जिरह/प्रदीप सिंह

भारत में जातीय वर्ण क्रम की उल्टी गंगा बह रही है। जो जहां है उससे नीचे जाना चाहता है। सवर्ण पिछड़ों में शुमार होना चाहते हैं तो पिछड़े दलित और आदिवासी बनने के लिए आतुर हैं। कोई यह देखने को तैयार नहीं है कि जिन्हें आरक्षण मिला उनको कितना फायदा हुआ। पिछली जनगणना (2001 से 2011) के दौरान सोलह लाख सरकारी नौकरियां कम हुई हैं। सवाल है कि क्या केवल इन घटती सरकारी नौकरियों के लिए सब लोग आरक्षण की मांग कर रहे हैं? गुजरात के पाटीदार अनामत आंदोलन भले ही आरक्षण की मांग का आंदोलन हो लेकिन यह आरक्षण विरोध के आंदोलन की जमीन तैयार कर रहा है। इसलिए इसे आरक्षण की मांग के आंदोलन की बजाय आरक्षण विरोध के आंदोलन के रूप में देखा जाना चाहिए। यह आंदोलन रोजगार और शिक्षा के घटते अवसर और खेती क्षेत्र की बदहाली का नतीजा है। आंदोलन की मांग करने वाली ये सभी जातियां आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली जातियां हैं। गुजरात में ही पटेलों को देखें तो उनकी आबादी तकरीबन पंद्रह फीसदी है लेकिन विधानसभा में एक तिहाई सदस्य पटेल हैं।

एक समय था कि जातियों में सवर्ण बनने की होड़ थी। प्रसिद्ध समाज शास्त्री एम एन श्रीनिवासन ने जनवरी 1957 में लिखा था कि आधुनिक हिंदू सामाजिक जीवन में कई विरोधाभासों में एक यह है कि ब्राह्मणों में पश्चिमीकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है तो दूसरी जातियों में सांस्कृतिकरण की। गैर सवर्ण जातियों के लोग उन रीति रिवाजों को अपना रहे हैं जिन्हें सवर्ण छोड़ रहे हैं। श्रीनिवासन का कहना था कि ऐसा लगता है कि सांस्कृतिकरण पश्चिमीकरण की पहली आवश्यक शर्त है। इसी क्रम में गैर सवर्णों ने मंदिर जाने और जनेऊ पहनने जैसे काम शुरू किए। इसी दौर में यादवों और कुर्मियों ने नाम के साथ सिंह लिखना शुरू किया। उन्हें क्षत्रिय बताने के लिए किताबें लिखी जाने लगीं। इस सिलसिले में सबसे मशहूर किस्सा छत्रपति शिवाजी का है। वे मराठों में भोंसले थे जो वर्णक्रम में नीचे माने जाते हैं। उनके राज्याभिषेक का समय आया तो ब्राह्मणों ने कह दिया कि वे अवर्ण हैं, इसलिए उनका राज्याभिषेक वैदिक रीति से नहीं हो सकता। उनका राज्याभिषेक पौराणिक रीति से होगा। उसके बाद शिवाजी और उनके साथियों ने बनारस के कुछ ब्राह्मण बुद्धिजीवियों से सम्पर्क किया और उनसे अपनी जाति का इतिहास लिखवाया। इस इतिहास के मुताबिक उन्हें सिसौदिया वंश का बताया गया। महाराणा प्रताप भी सिसौदिया ही थे। वे ऐसे राजपूतों में थे जिन्होंने मुगलों से कभी समझौता नहीं किया।

अब सब कुछ बदल रहा है। गुजरात में हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पाटीदार समुदाय पिछड़ों में शामिल होना चाहता है। लेकिन पटेलों को ही क्यों कहें उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में जाट और महाराष्ट्र में मराठा पिछड़ी जाति में शामिल होने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। ऐसी जातियों की एक लम्बी सूची तैयार है जो पिछड़े से अति पिछड़े या अनुसूचित जनजाति में जाने की इच्छुक हैं। यह बदलाव आपकी सामाजिक स्थिति से नहीं, राजनीति से तय होता है।

प्रथमदृष्टया ऐसा लगता है कि यह समस्या पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के लिए मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से शुरु हुई है। लेकिन ध्यान से देखें तो देश में दो परिवर्तन लगभग एक ही समय पर हुए। मंडल आयोग की सिफारिशों का लागू (वीपीसिंह ने सिफारिशें स्वीकार कीं पर लागू नरसिम्हाराव के समय हुईं) होना और आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होना। मंडल से पहले तक आरक्षण के बाहर की जातियों को करीब 77 फीसदी अवसर उपलब्ध थे। मंडल के बाद यह घटकर पचास फीसदी हो गया। मांग के अनुपात में न तो सरकारी नौकरियों के अवसर बढ़े (बल्कि घट ही गए) और न ही शिक्षण संस्थाओं में स्थान। बात यहीं तक रहती तो शायद इतना असंतोष न होता। आर्थिक उदारीकरण के इन करीब पच्चीस सालों में सभी दलों की सरकारों ने कृषि क्षेत्र की घोर उपेक्षा की। कृषि की बढ़ती लागत और घटता मुनाफा लोगों को इस क्षेत्र से दूर ले जाने लगा। कोढ़ में खाज का काम किया घटते भूमि क्षेत्र ने। आरक्षण की मांग करने वाली ये सभी जातियां हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की अगुआ रही हैं। खेती अब लाभ का व्यवसाय नहीं रह गई है। खेती से निकल कर जिन किसानों के बच्चों ने उच्च शिक्षा की ओर जाना चाहा, उन्हें वहां भी अपने लिए दरवाजे बंद नजर आए। इसका हल उन्हें यही लग रहा है कि आरक्षण वाले खेमे में शामिल हो जाएं या फिर आरक्षण को ही खत्म करवाने की कोशिश करें।

गुजरात में पाटीदार अनामत आंदोलन एक स्वतः स्फूर्त आंदोलन है। इसे सोशल मीडिया का साथ मिला है। इस आंदोलन में राजनीति तो पहले से ही है। आंदोलन की परिणति दो रूपों में हो सकती है। यह एक राजनीतिक दल का रूप ले ले या या किसी राजनीतिक दल का साधन बन जाय। बड़ा सवाल यह नहीं है कि हार्दिक पटेल या उनके संगठन और आंदोलन का क्या होगा। क्या आज किसी को नवनिर्माण आंदोलन के नेता मनीष जानी का नाम भी याद है? सवाल है कि इस आंदोलन ने जो चिंगारी पैदा की है वह कब किस रूप में और कहां विस्फोट में बदलती है क्योंकि संघर्ष का वातावरण बन रहा है। गुजरात का मौजूदा आंदोलन आरक्षण को चुनावी राजनीति के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के हमारे राजनीतिक दलों के कारनामे का अंजाम है।