अजय विद्युत
रक्षाबंधन पर न केवल बहन भाई को ही अपितु अन्य सम्बन्धों में भी रक्षा (या राखी) बांधने का प्रचलन है। गुरु शिष्य को रक्षासूत्र बांधता है तो शिष्य गुरु को। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बांंधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बांधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी परम्परा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षासूत्र बांधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिये परस्पर एक दूसरे को अपने बन्धन में बांधते हैं।
श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाए जाने वाले रक्षाबंधन का इतिहास सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा हुआ है। वह भी तब जब आर्य समाज में सभ्यता की रचना की शुरुआत मात्र हुई थी। रक्षाबन्धन पर्व सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता या एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपाय रहा है। विवाह के बाद बहन पराये घर में चली जाती है। इस बहाने प्रतिवर्ष अपने सगे ही नहीं अपितु दूरदराज के रिश्तों के भाइयों तक को उनके घर जाकर राखी बांधती है और इस प्रकार अपने रिश्तों का नवीनीकरण करती रहती है। दो परिवारों का और कुलों का पारस्परिक मिलन होता है। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच भी एकसूत्रता के रूप में इस पर्व का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार जो कड़ी टूट गयी है उसे फिर से जागृत किया जा सकता है। 
कृष्ण व द्रौपदी 
महाभारत में उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत भी है। 
कहते हैं कि पहली राखी युद्ध में विजय के लिए इंद्राणी ने देवराज इंद्र को बांधी थी। इतिहास का एक उदाहरण कृष्ण व द्रौपदी का माना जाता है। कृष्ण भगवान ने दुष्ट राजा शिशुपाल को मारा था। युद्ध के दौरान कृष्ण के बाएं हाथ की अंगुली से खून बह रहा था। इसे देखकर द्रोपदी बेहद दुखी हुईं और उन्होंने अपनी साड़ी का टुकड़ा चीरकर कृष्ण की अंगुली में बांधा जिससे उनका खून बहना बंद हो गया। तभी से कृष्ण ने द्रोपदी को अपनी बहन स्वीकार कर लिया था। वर्षों बाद जब पांडव द्रौपदी को जुए में हार गए थे और भरी सभा में उनका चीरहरण हो रहा था तब कृष्ण ने द्रोपदी की लाज बचाई थी। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई। 
 
एक मत यह भी
रक्षाबंधन पर बहनों को भाइयों की कलाई में रक्षा का सूत्र बांधने का बेसब्री से इंतजार रहता है। पर असल में रक्षाबंधन की परंपरा ही उन बहनों ने डाली थी जो सगी नहीं थीं। भले ही उन बहनों ने अपने संरक्षण के लिए ही इस पर्व की शुरुआत क्यों न की हो लेकिन उसी बदौलत आज भी इस त्योहार की मान्यता बरकरार है। इतिहास के पन्नों में जाएं तो इस त्योहार की शुरुआत की उत्पत्ति लगभग छह हजार साल पहले बताई गई है। इसके कई साक्ष्य भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। 
इतिहास में रक्षाबंधन की शुरुआत का सबसे पहला साक्ष्य रानी कर्णावती व सम्राट हुमायूं हैं। मध्यकालीन युग में राजपूत व मुस्लिमों के बीच संघर्ष चल रहा था। रानी कर्णावती चितौड़ के राजा की विधवा थीं। उस दौरान गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह से अपनी और अपनी प्रजा की सुरक्षा का कोई रास्ता न निकलता देख रानी ने हुमायूं को राखी भेजी थी। तब हुमायूं ने उनकी रक्षा कर उन्हें बहन का दर्जा दिया था। 
दूसरा उदाहरण अलेक्जेंडर व पुरु के बीच का माना जाता है। बताया गया है कि हमेशा विजयी रहने वाला अलेक्जेंडर भारतीय राजा पुरु की प्रखरता से काफी विचलित हुआ। इससे अलेक्जेंडर की पत्नी काफी तनाव में आ गई थीं। उसने रक्षाबंधन के त्योहार के बारे में सुना था। इसी कारण उसने भारतीय राजा पुरु को राखी भेजी। तब जाकर युद्ध की स्थिति समाप्त हुई थी क्योंकि भारतीय राजा पुरु ने अलेक्जेंडर की पत्नी को बहन मान लिया था। 
 
भारतीय सनातन परंपरा
वेदों में इस पर्व को लेकर ऋषियों के गुरुकुलों व आमजनों के लिए स्वाध्याय पर जोर दिया गया है। लेकिन काल के प्रभाव से इस पर्व पर वेद स्वाध्यायात्मक ऋषि तर्पण का लोप-सा हो गया। होमयज्ञ का प्रचार भी उठ गया। आजकल श्रावणी कर्म का स्वरूप यह है कि धार्मिक आस्थावान यज्ञोपवीतधारी द्विज श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को गंगा आदि नदी अथवा किसी पवित्र सरोवर तालाब या जलाशय पर जाकर सामूहिक रूप से पंचगव्य प्राशनकर प्रायश्चित संकल्प करके मंत्रों द्वारा दशविध स्नान कर शुद्ध हो जाते हैं। 
इसके बाद वे समीप के किसी देवालय आदि पवित्र स्थल पर आकर अरुन्धीसहित सप्तर्षियों का पूजन, सूर्योपस्थान, ऋषितर्पण आदि कृत्य संपन्न करते हैं। तदुपरांत नवीन यज्ञोपवीत का पूजन, पितरों तथा गुरुजनों को यज्ञोपवीत दान कर स्वयं नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं।