प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश यात्रा से लौटते समय अचानक लाहौर उतरते हैं और वहां नवाज शरीफ उनको पलकों का बिछौना देते हैं। गले मिलते फोटो छपने के हफ्ते भर बाद भारत में आतंकी वारदात हो जाती है। इधर दोस्ती उधर गोली का यह पुराना क्रम है जो अब तक बरकरार है। अभी गृहमंत्री राजनाथ सिंह पाक को उसके घर में खरी-खरी सुनाकर आए हैं। माहौल पहले भी सुहाना नहीं था पर अब तल्खी और बढ़ी हुई है। पड़ोसी जो मानता नहीं उसका इलाज क्या है, इस पर अजय विद्युत ने रक्षा और विदेश मामलों के जानकार सुशांत सरीन से बातचीत की।

कश्मीर में इस समय जो हो रहा है उसका भारत और पाकिस्तान के रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा?

भारत और पाकिस्तान के रिश्ते पहले भी कोई बहुत अच्छे नहीं थे। कश्मीर में जैसे हालात आज हैं, इससे पहले भी कई आतंकवादी हमले हो चुके थे जिनके तार सीधे पाकिस्तानी मुजाहिद से जुड़ते थे। और उनसे जो बातचीत की तरफ पहल हो रही थी वह धरी की धरी रह जाती थी। तो हालात तो पहले से बहुत कारसाज नहीं थे। और अब कश्मीर में जैसे हादसात हैं और वहां दोबारा से पाकिस्तान का हाथ पाया जा रहा है, जिस तरह से पाकिस्तान के अंदर से बयान आ रहे हैं और वहां आतंकवादी गुट फिर से संगठित और एक्टिव हो रहे हैं, तो उससे तो दोनों मुल्कों के रिश्ते और भी खराब होंगे। कोई बेहतरी की उम्मीद तो नहीं ही होगी। तो मोटी बात तो यह है कि हालात पहले भी अच्छे नहीं थे और कश्मीर में पाकिस्तान के हस्तक्षेप के बाद तो और भी खराब होंगे।

गृह मंत्री राजनाथ सिंह सार्क गृहमंत्रियों के सम्मेलन में शामिल होने पाकिस्तान गए और बैठक में जिस तरह अपनी बात रखी। उस पूरे प्रकरण से आतंकवाद के खिलाफ भारत का पक्ष मजबूत हुआ है या कमजोर?

महज राजनाथ सिंह के पाकिस्तान जाने से आतंकवाद पर कोई असर नहीं पड़ना था। न तो उसे बढ़ावा मिलना था और न ही वह खत्म होना था। लेकिन कूटनीतिक स्तर पर अपना पक्ष रखने का यह एक अच्छा मौका था जिसे राजनाथ सिंह ने अच्छी तरह से निभाया। यहां तक तो बात समझ में आती है। लेकिन दूसरी तरफ क्या कूटनीतिक संदेश दिया पाकिस्तान को, वह कूटनीतिक संदेश पाक समझता है या नहीं समझता, उस पर एक सवालिया निशान अभी है। यह खासकर इसलिए क्योंकि भारत में यह माना जाता है कि अगर आपको पाकिस्तान के खिलाफ कुछ ठोस और कड़े कदम उठाने हैं तो वे आपको कूटनीतिक स्तर पर भी उठाने पड़ेंगे ताकि पाकिस्तान को अलग-थलग किया जा सके। तो इस तरह से जब आप कहते हैं कि हमारी नीति पड़ोसियों को प्राथमिकता देने की है और सार्क में हमारी एक कमिटमेंट है हम उसके तहत चलेंगे। तो पाक को अलग थलग करने का जो अमल है या आप उसे जो कड़ा संदेश देना चाहते हैं वह कहीं डाइल्यूट तो नहीं हो जाता। यह एक सवालिया निशान है।

फिर एक दूसरा पक्ष यह है कि आपके पास एक मौका था। आप उनके घर में जाकर उन्हें एक कड़ा संदेश दे आए। फिर सार्क की सारी औपचारिकता, मर्यादा, शिष्टाचार के दायरे में रहते हुए आपने एक कड़ा संदेश देना था और वह दे दिया। और वह संदेश केवल आप ही का नहीं था बाकी देशों का भी था। बांग्लादेश का भी था, अफगानिस्तान का भी था, पाकिस्तान के खिलाफ। इसके अलावा अगर आप पानी को थोड़ा जांचना चाह रहे थे तो उसका भी मौका मिल गया कि पाकिस्तान का क्या रवैया है, पाकिस्तान की कैसी बदतमीजियां होती हैं। इन सारी चीजों से आप अवगत हो गए। तो कुल मिलाकर यह एक जोखिमभरा दांव था जिसमें पता लग गया कि क्या नतीजा आ रहा है। तो वहां जो कुछ हुआ उससे रिश्ते तो और खराब होंगे ही। अच्छे होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। लेकिन दूसरी तरफ अब यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी एक सबक है कि उनको सार्क समिट में जाना है और अगर उनके साथ भी इसी तरह का व्यवहार होता है तो वह उसको राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर नजरअंदाज कर पाएंगे या नहीं। इस तरह यह सरकार और हमारी विदेश नीति बनाने वालों के लिए सोचने का समय आ गया है कि प्रधानमंत्री और जैसा सुन रहे हैं कि उनसे पहले वित्तमंत्री अरुण जेटली को भी जाना है, तो वह अब मुनासिब है या नहीं है, इसका जवाब जल्द ढूंढना होगा।

दोनों देशों के संबंधों में आपको आगे क्या रास्ता नजर आता है?

फिलहाल तो कोई रास्ता नजर नहीं आता। तमाम कोशिशें कर के देख ली गई हैं। और उनका क्या नतीजा रहा वह हमारे सामने है। जब हम कोई नई पहल करते हैं इस उम्मीद के साथ कि बातचीत बढ़ेगी, कुछ नए रास्ते खुलेंगे तो फिर कभी गुरदासपुर हो जाता है और कभी पठानकोट हो जाता है, या फिर कभी कश्मीर हो जाता है। तो हमने सारी चीजें कर के देख लीं उनसे तो पाक के रवैये में कोई तब्दीली हुई नहीं और न आगे होने की उम्मीद है। और वह शायद तब तक नहीं होगा जब तक पाकिस्तान अपना बेसिक पॉलिसी फ्रेमवर्क नहीं बदलता। इसके तहत वह भारत के अस्तित्व को ही स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उसके इसी बेसिक पॉलिसी फ्रेमवर्क का एक हिस्सा इस्लामी फासिज्म की लहर है जो पूरे पाकिस्तान में दौड़ रही है। इसमें मुस्लिम समाज को तो मनुष्य माना जाता है और बाकी सब को एक छोटे दर्जे का मनुष्य माना जाता है जिनके न तो कोई अधिकार हैं और जिनको अधीन रहना होता है इस्लामी फासिज्म के। जब तक पाकिस्तान का यह रवैया रहेगा मुझे नहीं लगता कि भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में कोई बेहतरी आ सकती है।

गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में कहा कि एक पड़ोसी है जो मानता नहीं। इस पड़ोसी को मनाने का क्या तरीका है?

हां, राजनाथजी ने यह कहा था। लेकिन हमें तो सत्तर साल से पता है कि ‘वह’ मानता नहीं। पर हमारे यहां होता क्या है कि हर बार जब नई सरकार आती है तो वह वही गलतियां फिर से दोहराती है जो उसकी पहली वाली सरकार करके जा चुकी होती है। और जब तक उनको समझ में आता है कि यह जो जानवर है इसका स्वरूप क्या है, इसको कैसे डील करना है, तब तक सरकार का कार्यकाल खत्म हो जाता है। अब मसला यह है कि जो पहिया है आप हर बार नए सिरे से उसका आविष्कार करना शुरू करें तो पहिया तो फिर वैसे ही रहेगा न जैसे साइकिल का पहिया है। उससे आगे तो बढ़ेगा नहीं। मौजूदा सरकार की बात करूं तो मैं तो मानता था कि भाजपा के लोगों में पहले वालों की तरह की बात नहीं है वो ज्यादा हकीकत पसंदी से इस मसले को देखेंगे। तो वह तो हुआ नहीं है उस लिहाज से। बात तो राजनाथ बिल्कुल ठीक कह रहे हैं कि एक पड़ोसी है जो मानता नहीं। पर इस सरकार के लिए सवाल यह खड़ा होगा कि तो फिर आपने क्या किया और क्या कड़े कदम उठाने को आप तैयार हैं। उस पर भी कोई स्पष्ट जवाब अभी हमारे सामने नहीं आता। और सरकार की क्या नीति है? मैं तो बिल्कुल मानता हूं कि ‘नेबर्स फर्स्ट’ वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीति बिल्कुल दुरुस्त नीति है। लेकिन पड़ोसी सिर्फ पाकिस्तान नहीं है न! पड़ोसी तो और भी बहुत सारे देश हैं। तो क्या इस तरह का कोई कदम उठाया जा सकता है कि पाकिस्तान को बिल्कुल अलग थलग कर दिया जाए और बाकी पड़ोसियों के साथ रिश्तों को और बेहतर बनाने की रफ्तार में और तेजी लाई जाए। उनके साथ कनेक्टिविटी या और जो मसले हैं जैसे मार्केट आदि, हालांकि वो थोड़ी दूर की चीजें हैं पर उन्हें हम आगे बढ़ा सकते हैं या नहीं बढ़ा सकते। और इसमें पाकिस्तान को अलग थलग रख दिया जाए।
बात तो वहीं पर आ जाती है कि उस पड़ोसी को मनवाने के लिए या उसके रवैये को बदलने के लिए आप कौन से कदम उठा सकते हैं और कौन से कदम उठाने को तैयार हैं… चाहे वे सैन्य हों, कूटनीतिक स्तर पर हों या राजनीतिक स्तर पर हों, प्रत्यक्ष हों या परोक्ष हों। वो क्या कदम हैं इस पर सरकार में कोई स्पष्टता है या नहीं है। तो ऐसे स्पष्ट दिशानिर्देश शायद अभी हमारे पास नहीं हैं।

पाकिस्तान को मनाना तो संभव नहीं हो सकता, हां कैसे आप उस पर कोई बात थोप सकते हो तो उस तरकश में तमाम तीर हैं। लेकिन उन तीरों को निकालना पड़ता है। अब तरकश में तीर रखकर तो कोई फायदा नहीं है। परोक्ष तौर पर बहुत कुछ किया जा सकता है, आर्थिक स्तर पर बहुत कुछ किया जा सकता है। हमें पता है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था उसकी क्या कमजोरियां हैं और उसको किस तरह से एक्सप्लॉयट किया जा सकता है और कैसे उनके ऊपर और दबाव बनाया जा सकता है। कैसे हम उनको उन्हीं की कीमत पर अलग थलग कर सकते हैं और दुनियाभर के साथ अपना ‘एंगेजमेंट’बढ़ा सकते हैं। हमारे यहां तो उस तरह का कोई माहौल नजर नहीं आता कि पाकिस्तान के खिलाफ एक कैंपेन लांच किया जाए जिसमें दुनिया के तमाम राजनयिकों से बातचीत कर उनको पाकिस्तान की खुराफात समझाई जाए।

इसके उलट हमारे देश में तो जो डिप्लोमेट आते हैं वे कहते हैं, ‘आप बात तो ठीक कह रहे हैं लेकिन पाकिस्तानी तो हमसे बहुत गर्मजोशी से मिलते हैं, अपना पक्ष रखते हैं, हमें समझाने की कोशिश करते हैं। तो वो हमारे साथ ऐसी डिप्लोमेसी करते हैं। वहीं आपके जो लोग हैं वो अपनी ऐंठ में रहते हैं और उस तरीके से हमारे लोगों के साथ एंगेज नहीं करते।’ कुछ दिन पहले यूरोपीय यूनियन से कुछ लोग आए हुए थे। वो कह रहे थे कि ‘हम मंत्री से मीटिंग करना चाहते हैं पर मीटिंग की डेट ही नहीं मिलती। अब जो मंत्री आप नियुक्त करते हैं उसका कुछ इंटरेस्ट ही नहीं है यूरोपीय यूनियन के लोगों में। तो जब आपको जरूरत पड़ती है आप राजनीतिक समर्थन के लिए हमारे पास आते हैं। हमको पता ही नहीं है कि आपका क्या पक्ष है।’ तो उस लिहाज से कूटनीतिक स्तर पर एक दो ऐसी पॉलिसी की जरूरत है। हमारे जो बहुत सारे इंटरनेशनल ग्रुप्स और फोरम हैं वहां पर कैसे हम ऐसा माहौल बना सकते हैं जिससे पाकिस्तान को अलग थलग किया जा सके। कैसे पाकिस्तान की छवि को और खराब किया जा सकता है जो कि आॅलरेडी बड़ी खराब है दुनियाभर में। अब पाकिस्तान की छवि तो उसकी अपनी खुराफातों की वजह से खराब है। लेकिन आप उसमें कैसे अपना हिस्सा डाल सकते हैं दुनिया को यह बताने के लिए कि यह किस तरह का दहशतगर्द मुल्क है। और फिर पाकिस्तान के भीतर किस तरह की बर्बरताएं हो रही हैं चाहे बलूचिस्तान हो या फाटा का इलाका हो या खैबर या कराची हो। कराची के बारे में हम भी तो यह कह सकते हैं न कि वहां भारतीय मूल के मुसलमान बसते हैं। वहां आप उन पर ज्यादतियां कर रहे हैं, उनके खिलाफ हिंसा कर रहे हैं, उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं। चूंकि उनके परिवार भारत में हैं इसलिए हमारा फर्ज बनता है यह कहने का कि उनके साथ ऐसा व्यवहार न किया जाए।

देखिए निकालने को तो बहुत कुछ है जो निकाला जा सकता है पाकिस्तान के खिलाफ। इसके लिए एक व्यापक और समग्र राष्ट्रीय नीति बननी चाहिए कि उनके साथ हमको कैसे डील करना है। अब उसमें समस्या यह आती है कि जब सरकारें बदलती हैं तो नीति बदल जाती है। फिर जो नई सरकार आती है वह उन्हीं सारी बातों को दोबारा से शुरू करना चाहती है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने कुछ कदम उठाए थे तो जब मनमोहन सिंह आए तो उन्हें दरकिनार कर दिया कि नहीं-नहीं, हम सॉल्व कर लेंगे सारा कुछ। दस साल वो काट गए। तो ये कुछ प्रॉब्लम रही हैं हमारी सरकारों में। हर सरकार में यह रही है।

और फिर हमारे यहां कुछ लोग या समूह हैं। पाकिस्तान का जो पक्ष होता है उसे बड़े जोरशोर से पेश किया जाता है यहां पर। यह बहुत बड़ा मसला है हमारे लिए। तमाम चीजों को मिला जुलाकर देखा जाए तो हमें अपने भीतर एक स्पष्टता और दृढ़ता लानी पड़ेगी कि हम पाकिस्तान के साथ करना क्या चाहते हैं। मेरे ख्याल से जब तक हम इस मोर्चे पर नहीं सोचते हमारे लिए आगे बढ़ना बहुत मुश्किल है।

क्या पाकिस्तान के खिलाफ किसी कठोर एक्शन से भारत इसलिए कतरा रहा है कि उसकी सैन्य तैयारी पुख्ता नहीं है?

देखिए सेना की तैयारी कभी भी युद्ध के लिहाज से उतनी पुख्ता नहीं होती। दुनिया की आप कोई भी सेना ले लें, चाहे वह बेशक अमेरिका की सेना हो, और उससे पूछा जाए कि क्या आपकी तैयारी मुकम्मल है। तो वो यही जवाब देंगे कि नहीं जनाब, बड़े ‘गैप्स’ (कमियां) हैं। तो एक तो वह फैक्टर रहता है। दूसरी बात लेकिन यह भी है कि पिछले दस-बारह साल से सेना की आवश्यकताओं के प्रति उदासीनता दिखाई गई। इसमें नेता-नौकरशाह सभी शामिल रहे। खासतौर पर ये जो आईएएस वाले हैं जिनको इंडियन एसेस (गदहा) सर्विस कहना चाहिए, ये जितने बाबू हैं जो कुछ करते नहीं हैं फाइलों को पुश करने के अलावा। आज तक एक ढंग का काम नहीं किया इन्होंने, हर चीज में अड़ंगा लगाते हैं। तो एक तो बाबुओं ने और दूसरे नेताओं ने…। पिछली सरकार में जो सेंट (एके) एंटनी (पूर्व रक्षामंत्री) थे उन्होंने एक भी डील को आगे नहीं बढ़ने दिया। कोई माडर्नाइजेशन नहीं। आपकी डिफेंस में जो गैप्स थे उनमें एक को भी पूरा नहीं किया गया। तो एक यह प्रॉब्लम तो जरूर है जिसे हम सिरे से नकार नहीं सकते।

लेकिन जिस कठोर एक्शन की बात आप कर रहे हैं तो क्या भारत सरकार यह चाहेगी कि ऐसे समय में जबकि आर्थिक विकास की तरफ उसकी ज्यादा तवज्जो है, कोई ऐसा कदम उठाया जाए जो तरक्की की तरफ उसके अमल को खराब करे। मैं नहीं मानता कि अभी इस तरह के हालात पैदा हुए हैं जहां पर सरकार को वह कदम उठाना पड़े जो जंग की तरफ लेकर जाए। हां यह अलग बात है कि अगर पाकिस्तान की तरफ से कोई बड़ी हिमाकत होती है या इस तरह का कदम उठाया जाता है, फिर तो सरकार के पास कोई चारा नहीं बचता कि जिस कदम को उठाने से वे गुरेज कर रहे हैं उसे उठाया जाए। लेकिन जब तक ऐसे हालात नहीं हैं तब तक जो कुछ हो रहा है उसे हल करने के लिए हम कोई हमला बोल दें, यलगार कर दें, शायद वह अभी मुनासिब न हो।

जब हम कठोर एक्शन की बात करते हैं तो उसमें यह रिस्क तो रहता है कि आपने कुछ किया। फिर उसकी प्रतिक्रिया आई। फिर आपने काउंटर प्रतिक्रिया की। तो बात बढ़ती चली जाएगी और हालात तेजी से बदलेंगे। फिर उसको कौन संभालेगा। हां बात दुरुस्त है आपकी, पर वह तब जब दो मुल्कों की सैन्य क्षमता में भारी अंतर हो और सुपीरियॉरिटी आपके पास हो। ऐेसे में अगर आपने कोई कदम उठाया तो उस पर रिएक्ट करने से पहले वह पचास बार सोचेगा। वहां जब आप पूछते हैं कि सेना की तैयारी इस लेवल की है कि नहीं, तो आपकी बात ठीक है। इस मामले में सबसे अच्छा उदाहरण अमेरिका का दिया जा सकता है। अगर अमेरिका पाकिस्तान के खिलाफ कोई हमला करता है तो जो सिम्पल कंवेंशनल बैलेंस है वह इतना ज्यादा अमेरिका के पक्ष में है कि पाकिस्तान शोर तो मचा सकता है लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता। वह चीखेगा-चिल्लाएगा लेकिन कुछ करने से पहले सोचेगा कि कुछ किया तो और कसके पिटाई होगी।

लेकिन सैन्य ताकत का यह लेवल आपका नहीं है तो फिर रिस्क होता है कि बात बढ़कर कहां तक पहुंचेगी और बाद में उसे कंट्रोल करना किसी के लिए भी काफी मुश्किल हो जाता है। उसमें एक रिस्क फैक्टर आ जाता है कि यह बात कहां पर जाकर रुकेगी। और फिर जिस बात को आप हल करना चाह रहे हैं क्या उसको हल करने का तरीका यही है कि इस तरह का कोई कदम उठाया जाए। इसमें आपको जो कीमत चुकानी पड़ेगी वह ज्यादा नहीं हो जाएगी बनस्पत उसके जो आप पहले बिना कुछ किए चुका रहे थे। मेरा ख्याल है कि अगर सैन्य क्षमताओं में बहुत बड़ा अंतर न हो तो सरकारों को कॉस्ट बेनिफिट एनालिसिस के आधार पर आगे बढ़ना पड़ता है। ऐसा समझिए कि कल को आपको मालदीव में कोई कार्रवाई करनी है। तो आपके पास बढ़त काफी ज्यादा है। मालदीव क्या बोलेगा आपको? शोर मचाएंगे और संयुक्त राष्टÑ में कोई प्रस्ताव पेश कर देंगे। इससे ज्यादा क्या कर सकते हैं। काउंटर रिटैलिएशन तो नहीं ही कर सकते न!

अगर ऐसी स्थिति बनती है कि पाकिस्तान के साथ पारंपरिक युद्ध (कंवेशनल वॉर) छिड़ ही जाता है तो आपको उस दशा में क्या लगता है। हमारी सेना की पूरी तैयारी है?

तैयारी तो है। ऐसा तो नहीं है कि फौज की कोई तैयारी ही नहीं है। लेकिन क्या आपके पास उस लेवल की सुपीरियॉरिटी है। सुपीरियॉरिटी वह होती है कि बिना एक भी गोली खाए आप जंग जीत जाते हैं। तो इससे अच्छी बात कौन सी हो सकती है। लेकिन शायद वह सुपीरियॉरिटी आपके पास नहीं है। भारत की सुपीरियॉरिटी तो है लेकिन उस स्तर की नहीं है कि बिना बंदूक की एक गोली चलाए दूसरा पक्ष बेहतरी इसी में समझे कि मैं ही हथियार डाल दूं। तो ऐसे में अगर आप पारंपरिक युद्ध करते हैं तो उसमें कॉस्ट बेनिफिट एनालिसिस देखना पड़ता है कि बात कहां पर जाकर रुकेगी। हमारे पास इतनी सुपीरियॉरिटी तो है कि पाकिस्तान की तरफ से इस तरह का कोई दुस्साहस नहीं हो सकता। दुस्साहस होगा भी तो कारगिल टाइप का कोई छोटा मोटा करने की कोशिश करेंगे। फिर उनकी पिटाई होती है तो वे वापस चले जाते हैं। हालांकि अब तो कारगिल भी मुश्किल ही लगता है कि वो करेंगे लेकिन एक पॉसिबिलिटी तो हरदम रहती है। लेकिन पूर्ण युद्ध बड़ा महंगा जोखिम है। आर्थिक पक्ष तो है ही, साथ ही दूसरे कई पहलू भी हैं। फिर चीन का क्या रुख रहेगा। और पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं उनको भी देखना होगा। उसे आप सिरे से नकार नहीं सकते। इस खतरे का सामन करने के लिए आपको तैयार रहना पड़ेगा। तो क्या इतने कैविलियर एटीट्यूड के साथ आप जा सकते हैं और हिसाब कर सकते हैं। मेरा ख्याल है कि कोई भी सरकार दस बार सोचेगी ऐसी कोई चीज करने से पहले।
ऐसा न करते हुए भी आप बहुत कुछ ऐसा कर सकते हैं और अपने दुश्मन को काफी तकलीफ पहुंचा सकते हैं। जरूरी नहीं कि आपको जाकर उसकी नाक पर मुक्का ही मारना है तभी आपका काम सुलझेगा। और भी बहुत तरीके होते हैं जिनसे आप उनको उनके घुटने पर लेकर आ सकते हैं। मेरा कहना है कि ऐसे तमाम विकल्पों को हमने तवज्जो नहीं दी और उनको अपनाने की नहीं सोची। चाहे वे कूटनीतिक हों, राजनीतिक हों, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हों हमने उनपर ध्यान नहीं दिया, न ही तराशा। अगर हम कोई कदम उठाते भी हैं तो तीन महीने बाद, पाकिस्तान के जो पक्षधर भारत में खूब सारे बसते हैं, उनकी तरफ से यह बवाल शुरू हो जाता है कि इस पॉलिसी का तो कोई फायदा ही नहीं हुआ। अब वापस चले जाइए। और हम फिर वापस चले जाते हैं। तो जिस पॉलिसी या नीति को अपना नतीजा दिखाने में जो समय लगता है वह समय देने को आप तैयार नहीं हैं। हर बार यह होता है कि आप कड़े से कड़े कदम उठाते हैं और तीन-चार महीने के अंदर उससे पलटी खा लेते हैं। एक तो इससे जो संदेश जाता है पाकिस्तान में वह बड़ा नकारात्मक जाता है कि इनकी कोई औकात नहीं है कि कुछ करें। दूसरा जो पॉलिसी आप अपनाते हैं चूंकि उसे तार्किक अंजाम तक नहीं लेकर जाते तो यह नहीं कह सकते कि वह पॉलिसी कारगर है या नहीं है।
एक राष्टÑीय नीति बनानी पड़ेगी। अगर इसे आप किसी पार्टी या किसी पार्टी की सरकार के साथ जोड़कर देखेंगे तो फिर आप अपनी विदेश नीति का राजनीतिकरण कर रहे हैं। किसी भी देश को उसका कोई फायदा नहीं होता। बेहतर तो यह हो कि तमाम राजनीतिक दल राष्टÑीय सुरक्षा और राष्टÑीय हितों के मामलों पर एक रवैया स्वीकार करें। लेकिन वह अक्सर नहीं होता। अब वही चिदंबरम साहब हैं वे जब गृह मंत्री रहे और सरकार में बड़े बड़े ओहदों पर रहे तब उनका एक रवैया होता था। अब आप विपक्ष में हैं तो कहते हैं कि आप कश्मीरियों को यह भी दे दें, पाकिस्तान के साथ यह भी कर लें। तो देखिए कैसे रवैये बदलते हैं इनके। जब इस तरह के लोग होंगे आपकी राजनीति में तो फिर यह अपेक्षा करना कि राजनीतिक दल ऐसी किसी नीति पर सहमत होंगे जो पाकिस्तान के साथ हमारे मसलों को तार्किक परिणति तक लेकर जाए, असंभव सी बात है।