निशा शर्मा।

सोमवार को गुजरात में दलितों के महासम्मेलन में राज्य और केन्द्र सरकार को चेतावनी दी गई कि अगर पशुओं की खाल उतारने का काम कर रहे दलितों को तीस दिन के भीतर पांच एकड़ जमीन या वैकल्पिक रोज़ग़ार नहीं दी जाती तो वो रेल रोको और जेल भरो आंदोलन करेंगे। पांच अगस्त से अहमदाबाद से शरू हुई दलित अस्मिता यात्रा सोमवार को उना में ख़त्म हुई।

गुजरात के विकास मॉडल को जिस तरह पूरे देश में ही नहीं विश्व में प्रचारित प्रसारित किया गया उसी तरह नया दलित आंदोलन गुजरात से होकर पूरे देश में एक इबारत रचने की राह पर है।

11 जुलाई को गिर-सोमनाथ जिले के उना में हिंदू शिव सेना के कार्यकर्ताओं ने मरी हुई गाय की खाल उतार रहे चार दलितों को बुरी तरह पीटा था। इस सामूहिक हिंसा के बाद चार दलितों में से एक युवक की मौत हो गई है। पिटाई का वीडियो बनाकर हिंदू शिव सेना के कार्यकर्ताओं ने अपनी दबंगई का प्रदर्शन करने के लिए इस वीडियो को वायरल भी किया । इसके बाद क्या था। घटना जैसे जैसे वायरल होती गई। वैसे वैसे आम लोगों का गुस्सा बढ़ता गया।

विद्रोह के तौर पर कुछ दलित प्रदर्शनकारियों ने सरकारी कार्यालयों और आरएसएस के दफ्तर के सामने मृत पशु का शव भी फेंककर विरोध दर्ज कराया और यह घोषणा की कि अब वह मृत पशुओं को नहीं उठाएंगे साथ ही समाज की स्वच्छता का जिम्मा भी ढोने से भी इनकार किया।

उसके बाद क्या था विरोध का यह नया तरीका न सिर्फ गुजरात बल्कि देशभर में चर्चा में आ गया।पिटाई की इस घटना ने राजनीतिक रंग ले लिया। विरोधियों को मोदी के गुजरात मॉडल को घेरने का नया मौका मिल गया। इसके बाद राजनेताओं का ऊना दौरा होने लगा, ताकि वे पीड़ितों के साथ सहानुभूति और एकजुटता दिखा सकें। राजनीतिक गलियारों में जरूर हड़कंप मची लेकिन दलितों के लिए जमीनी तौर पर हुआ कुछ नहीं।

मामले में दलितों के हितों में कुछ होता ना देख 31 जुलाई को अहमदाबाद में एक बड़ी रैली निकाली गई जिसमें बड़ी  मात्रा में लोगों ने हिस्सा लिया।

गुजरात में ऐसा पहली बार हुआ है जब पूरे राज्य से 30 दलित समूह दशकों से मौजूद समस्याओं के खिलाफ एक साथ जुटे । इन लोगों ने ऊना दलित अत्याचार लाडात समिति के बैनर तले यह रैली की, जिसके संयोजक जिग्नेश मेवानी रहे। मेवानी वकील हैं, जो दलितों के लिए कई अदालतों में मुकदमा लड़ रहे हैं।

जिग्नेश मेवानी ने 31 जुलाई को की रैली में ऐलान किया कि ‘दलित अब मरे हुए पशुओं को उठाने का काम नहीं करेंगे।’ घोषणा में कहा गया है कि अगर सरकार उनकी मांगों को पूरा नहीं करती है तो गुजरात में 2017 में होने वाले विधानसभा में अपनी ताकत दिखाएंगे।

दलितों ने अपनी उपयोगिता और काम की सार्थकता नजरअंदाज करने के लिए समाज को सबक सिखाने का फैसला भी लिया है। महात्मा गांधी ने जिस तरह अंग्रेजों से असहयोग कर ब्रिटिश सत्ता को हिला कर रख दिया था उसी तरह दलित समुदाय के लोगों मृत पशुओं के शव को नहीं उठाने और सफाई का कामकाज नहीं करने का संकल्प लिया।

31 जुलाई को हुई दलित रैली ने इस भ्रम पर से भी पर्दा उठा दिया कि दलितों का एकजुट होना किसी राजनीति को प्रभावित नहीं कर सकता। गुजरात का दलित समाज इस अपमान जनक मिथक को तोड़ने का प्रयास कर रहा है कि वह भी बिना किसी प्रत्यक्ष राजनीतिक समर्थन के अपने हक के लिए लड़ सकता है।

जानकार बताते हैं कि गुजरात के सौराष्ट इलाके में दलितों पर होने वाले अत्याचार और जिलों से ज्यादा हैं। सौराष्ट्र को सात जिलों में विभाजित किया गया है जो इस प्रकार है – जामनगर जिला, राजकोट जिला, सुरेंद्रनगर जिला, पोरबंदर जिला, जूनागढ़ जिला, अमरेली जिला और भावनगर जिला। सौराष्ट्र के एक जिले मरेली से कांग्रेस के एमएलऐ परेश धनानी का कहना है कि कांग्रेस पार्टी ही सबसे पहले प्राथमिकता के साथ मुद्दे को लोगों के बीच लाई है।जैसे ही घटना का वीडियो सामने आया उसके बाद कांग्रेस पार्टी ने वीडियो की जांच करवाई। हम पीड़ितों से जाकर मिले और पीड़ितों को सवा लाख रूपए दिए। बिना पब्लिसिटी के हमने यह काम किया। उसके बाद राहुल जी ने भी घटना स्थल का दौरा भी किया। पांच लाख रूपए पीड़ितों को दिए गए। मामला पैसे का नहीं है मान-सम्मान का है। दलितों के अधिकारों का है लेकिन गुजरात की मौजूदा सरकार को देखिए वह लोगों की खासकर दलितों की आवाज को दबाने का काम कर रही है। भाजपा डंडे की सरकार है, डंडे के जोर पर गुजरात में काम कर रही है। दलितों को परेशान कर रही है। लेकिन हमारी पार्टी ऐसा कतई नहीं होने देगी। हम सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि जिन लोगों ने इस घटना को अंजाम दिया है उनको कड़ी से कड़ी सजा हो।

गुजरात की कुल आबादी में दलित सिर्फ सात फीसदी हैं, और 16 फीसदी के राष्ट्रीय औसत से करीब आधे हैं। हालांकि गुजरात में दलितों की संख्या पर ध्यान दें तो इतना फीसदी दलित चुनावी नतीजों को कतई प्रभावित नहीं कर सकता। इसीलिए राजनैतिक दल उनकी उपेक्षा करते आ रहे हैं। लेकिन ऊना की घटना के बाद दलितों की एकजुटता ने इसके मायने बदले हैं। गुजरात के दलित दमन की राजनीति को समझने लगे हैं। अब दलित अपने अधिकारों को लेकर ज़्यादा ज़ोर देने लगे हैं, और देशभर में फैले समुदाय के अन्य लोगों से जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

दलित राजनीति के बारे में जानकार बताते हैं कि गुजरात में दलितों के पास कोई बड़ा नेतृत्व करने वाला चेहरा नहीं है। कोई संगठन नहीं है। हालांकि जिग्नेश मवानी बताते हैं कि हम एक चेहरा नहीं बल्कि अनेक चेहरों के साथ मैदान में उतरेंगे।

मरेली से कांग्रेस के एमएलऐ परेश धनानी का कहना है कि उनकी पार्टी दलितों को पूरा सहयोग करेगी। दलितों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए  कांग्रेस उनके साथ है। सभी वर्गों को समानता मिलनी चाहिए। लेकिन भाजपा अधिकार की बात नहीं करती उसका तकिया कलाम ही भय दिखाना है जो भी उसके खिलाफ जाता है, उसे साइड कर देती। राष्ट्रीयता का आंचल ओढ़ने वाली भाजपा ने दलितों के लिए कुछ नहीं किया। लेकिन दलित अब अपने अधिकारों के लिए शिक्षित हो चुका है। अब भाजपा का भय हम और नहीं चलने देंगे।

ऊना की घटना के बाद दलितों ने गुजरात राज्य में धीरे- धीरे अपना विरोध दर्ज करवाना शुरू कर दिया है। लोग खुद ही निकलकर दलित अत्याचार के विरूद्ध आगे आ रहे हैं। इसी विरोध का हिस्सा है गाय के शवों को सार्वजनिक स्थानों पर फेंकने का। लेकिन यह फैसला आने वाले समय में उन लोगों के लिए बड़ी मुसीबत का सबब बन सकता है। जो गौ-रक्षा के नाम पर दलितों की पिटाई करते हैं।

ऊना की एक घटना ने आंदोलन का रूप ले लिया या फिर कुछ और वजह है। वकील और सामाजिक कार्यकर्ता जिग्नेश मवानी के मुताबिक दलितों से वर्ग के आधार पर और जाति के आधार पर भेदभाव हुआ है। 100 फीसदी की आबादी में 7 फीसदी आबादी के लिए रिजर्वेशन है जबकि 93 फीसदी दलित या तो मजदूर हैं या फिर मिलों में काम करने वाले वर्कर। नब्बे के दशक में दलित मजदूर था। वह आज भी मजदूर ही है। उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है।

आंकड़े बताते हैं कि 2,50,000 दलित हैं जो इंडस्ट्री का हिस्सा हैं। जिन्हे सिर्फ चार हजार पांच सौ रूपए मासिक वेतन दिया जाता है। ना उसमें कोई बढ़ौत्तरी हुई है ना कोई बदलाव। जो जमीन एससी, एसटी को दी जानी चाहिए वह जमीन अडानी, एसएसआर को दी जा रही है। नब्बे के दशक के बाद से भी जो तबका भूमिहीन था वह भूमिहीन ही रहा है। हजारों एकड़ जमीन दलितों को कागजों में ही बांटी गई वास्तव में उनके पास कुछ नहीं है।

ऊना जैसी घटनाएं दिखाती हैं कि गुजरात में विकास मॉडल के अलावा भी एक और गुजरात है जहां के लोग गरीब हैं, अशिक्षित हैं जहां जातिवाद का बोलबाला है। मॉडल के इतर वाले गुजरात में विकास नाम की चिड़िया ने कभी पर भी नहीं मारे।

अहमदाबाद के ऊना में हुई घटना ने जातिवाद का दंश झेल रहे लोगों को झकझोर कर रख दिया। जानकार बताते हैं कि दलितों पर हुआ यह अत्याचार नया नहीं है। इससे पहले भी इससे भी संगीन घटनाओं को अंजाम दिया गया है। राजुला गांव में बिल्कुल इसी तरह की घटना हुई थी। दलितों को लोहे की रॉड से पीटा गया था। लेकिन उसका वीडियो नहीं बना इसलिए वह मामला लोगों की नजर में नहीं आया। 2015 में पोरबंदर के सोढाणा में सरपंच समेत समूह ने रामाभाई भीखाभाई शिंगरखीया नाम के दलित को खूब मारा था और उसे उसी खेत में जिंदा जला दिया था।

यह सब घटनाएं ऊना की घटना के 100 किलोमीटर के अन्तर्गत की घटनाएं हैं। लेकिन इन पर किसी की नजर नहीं गई। गुजरात में होती घटनाओं पर नजर रखने वाले बताते हैं कि अब तक 29 लोगों की मौत इन्ही घटनाओं के चलते हुई है। इन घटनाओं में और ऊना में होने वाली घटना में कोई फर्क नहीं है। यह बस्तियां ऐसी हैं जहां देखने पर ही पता चल जाता है कि विकास का इनसे दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है। यहां आज भी ऐसी जगह हैं जहां दलितों के साथ भेदभाव किया जाता है। स्कूलों में दलितों के बच्चों को अलग मिड- डे- मील दिया जाता है । जो स्वर्ण जाति के बच्चों को नहीं दिया जाता। दस से पंद्रह सालों में आर्थिक रूप से कमजोर और जातिवाद के शिकार लोगों पर सामंतवादी सोच हावी रही है।

जिग्नेश मवानी के मुताबिक दलितों के 2001 से 2015 तक 16000 मुकदमें दर्ज हुए। जिसमें 2004 में मुकदमों का आंकड़ा 24 प्रतिशत था जो 2014 में 24 से बढ़कर 74 प्रतिशत हो गया। मतलब की मुकदमों में 300 प्रतिशत की बढ़ौतरी हुई है। 2005 से 2015 के बीच में कई सौ दलितों को सवर्णों ने मारकर भगा दिया। गुजरात में दलितों के हालात यह हैं कि 116 गांव ऐसे हैं जो पुलिस की सुरक्षा में हैं।

2014 में जिस ऊना में यह वारदात हुई है एक दलित नवविवाहित जोड़े को जिंदा जला दिया था। अहमदाबाद में 25 साल के अमित चाबड़ा जो कि एक दलित युवक था।इसको  भी जिंदा जला दिया था।

जिग्नेश बताते हैं कि गुजरात में दलितों की स्थिति का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अहमदाबाद के ढोलका शहर में विजय चावड़ा जो कि एक दलित था जिसकी  जमीन स्मार्ट सिटी बनाने के लिए हथयाई जा रही थी। इसी जमीनी विवाद में उसे मार दिया था। जिसके बाद विजय की बहन और कांग्रेस की नेता परवीना चाबड़ा मामले को हाईकोर्ट तक ले गई थी। लेकिन बाद में परवीना को  भी साजिश के तहत मार दिया गया।

दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस तरह के मामलों में कार्रवाई की दर तीन से पांच फीसदी है, जिससे अपराधियों में कार्रवाई से बच जाने का भरोसा रहता है और इसीलिए भी ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं।

इसी बीच अपराध जांच विभाग (अपराध शाखा) ने सुरेंद्रनगर में 2012 में पुलिस की गोलीबारी में तीन दलित युवकों की मौत के मामले में अपनी एक सारांश रिपोर्ट गुजरात हाईकोर्ट को सौंपी है, जिसमें कहा गया है कि किसी के खिलाफ कोई अपराध नहीं पाया गया।  मामले में पुलिस ने सोलह, सत्रह और इक्कीस साल के तीन युवकों पर एके-47 से गोलियां चलाई थीं। जिसमें तीनों की मौत हो गई थी।

दलित कार्यकर्ता और पेशे से वकील जिग्नेश मेवानी ने बताया कि ‘किसी भी तरह के अत्याचार के मामले में 60 दिनों के अंदर आरोप-पत्र दाखिल करना होता है। लेकिन इस मामले में चार साल हो चुके हैं और अब भी आरोप-पत्र दाखिल नहीं किया गया है।’ गिरफ्तार किए गए तीन पुलिसकर्मियों को जमानत मिल चुकी है और एक पुलिस अधिकारी चार साल से फरार।

अहमदाबाद रैली में दलितों की ओर से कुछ मांगे रखी गई हैं जिसमें कहा गया है कि ऊना के अभियुक्तों को यदि ज़मानत भी मिले तो उन्हें 5 जिलों से बाहर रखा जाए। आंदोलन करने वाले बेगुनाह दलितों पर दर्ज फर्जी मुकदमे वापस लिए जाएं। ऊना की घटना के वीडियो में हमलावरों की पहचान संभव है। इसमें पुलिस की भूमिका संदेहास्पद है इसलिए पुलिसवालों के ख़िलाफ़ दलित उत्पीड़न के तहत मुकदमा दर्ज हो। गुजरात के सारे जिलों में अनुसूचित जाति- जनजाति कानून के तहत मामले चलाने के लिए विशेष अदालतें बनाई जाएं। मरे हुए पशुओं को उठाने का काम छोड़ने वाले दलितों और भूमिहीन दलितों को सरकारी कोटा से 5-5 एकड़ जमीन दी जाए। सभी दलित सफाईकर्मियों को छठे वेतन आयोग का लाभ दिया जाए और उनकी नौकरी पक्की की जाए।

जिग्नेश कहते हैं कि दलितों के खिलाफ अब तक करीब सोलह हजार घटनाएं सामने आ चुकी है लेकिन ऊना कि घटना से पहले किसी भी घटना पर आनंदीबेन हों या राहुल गांधी किसी ने भी दुख नहीं जताया। इसका कारण है कि उन मामलों में राजनीति करने की संभावनाएं कम थी।

गुजरात में अपने बूते एक बड़ी विरोध रैली कर दलितों ने राज्य की राजनीति में हलचल मचा दी है। सत्ताधारी भाजपा के लिए यह एक भूचाल साबित हुआ और मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। आनंदीबेन पटेल के इस्तीफे की वजह भाजपा कुछ भी बताये पर पिछले एक साल में हुए दो बड़े आंदोलनों ने भाजपा की नींद उड़ा दी है। इन आंदोलनों से निपट ना पाने के चलते आनंदीबेन पटेल को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। हालांकि दो दशक से राज्य की सत्ता पर काबिज भाजपा को दलित वोट तो देता आ रहा है लेकिन उसका गुस्सा भाजपा को इतना महंगा पड़ेगा ऐसा पार्टी को अंदाजा नहीं था।

फिलहाल अपने आन्दोलन को गैर राजनीतिक बता रहे जिग्नेश कहते हैं कि हम दलितों की आवाज़ को उन लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं जो दलितों को सुनना नहीं चाहते। हमारा उदेश्य सामाजिक क्रांति से है।ऊना में महासम्मेलन के बाद भी अगर दलितों पर अत्याचार नहीं रुका तो अगले साल गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव में हम अपनी ताकत दिखाएंगे।

वैसे, गुजरात के इस दलित आंदोलन का असर उत्तर प्रदेश और पंजाब के आगामी विधानसभा चुनाओं में भी पड़ने के आसार नजर आ रहे हैं। इन चुनावों में भाजपा को दलित गुस्से का सामना करना पड़ सकता है। इन दोनों राज्यों में दलित मतदाताओं की संख्या अच्छी खासी है।