बनवारी

देश की राजनीति एक निरंतर चलने वाले युद्ध में परिवर्तित होती जा रही है, जिसका उद्देश्य है मतदाताओं के विभिन्न वर्गांे को गोलबंद करते रहना। इस युद्ध के कोई नियम नहीं रह गए हैं और उसमें शामिल व्यक्ति, संगठन और दल परिस्थिति के अनुसार अपनी राय बदलते रहते हैं। इस राजनीतिक युद्ध का ताजा बहाना सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति और जनजाति (उत्पीड़न निरोधक) अधिनियम 1889 को लागू करने की प्रक्रिया को तर्कसंगत बनाने के लिए 20 मार्च को दिया गया आदेश है। जस्टिस आदर्श गोयल और जस्टिस उदय उमेश ललित की बेंच ने एक मामले की सुनवाई करते हुए निर्णय दिया था कि इस कानून के अंतर्गत शिकायत पर बिना जांच किए गिरफ्तारी न की जाए। सात दिन के भीतर जांच पूरी करने के बाद अगर पहली नजर में शिकायत निराधार नहीं दिखती तो कार्रवाई शुरू हो। आरोपित व्यक्ति अगर सरकारी कर्मचारी है तो उसे गिरफ्तार करने की अनुमति उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी से प्राप्त की जाए और अगर वह सामान्य नागरिक है तो अनुमति एसएसपी या उसके स्तर के अधिकारी से प्राप्त की जाए। इस कानून के अंतर्गत दर्ज शिकायतों की जांच केवल डीएसपी स्तर का अधिकारी ही कर सकता है, इसलिए गिरफ्तारी के लिए एसएसपी की अनुमति आवश्यक की गई है। अदालत ने यह भी निर्णय सुनाया कि अगर शुरू की जांच में शिकायत सही न दिखे तो आरोपी को जमानत दी जा सकती है। यह फैसला आते ही दलित नेता और संगठन लामबंद हो गए, एक-एक करके अधिकांश विपक्षी दलों ने उनका समर्थन करने की घोषणा की और दो अप्रैल को भारत बंद का आह्वान कर लिया गया। भारत बंद के दौरान व्यापक हिंसा हुई। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पंजाब में स्थिति काफी बिगड़ी और कुल मिलाकर 11 लोगों की जान चली गई।
कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ और अंत में अगले वर्ष के आम चुनाव से पहले विपक्षी दलों के पास केंद्र सरकार को घेरने और दलित वर्गांे को लामबंद करने का यह नायाब मौका था। भारत बंद का समर्थन करने वाले दलों ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश ठीक से पढ़ने की आवश्यकता भी नहीं समझी। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका डाली जाए और इस फैसले को परिवर्तित करवाया जाए। भाजपा भी अनुसूचित जाति और जनजातियों का विश्वास जीतने में लगी हुई है, इसलिए उसके लिए इस दबाव की अनदेखी करना संभव नहीं था। उससे पहले अनुसूचित जाति और जनजाति के लगभग 150 कर्मचारी संगठनों की शिखर संस्था आॅल इंडिया फेडरेशन आॅफ एससी/एसटी आर्गनाइजेशन सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा चुकी थी और न्यायालय ने 20 मार्च के निर्णय पर रोक लगाने से मना कर दिया था। जब केंद्र सरकार न्यायालय पहुंची तो उसका पुनर्विचार के लिए आवेदन स्वीकार अवश्य कर लिया गया, लेकिन अदालत ने दस दिन बाद सुनवाई करने का निर्णय दिया और कहा कि वह आंदोलन आदि के दबाव से प्रभावित नहीं होती। उसने संबंधित कानून में कोई परिवर्तन नहीं किया है, उसे हल्का नहीं बनाया है, केवल निर्दोष लोगों के अधिकारों की रक्षा करने का प्रयत्न किया है। उसने प्रति प्रश्न किया कि क्या एक निर्दोष व्यक्ति को जेल भेजा जाना उचित है, क्योंकि जांच में शिकायत निराधार भी सिद्ध हो सकती है। अदालत ने कहा कि उसने केवल कानून पर अमल की प्रक्रिया को तर्कसंगत बनाने की कोशिश की है।
विपक्षी दलों पर सर्वोच्च न्यायालय की बेंच द्वारा दी गई सफाई का कोई असर नहीं पड़ा और वे सरकार को कठघरे में खड़ा करने में लगे रहे। कांग्रेस ने सबसे आक्रामक होकर सरकार पर आक्षेप किए। उसने मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि अदालत के निर्णय में उसकी सक्रिय भूमिका थी। जवाब में प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार पर आंबेडकर, उनके विचारों और दलितों की अनदेखी के आरोप लगाए जा रहे हैं, जो बिल्कुल निराधार हैं। उनकी सरकार ने बाबा साहेब आंबेडकर को किसी और सरकार से अधिक सम्मान दिया है और उनके विचारों पर अमल करने की कोशिश की है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि भारत बंद के दौरान 11 लोगों की मृत्यु के लिए सीधे विपक्ष जिम्मेदार है। इस आरोप-प्रत्यारोप में न कहीं यह समझने की कोशिश की गई कि अनुसूचित जाति और जनजाति (उत्पीड़न निरोधक) अधिनियम जैसे अत्यंत कड़े कानून के होते हुए भी दलित जातियों के विरुद्ध अत्याचार क्यों नहीं रुक रहे और न यह चिंता दिखाई दी कि सामाजिक न्याय की उतावली में निर्दोष लोगों पर तो अन्याय नहीं हो रहा। इस कड़े कानून के बावजूद दलितों पर अत्याचार बढ़ते ही जा रहे हैं, इसका प्रमाण भाजपा सरकार द्वारा 2016 में इस कानून को लागू करने के लिए जोड़े गए और सख्त नियम हैं। इस कानून का दुरुपयोग होना भी उतना ही सच है, इसका प्रमाण मायावती के 2007 के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद दिए गए निर्देश हैं। मुख्यमंत्री बनने के एक सप्ताह में मायावती ने मुख्य सचिव शंभूनाथ को निर्देश दिए थे कि केवल अत्यंत गंभीर मामलों को ही इस कानून के अंतर्गत दर्ज किया जाए। अन्य मामलों में भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत ही कार्रवाई की जाए। उन्होंने यहां तक निर्देश दिया था कि बलात्कार की शिकायत पर भी तभी कार्रवाई की जाए, जब पीड़िता की चिकित्सकीय जांच में अपराध की पुष्टि हो जाए। उसके कुछ समय बाद 29 अक्टूबर 2007 को पुलिस महानिदेशक को निर्देश दिए गए कि अगर इस कानून के अंतर्गत कोई शिकायत झूठी पाई जाए तो शिकायतकर्ता पर धारा 182 के अंतर्गत कार्रवाई हो। मायावती दलित राजनीति के सहारे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं। उनके द्वारा दिए गए ये निर्देश 20 मार्च के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से अधिक गंभीर हैं। अगर मायावती को यह लगता था कि इस कानून के अंतर्गत की जाने वाली सभी शिकायतें सही नहीं होतीं तो सर्वोच्च न्यायालय के ऐसा मानने पर मायावती और अन्य विपक्षी दलों को इतनी आपत्ति क्यों होनी चाहिए।
दलित कही जाने वाली जातियों का उत्पीड़न और उनके प्रति बरता जाने वाला भेदभाव एक गंभीर समस्या है। भारत में 16.6 प्रतिशत अनुुसूचित जाति के लोग हैं और 8.6 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के। अनुसूचित जातियों के एक वर्ग को इस आधार पर अछूत मान लिया गया था कि वे कुछ मलिन व्यवसायों से जुड़े हैं। अंग्रेज जिनके यहां 85 प्रतिशत आबादी मनुष्य से हीन कोटि की मानी जाती रही और उनके पास न संपत्ति का अधिकार था, न जीवन का, इस सामाजिक समस्या को राजनीतिक स्वरूप देने में लगे हुए थे। उन्होंने गोलमेज कांफ्रेंस के जरिये अनुसूचित जातियों को गोलबंद करने की राजनीति खेली और दलित आंदोलन पैदा कर दिया। गांधी जी ने इस गंभीर समस्या का वास्तविक समाधान निकालने के लिए अनेक प्रयत्न किए। हरिजन मंदिर प्रवेश आंदोलन उनमें से एक था। गांधी जी इस समस्या को लेकर कितने गंभीर थे, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे बाद के दिनों में केवल भंगी बस्तियों में ही ठहरते थे ताकि शेष समाज की उनके प्रति आत्मीयता बढ़े और इन बस्तियों को साफ-सुथरा बनाने की दिशा में कुछ ठोस प्रयत्न हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजादी की लड़ाई का अंग नहीं था लेकिन उसने छुआछूत मिटाने के लिए समवेत भोजन की परंपरा शुरू की थी और स्वयं गांधी जी ने इसकी प्रशंसा की थी। आजादी के बाद संविधान में छुआछूत समाप्त करने के कानून बनाने में जरा देर नहीं की गई। अमेरिका में 1970 तक अश्वेत लोग न गोरे लोगों की बस्तियों में रह सकते थे, न उनके बच्चों के साथ अपने बच्चों को पढ़ा सकते थे, न उनके साथ बस या रेलगाड़ी में बैठ सकते थे, न रेस्तरां में चाय-नाश्ता ले सकते थे। उनके रंगभेद से जातीय भेदभाव की तुलना नहीं की जा सकती। भारत को सार्वजनिक जीवन से जातीय भेदभाव का निषेध करने में जरा समय नहीं लगा।
भारत में दलित लोगों के उत्पीड़न और उनके साथ बढ़ते जाने वाले भेदभाव को लेकर जो संवेदनशीलता दिखाई गई है, उसका परिणाम 1989 का कानून है। दुनिया में कहीं भी सामाजिक न्याय के लिए इससे कड़ा कानून नहीं है। उसमें 1995 में और फिर 2016 में जो नियम जोड़े गए हैं, उससे उसका स्वरूप और विस्तृत हो गया है। इस कानून के द्वारा अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों पर किए गए अपराधों को अन्य सामान्य लोगों पर किए गए वैसे ही अपराधों से अधिक गंभीर बना दिया गया है। इस कानून के अंतर्गत की गई शिकायत पर तुरंत गिरफ्तारी होती है। उसकी जांच डीएसपी स्तर का पुलिस अधिकारी ही कर सकता है। इस कानून के अंतर्गत मामलों की जल्द सुनवाई के लिए सत्र अदालतों को विशेष अदालत के रूप में नामित किया जाता है। शिकायतकर्ता को मुआवजे का प्रावधान भी है और दस प्रतिशत मुआवजे की राशि तत्काल दिए जाने की व्यवस्था है। इतने कड़े कानून और इतनी विस्तृत व्यवस्थाओं के बाद यह आशा उचित ही है कि अनुसूचित जाति और जनजातियों पर होने वाले अपराधों में कमी आएगी। लेकिन ऐसा होता दिखता नहीं है।
सभी समाजों में किसी न किसी आधार पर ऊंच-नीच की और परस्पर विद्वेष की भावनाएं पनपती रही हैं और पनपती रहती हैं। भारत में ऊंच-नीच और विद्वेष की भावनाएं जातीय आधार पर भी फलती-फूलती रही हैं। उन्हें समाप्त करने के लिए कानून तो आवश्यक है ही, पर उससे भी अधिक एक सामाजिक आंदोलन आवश्यक है। इस तरह के सामाजिक सुधार आंदोलन भारत में पुराने समय से होते रहे हैं। इसका सबसे ऊंचा उदाहरण आदि शंकर का मनीषा पंचकम स्तोत्र है। उसके अलावा मध्य काल और आधुनिक काल में अनेक सामाजिक और धार्मिक आंदोलन जातीय भेदभाव को दूर करने और सामाजिक समरसता बढ़ाने के लिए हुए हैं। दूसरी तरफ दलित जातियों को राजनीतिक रूप से संगठित करने की कोशिश हुई। कुछ दलित नेताओं ने इस आंदोलन को आक्रामक और हिंसक स्वरूप दे दिया।
अब तक के सामाजिक और राजनीतिक प्रयत्नों के परिणामस्वरूप जहां व्यापक समाज में जातीय भेदभाव कम हुआ है, वहीं कुछ वर्गांे में जातीय विद्वेष और कट्टरता बढ़ी भी है। इसका कारण जितना परंपरागत पूर्वाग्रह है, उतना ही दलित आंदोलन की आक्रामकता और हिंसा है। दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों ने इस समस्या को कम करने की बजाय बढ़ाया ही है। उनकी उतनी चिंता दलित जातियों को न्याय दिलाने में नहीं दिखती, जितनी उन्हें गोलबंद करके अपना वोट बैंक पैदा करने में रहती है। उसका परिणाम यह है कि समाज के कुछ वर्गांे में परस्पर विद्वेष निरंतर बढ़ रहा है और उसके कारण अनुसूचित जाति-जनजाति वाले कानून के अंतर्गत दर्ज मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। सरकार द्वारा संसद में दी गई जानकारी के अनुसार 2016 में इस कानून के अंतर्गत 47,338 आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे। इनमें 78 प्रतिशत मामलों में जांच-पड़ताल के बाद चार्जशीट दाखिल हुई और लगभग 26 प्रतिशत मामलों में अपराध साबित होने के बाद सजा सुनाई गई। यह माना जाता है कि दर्ज मामलों में 15 प्रतिशत से अधिक झूठी शिकायतों पर आधारित होते हैं। लगभग 30 प्रतिशत मामलों में ही अपराध सिद्ध हो पाने की एक वजह कानून की व्यवस्थाएं भी हैं। अदालतें बहुत से आरोपों को इस बिना पर खारिज कर देती हैं कि उनकी जांच डीएसपी स्तर के पुलिस अधिकारी द्वारा नहीं गई। डीएसपी स्तर के अधिकारी आमतौर पर या तो सहज उपलब्ध नहीं होते, या काम के बोझ से जांच के साथ न्याय नहीं कर पाते। नामित सत्र न्यायालयों की भी पर्याप्त संख्या नहीं है। कांग्रेस, जो भारत बंद में बढ़-चढ़कर शामिल थी, द्वारा शासित कर्नाटक में 30 में से 15 जिले दलित उत्पीड़न के लिए चिन्हित किए जाते रहे हैं, लेकिन वहां केवल आठ में इस कानून के अंतर्गत मामलों की सुनवाई करने वाले नामित विशेष न्यायालय हैं। नामित होने के कारण उन्हें अन्य मुकदमे भी सुनने पड़ते हैं और इसलिए दलित उत्पीड़न के मामले कई बार लटके रहते हैं।
यह पूरे देश के लिए लज्जा की बात है कि समाज के कुछ वर्ग दलित लोगों की बारात न निकलने दें, दूल्हे को घोड़ी पर न चढ़ने दें, निम्न जाति के लोगों को मूंछे रखने पर आपत्ति करें या अन्याय का प्रतिरोध करने पर उन्हें अमानुषिक यातनाएं दें। इस तरह की घटनाओं के लिए कुख्यात इलाकों का सारा पुलिस बल अनुसूचित जाति या जनजाति के लोगों का होना चाहिए। लेकिन यह भी याद रखा जाना चाहिए कि न्याय की उतावली में किए गए अन्याय के भी विपरीत परिणाम होते हैं। समाज के कुछ वर्गांे में जो कट्टरता बढ़ती जा रही है, वह कई बार दलित आंदोलन की आक्रामकता और हिंसा का भी परिणाम होती है। राजस्थान में भारत बंद के बाद भाजपा के अनुसूचित जाति के विधायक के घर पर हमला हुआ। आवेश में लोग यह भूल जाते हैं कि उनके किए का क्या परिणाम होगा। दुर्भाग्य से नागरिक अधिकारों के नाम पर चलने वाली अनेक अंतरराष्ट्रीय ईसाई या वामपंथी संस्थाएं भी दलित आंदोलन को उग्र और हिंसक बनाने में लगी रही हैं। दलित नेताओं का एक वर्ग इन अतिवादी धारणाओं का प्रचार करने में लगा रहता है कि दलित उत्पीड़न हिंदू समाज की मूल प्रवृत्ति है और हिन्दू समाज को नष्ट किए बिना दलितों को न्याय नहीं मिल सकता। इस तरह की अतिवादी धारणाओं को राजनीतिक स्तर पर भी दोहराया जाता रहता है। मार्क्सवादी तो ऐसी बातें करते ही रहे हैं। हाल में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट किया कि दलित उत्पीड़न हिन्दूवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के डीएनए में है। सच्चाई यह है कि आज यही संगठन एक गांव, एक कुआं, एक मंदिर आंदोलन के जरिये जातीय भेदभाव दूर करने में लगा है। गांधी जी ने हरिजन सेवक संघ के जरिये कांग्रेस को जो रचनात्मक कार्यक्रम दिया था, उसे नेहरू काल में ही छोड़ दिया गया था। राहुल गांधी को तो सिर्फ चुनाव के समय दलित याद आते हैं।
जब समूची राजनीति चुनाव जीतने के लिए की जाने वाले मतदाता समूहों की गोलबंदी में सीमित होकर रह गई हो तो दलित नेताओं को अधिक दोष नहीं दिया जा सकता। हमें अपनी राजनीति की दशा और दिशा के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। राजनीति और उससे बाहर सामाजिक न्याय की रट लगाते रहने वाले लोगों को भी यह याद रखना पड़ेगा कि सामाजिक विद्वेष और सामाजिक टकराव बढ़ाकर सामाजिक न्याय हासिल नहीं किया जा सकता। अनुसूचित जातियां और जनजातियां कुल जनसंख्या का एक चौथाई हैं और शक्ति और साधनों में कमजोर हैं। राजनीतिक तंत्र व शासकीय तंत्र में भी ऐसे कुछ लोग घुस आते हैं, जो उनके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। इस सबके बीच न्याय और नीति की भावना के बल पर कमजोर और भेदभाव से ग्रस्त वर्गांे के प्रति जो अनुकूलता पैदा की जा सकती है, वैसी उपद्रव और हिंसा के बल पर नहीं की जा सकती। दलित वर्गांे को इस दिशा में धकेलने वाले नेता भी अक्सर उच्च वर्गांे के ही होते हैं। 