राकेश चन्द्र श्रीवास्तव
अब जब अगस्त 2018 के तीसरे सप्ताह में मॉरीशस में 11वां विश्व हिंदी सम्मेलन होने जा रहा है और पूरे देश में राम मंदिर निर्माण को लेकर चर्चा और हलचल तेज है, ऐसे समय में हिंदी और रामायण को विश्व में शिखर तक पहुंचाने में ध्वजवाहक बने लल्लन प्रसाद व्यास का जिक्र भी सामयिक है। व्यास ने विश्व रामायण सम्मेलन के आयोजनों और हिंदी का परचम पूरे विश्व में लहराया और 27 नवंबर 1984 को अयोध्या में प्रथम विश्व रामायण सम्मेलन का आयोजन कर अपनी ‘राम’ के प्रति समर्पण की भावना को भी परिलक्षित किया। हिंदी के पुरोधा लल्लन प्रसाद व्यास ने एक दर्जन ग्रंथों की रचना की थी जिनमें महाविराट की अनुभूति और दर्शन, रामायण का विश्वव्यापी व्यक्तित्व, अलौकिक प्रेरणाएं, रामायण की विश्व परिक्रमाएं, जापान का आध्यात्मिक चमत्कार, जोरे: मुक्ति का दिव्य प्रकाश, दीन के राम, दीन की रामायण आदि प्रसिद्ध हैं।
हिंदी और रामायण की मस्ती ने लल्लन प्रसाद व्यास को तो पागल बना ही दिया, इनके इर्द-गिर्द तितली की तरह मंडराने वाले दर्जनों देशों के हुजूम को भी मस्ताना कर दिया। मधुमक्खी की तरह विभिन्न देशों के फूलों से जो उन्होंने मधु संचय किया वह अपार मधु का महासागर भारत राष्ट्र-राज्य के सामने लहरा रहा है। हालांकि पिछले दो वर्षों से व्यास हमारे बीच नही हैं लेकिन उनकी हिंदी और रामायण के प्रति वैश्विक प्रतिबद्धता, सेवा, साधना और समर्पण में हम उनके साहित्य के शिरोमणि का दर्शन करते हैं। ब्राह्मण कुल में जन्मते ही वे भंगी (शूद्र) के हाथ बेचे गए और 11 वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत होने पर वापस खरीद होने पर ब्राह्मण बने। हिंदी और रामायण प्रेम ने उन्हें दिल्ली में बसा दिया।
वर्ष 1953 में श्रावस्ती नरेश महाराजा सुहेल देव के बारे में व्यास का पहला लेख ‘भारतीय इतिहास का एक विस्मृत पृष्ठ’ पांचजन्य में छपा। पहले ही लेख ने इन्हें पूरी तरह लेखक बना दिया। 1955 में धर्मयुग में इनका पहला लेख प्रकाशित हुआ इस प्रकार लेखकीय गाड़ी अब पटरी पर आ गई और एक्सप्रेस की तरह दौड़ने लगी। एम.ए. करने के बाद वर्ष 1956 में अपना शहर बहराइच छोड़कर वे लखनऊ पहुुंच गए और 1961 में सांध्य दैनिक तरुण भारत का संपादन शुरू किया। स्वत्रन्त्र भारत और एक प्रमुख भारतीय एजेंसी से भी जुड़े। 1962 में दैनिक पत्रकारिता से हटकर साहित्यिक पत्रकारिता अपना ली। इनके संपादन में ‘ज्ञान भारती’ पत्रिका का पहला अंक अगस्त 1962 का ‘बलिदान अंक’ छपा। इस अंक ने इन्हें साहित्यिक पत्रिका में स्थापित कर दिया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद , उदय शंकर भट्ट ( स्वयं क्रांतिकारी), हरिवंशराय बच्चन आदि विद्वानों ने विशेषांक की सराहना की। 1963 में गणतंत्र दिवस पर ‘देश रक्षा अंक’ निकाला। इस अंक में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, स्वामी नारदानंद सरस्वती, हनुमान प्रसाद पोद्दार, भाऊराव देवरस, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, इलाचन्द्र जोशी, सुमित्रानंदन पंत, आचार्य शिवपूजन सहाय, पंडित सोहनलाल द्विवेदी, जनरल करिअप्पा के लेख छपे। इस विशेषांक में जितने महत्त्वपूर्ण विद्वानों, सन्तों, कवियों, राजनेताओं, सेनापतियों आदि की विशेष रचनाएं छपीं, इससे पूर्व किसी पत्रिका में संभव न हो सका होगा। ज्ञान भारती का संपादक रहते विदेश यात्राओं और विदेशों में उन्हें सांस्कृतिक कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ। 1963 में नैमिष उद्धारक स्वामी नारदानंद सरस्वती को गुरु के रूप में भेज दिया जिन्होंने कैरियर नहीं अध्यात्म वाली पटरी पर इनकी ट्रेन उतार दी। इन्हें अनुभव हुआ कि यह ट्रेन राजनीति, सरकारी प्रशासन या उद्योग व्यापार की बड़ी बड़ी ट्रेनों को भी पीछे छोड़कर आगे बढ़ गई है। गुरु कृपा से ये रामकाज से जुड़ गए। 1963 में जब राष्ट्रभाषा-राजभाषा हिंदीघाती कुख्यात राजभाषा विधेयक संसद में पारित हो गया और केवल कांग्रेस के संसद सदस्य हिंदीसेवी सेठ गोविन्ददास ने विधेयक के विरोध में मतदान किया तो वे इस घटना से अत्यधिक मर्माहत हुए और लखनऊ में एक वृहद राष्ट्रभाषा सम्मेलन कराने का निर्णय किया। इस सम्मेलन में भैय्या साहब श्रीनारायण चतुर्वेदी, सेठ गोविन्ददास, आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, पं. पद्मकान्त मालवीय, पं. सोहनलाल द्विवेदी, कुंवर चन्द्र प्रकाश सिंह, डॉ. दीनदयाल गुप्ता, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर आदि अनेक शिखर के विद्वान एवं साहित्यकार जमा हो गए। सम्मेलन के उद्घाटन में गुरुदेव स्वामी नारदानंद सरस्वती व पं. अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी भी पधारे। सम्मेलन सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। सबसे बड़ी उपलब्धि हुई कि इस राष्ट्रभाषा सम्मेलन से उत्साह ग्रहण कर सेठ गोविन्ददास ने कई बड़े नगरों में राष्ट्रभाषा सम्मेलन आयोजित कराकर कुख्यात राजभाषा विधेयक के प्रति आक्रोश दर्ज कराया। यह सम्मेलन इनके लिए हिन्दी सेवा का श्री गणेश था, जो आगे चलकर नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के रूप में वट वृक्ष बना। हिंदी के इतिहास में जनवरी 1975 में नागपुर में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन इन्हीं के द्वारा किया गया। सम्मेलन का उद्देश्य हिंदी जगत में आत्महीनता की स्थिति को दूर करने के लिए उसके विराट स्वरूप का दर्शन कराना था, जो सफल रहा। तीस देशों के माध्यम से हिंदी के नाम पर मानों पूरे विश्व का दर्शन हुआ। इस महाकुम्भ में अनेक गोष्ठी-परिचर्चाओं के माध्यम से हिंदी की राष्ट्रीय एवं विश्वस्तरीय स्थिति, समस्याओं और समाधानों पर विस्तृत विचार-विमर्श हुआ। श्रीमती इंदिरा गांधी, आचार्य विनोबा भावे, भारत के विदेश मंत्री, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, काका कालेलकर, महादेवी वर्मा, भैया साहब पंडित, श्रीनारायन चतुर्वेदी, आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, राष्ट्रकवि पंडित सोहनलाल द्विवेदी, झंडा गीत के कवि श्यामलाल गुप्त पार्षद, कमलापति त्रिपाठी आदि मनीषी इस सम्मेलन में उपस्थित हुए। उद्घाटन सत्र में लगभग 30,000 लोग उपस्थित रहे। 1976 में मॉरीशस में द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ। मॉरीशस में व्यास को राजकीय अतिथि बनाया गया। अक्टूबर 1976 में इनके द्वारा दिल्ली में एक साहित्यिक आयोजन मॉरीशस के सुरेश रामवरण द्वारा लिखित पुस्तक ‘चाचा रामगुलाम के संस्मरण’ का लोकार्पण कार्यक्रम रखा गया और पुस्तक का संपादन इन्हीं के द्वारा किया गया था। इस कार्यक्रम में मॉरीशस के प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम, अनेक केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी, अज्ञेय, डॉ. कर्ण सिंह आदि विद्वान उपस्थित रहे। 1977 में यूपी के बहराइच जिले में तीसरा अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन पूर्व मंत्री एवं हिंदीसेवी पंडित कृष्ण बहादुर मिश्र और पत्रकार परमेश कुमार अग्रवाल द्वारा व्यास जी के नेतृत्त्व में किया गया जिसमें रूस, मॉरीशस, नेपाल, थाईलैंड, कनाडा सहित एक दर्जन देशों के प्रतिनिधियों के साथ मुख्यमंत्री रामनरेश यादव और पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी, अज्ञेय, किशोरीदास वाजपेयी, पंडित सोहनलाल द्विवेदी आदि मनीषी शामिल हुए। जनवरी 1979 में विश्व हिंदी प्रतिष्ठान नामक फाउंडेशन स्थापित किया और ‘विश्व हिंदी दर्शन’ पत्रिका निकालने का निर्णय लिया। व्यास फाउंडेशन के संगठन मंत्री और पत्रिका के संपादक बनाए गए। जनवरी 1979 में यह पत्रिका ऐसे धूम-धाम से निकाली गई कि इसमें फिर मॉरीशस के प्रधानमंत्री डॉ. शिवसागर रामगुलाम, भारत के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, तत्कालीन विदेश मंत्री अटलबिहारी वाजपेयी शामिल हुए। पत्रिका के निरंतर प्रकाशन के वर्षों में नौ देशों में दस अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं। साहित्य और भाषा की पत्रिका होते हुए विनोबा भावे की प्रेरणा से आध्यात्मिक रंग के साथ यह विश्व महत्त्व का एक मिशन बन गया। इसके बाद जब विश्व रामायण सम्मेलनों का प्रमुख दायित्त्व इन्होंने संभाला तो पत्रिका मासिक से त्रैमासिक हो गई।
मई 1964 से व्यास की जो विदेश यात्राएं शुरू हुर्इं वे जीवन में नित नई ऊंचाइयों और अनेकानेक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के द्वार खोलने वाली सिद्ध हुर्इं। पहले बर्मा, थाईलैंड और बाद में रामायण के प्रचार-प्रसार के लिए हांगकांग, ताइवान, कंबोडिया, मलेशिया, सिंगापुर, मॉरीशस, वियतनाम, अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, जापान, लाओस, हॉलैंड, रूस, मेक्सिको, इटली की कई बार यात्राएं की। 1984 में श्रीराम की अष्टधातु की बड़ी मूर्ति भारत से ले जाकर थाईलैंड के नरेश रामनवम भूमिबल अतुलतेज को भेंट की जो थाई राजकुमारी चक्री ने राजमहल में एक बड़े समारोह में स्थापित की। जनवरी 1971 में विज्ञान भवन दिल्ली में व्यास द्वारा प्रथम एशियाई रामायण सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसका उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी. गिरी ने किया और बाद में यही सम्मेलन विश्व रामायण सम्मेलनों की श्रृंखला की आधारशिला बना। 27 नवंबर 1984 को श्री सीताराम विवाह पंचमी पर अयोध्या में प्रथम अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन व्यास द्वारा कराया गया और इसके उद्घाटन के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी स्वीकृति प्रदान की। 18 अक्टूबर 1984 को इस सिलसिले में जब वे इंदिरा गांधी से मिले तो इंदिरा ने व्यास से अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ढांचे के स्थान पर मंदिर बनाने की मांग का जिक्र किया और कहा कि यह काम आजादी मिलते ही हो गया होता तो शायद सभी लोग स्वीकार कर लेते और यह देशहित में होता किन्तु अब तो कुछ करने पर मुस्लिम देश हो-हल्ला मचाने लगेंगे। व्यास ने उनसे अपनी भावना सम्मलेन में आकर प्रकट करने का अनुरोध किया। 13 दिन बाद इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में ऐसी दुर्घटना हुई जिससे 10-12 दिनों तक भारत का प्रशासन ही लगभग ठप हो गया था। काफी उहापोह की स्थिति बनी रही लेकिन स्थितियां शांत होने पर 27 नवंबर 1984 को अयोध्या में सरयू के तट पर प्रथम अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन का आयोजन संपन्न हुआ। सम्मेलन में नौ देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए। दूसरा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन थाईलैंड और बाद में चीन, अमेरिका, मेक्सिको, बेल्जियम, कनाडा, हॉलैंड, इंडोनेशिया, मॉरीशस आदि देशों में कराया गया। व्यास द्वारा बीस देशों में 25 अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन कराया गया।
हालांकि व्यास अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने हिंदी और रामायण का प्रकाश जो पूरे विश्व में फैलाया वो कोई महापुरुष ही कर सकता है। व्यास के जाने के बाद दुनिया में हिंदी और रामायण के प्रचार-प्रसार का काम थमता नजर आया है। हालांकि दुनिया के अधिसंख्य देशों में हिंदी ने अपना प्रमुख स्थान जरूर बनाया है। व्यास हिंदी के ध्वजवाहक रहे हैं और हिंदी को सर्वोच्च शिखर तक पहुंचाने में उनका योगदान अतुलनीय रहा है। वे दुनिया में हिंदी को स्थापित कराने में नींव का पत्थर हैं। उन्होंने हिंदी के पुरोधा और रामायण के शोधक के रूप में विश्व में अपनी पहचान बनाई है।
वैसे दुनिया को मुट्ठी में बांधने का एक ही ढंग है कि मुट्ठी को बांधा न जाए, खुली मुट्ठी में सारी दुनिया होती है। ऐसे ही खुले मन में सत्य होता है। सत्य को अपने में समाया नहीं जा सकता। वो अपने से बड़ा है। अगर दुनिया में सत्य के साथ संबंध बनाना है तो हमें सत्य में ही समा जाना होगा और व्यास इसके एकमात्र उदाहरण हैं जो हिंदी और रामायण से सत्य की तरह संबंध बनाते हुए उसी में समा गए। 