सहभागी हो, उसकी चेतना के सहभागी। इसके लिए, पहले तुम्हें अपने आप को खाली करना है, जो पहले से है, उसे गुरु को दे देना है। जो भी है गुरु को व्यक्त करो और यह मत सोचो कि ‘यह तो कूड़ा है’। मन में जितना भी कूड़ा हा, जितने भी प्रकार का, गुरु उसे लेने के लिए तैयार हैं। तुम जैसे भी हो, गुरु तुम्हें स्वीकार कर लेंगे। अपनी ओर से वे बांटने को तैयार हैं- तुम्हें केवल अपनी ओर से बांटने के लिए तैयार होना है।

कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, ‘तुम मुझे बहुत प्रिय हो।’ फिर कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि उसे समर्पण करना होगा। समर्पण की शुरुआत एक धारणा से होती है। पहले तुम्हें यह मानना होगा कि तुम ईश्वर (गुरु) को अत्यंत प्रिय हो। तब समर्पण स्वत: ही होता है।

समर्पण कोई कृत्य नहीं, एक धारणा है। समर्पण न करना अज्ञानता है, एक भ्रम। समर्पण की शुरुआत एक धारणा से होती है, फिर यह वास्तविकता में व्यक्त होती है। और आखिरकार यह एक भ्रम के रूप में अ•िाव्यक्त होती है, क्योंकि ‘दो’ तो हैं ही नहीं, कोई द्वैत नहीं। किसी का भी व्यक्तिगत रूप से स्वतंत्र अस्तित्व नहीं, तो समर्पण करने को कुछ नहीं, और न कोई है जिसे समर्पण करना है।

यह जानने के लिए कि समर्पण भ्रम है, समर्पण से गुजरना जरूरी है। चुनाव तुम्हारी नियति है। कृष्ण आरंभ में अर्जुन को नहीं कहते कि उसे समर्पण करना है। पहले वे कहते हैं, ‘तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो।’ बाद में वे उससे कहते हैं, ‘तुम्हारे पास और कोई उपाय नहीं… तुम्हें समर्पण करना ही है। या तो अभी करो, वरना बाद में करोगे ही।’ यही प्रेम का पथ है।