BPNMपं. भानुप्रतापनारायण मिश्र। 

चातुर्मास्य शब्द सुनते ही उन सभी साधु-संतों का ध्यान आ जाता है, जो चार मास एक ही स्थान पर रहते हुए लोगों को धर्म संबंधी ज्ञान उपलब्ध कराकर सत्य पर आधारित जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं।

चातुर्मास्य आषाढ़ शुक्ल एकादशी (इसे देवशयनी या हरिशयनी एकादशी भी कहते हैं) से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी (देव उठावनी या देवोत्थान एकादशी) तक होता है।

सनातन धर्म में चातुर्मास्य की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है, जिसका अनुकरण आज भी हमारे साधु-संत करते हैं। प्रसिद्ध धर्म ग्रंथों- महाभारत आदि में चातुर्मास की महिमा का विषद गान किया गया है।

चातुर्मास असल में संन्यासियों द्वारा समाज को मार्गदर्शन करने का समय है। आम आदमी इन चार महीनों में अगर केवल सत्य ही बोले तो भी उसे अपने अंदर आध्यात्मिक प्रकाश नजर आएगा। नाम चर्चा और नित्य नाम स्मरण भी ऐसा फल प्रदान करते हैं।

इस वर्ष देवशयनी एकादशी व्रत 23 जुलाई को है। इसे पद्मा एकादशी, पद्मनाभा एकादशी भी कहा जाता है। गृहस्थ आश्रम में रहने वालों के लिए चातुर्मास्य नियम इसी दिन से प्रारंभ हो जाते हैं। संन्यासियों का चातुर्मास्य 27 जुलाई को यानी गुरु पूर्णिमा के दिन से शुरू होगा।

देवशयनी एकादशी नाम से पता चलता है कि इस दिन से श्री हरि शयन करने चले जाते हैं। इस अवधि में श्री हरि पाताल के राजा बलि के यहां चार मास निवास करते हैं।

भगवान विष्णु कार्तिक शुक्ल एकादशी, जिसे देवप्रबोधिनी एकादशी (इस बार 19 नवंबर को) भी कहा जाता है, के दिन पाताल लोक से अपने लोक लौटते हैं। इसी दिन चातुर्मास्य नियम भी समाप्त हो जाते हैं।

इन चार मासों में कोई भी मंगल कार्य- जैसे विवाह, नवीन गृहप्रवेश आदि नहीं किया जाता है। ऐसा क्यों? तो इसके पीछे सिर्फ यही कारण है कि आप पूरी तरह से ईश्वर की भक्ति में डूबे रहें, सिर्फ ईश्वर की पूजा-अर्चना करें।

देखा जाए तो बदलते मौसम में जब शरीर में रोगों का मुकाबला करने की क्षमता यानी प्रतिरोधक शक्ति बेहद कम होती है, तब आध्यात्मिक शक्ति प्राप्ति के लिए व्रत करना, उपवास रखना और ईश्वर की आराधना करना बेहद लाभदायक माना जाता है।