राज खन्ना।
उत्तर प्रदेश और अमेठी के जीत के नतीजों के बीच स्मृति ईरानी से सवाल हो रहा था कि क्या वह 2019 में एक बार फिर अमेठी से चुनाव लड़ेंगी? उधर अमेठी में खुशी से उछलते भाजपाई कह रहे थे कि यह सवाल स्मृति से नहीं राहुल से पूछा जाना चाहिए। 2014 के लोकसभा चुनाव में अमेठी में राहुल गांधी के लिए स्मृति ईरानी ने काफी मुश्किलें खड़ी की थीं। स्मृति ने हार के बाद भी अमेठी में अपनी सक्रियता बनाए रखी। तीन साल से कम वक्त में मोदी लहर और स्मृति के जरिये अमेठी के भाजपाइयों के बढेÞ हौसलों ने बाजी पलट दी। संसदीय क्षेत्र की पांच में चार सीटें भाजपा ने जीत ली। पांचवी सीट गौरीगंज सपा के हक में गई। गठबंधन के बावजूद इस सीट पर सपा और कांग्रेस आमने-सामने थे। बगल के सोनिया गांधी के निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली ने भी कांग्रेसियों को बहुत खुश होने का मौका नहीं दिया। यहां की दो सीटों पर पार्टी को संतोष करना पड़ा। दो भाजपा की झोली में गर्इं, जबकि तीसरी वह सीट सपा के पक्ष में गई जहां गठबंधन को दर किनार कर सपा-कांग्रेस आपस में टकरा गए थे।

कांग्रेसियों के लिए अमेठी-रायबरेली किसी राजनीतिक तीर्थ से कम नहीं है। रायबरेली में गांधी परिवार का जुड़ाव फिरोज गांधी के जरिये शुरू हुआ। फिर इंदिरा गांधी ने उसे मजबूती दी। सोनिया गांधी से पहले शीला कौल, अरुण नेहरू और सतीश शर्मा परिवार के प्रतिनिधि के रूप में वहां से सांसद रहे। इंदिरा गांधी के रायबरेली से सांसद रहते हुए आपातकाल में बगल की अमेठी को उनके बेटे संजय गांधी ने तरजीह दी थी और फिर राजीव गांधी, सोनिया गांधी ने अपनी संसदीय पारी की वहीं से शुरुआत की। पिछले तीन चुनावों से अमेठी की नुमाइंदगी राहुल कर रहे हैं। इस लंबे जुड़ाव ने इन क्षेत्रों को परिवार का पर्याय बना दिया है। लंबे समय तक इस इलाके के लोगों ने परिवार का आंख मूंद कर साथ भी दिया, लेकिन अब मतदाताओं की आंखें खुली ही नहीं हैं बल्कि मुहावरों की जुबान में बात की जाए तो मतदाता आंखें दिखाने लगे हैं। 2014 के लोक सभा चुनाव में रायबरेली और अमेठी ने परिवार और पार्टी की लाज बचाई थी, लेकिन 2017 में वहां से भी निराशा हाथ लगी। अमेठी, रायबरेली के किसी चुनाव में पार्टी प्रत्याशी कोई हो, वहां गांधी परिवार का सीधा इम्तहान होता है और नतीजों से उनकी लोकप्रियता मापी जाती है।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की दुर्गति की कथा पुरानी है। 1989 से चुनाव दर चुनाव पार्टी नाकामी का एक और पन्ना अपने इतिहास में जोड़ती जा रही है। खड़े होने की कोशिश में वह बार-बार औंधे मुंह गिरती है। हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि पार्टी के प्रदर्शन के लिए चुनाव नतीजों के इंतजार की भी जरूरत नहीं महसूस की जाती और दौड़ से पहले ही उसे दौड़ के बाहर मान लिया जाता है। 2017 में तो विरोधियों या फिर राजनीति के जानकारों को भी इस मुद्दे पर कुछ सोचने की जहमत नहीं उठानी पड़ी। बिहार की कामयाबी से बमबम प्रशांत किशोर की पेशेवर सेवाएं पार्टी ने लीं। 27 साल यूपी बेहाल के नारे के साथ पार्टी जोर शोर से मैदान में उतरी। बुजुर्ग और बीमार शीला दीक्षित को पार्टी के चेहरे के रूप में आगे किया गया। खाट पंचायत और देवरिया से दिल्ली तक किसान यात्राओं में असफलताओं की गठरी लादे राहुल गांधी अपने परिचित अंदाज में आस्तीनें चढ़ाते रहे। पर बीच रास्ते ही पार्टी की सांसें फूलने लगीं और खड़े होने के लिए सहारे की तलाश होने लगी। जिन्हें प्रदेश की बदहाली का जिम्मेदार माना गया, उनकी साइकिल का हैंडिल तेजी से थामा गया। सरकार बनाने और प्रदेश बदलने का दावा बीच रास्ते ही फुस्स हो गया। समझौते में पार्टी को 103 सीटें मिलीं। अलावा इसके 11 ऐसी सीटें थीं जिनमें सपा और कांग्रेस दोनों के प्रत्याशी आमने-सामने थे। 2012 के विधानसभा चुनाव में रालोद के साथ कांग्रेस बड़े भाई की भूमिका में थी। 355 सीटें लड़ीं। तब उसे 11.63 फीसद मत और 28 सीटें मिली थीं। इस बार अंक दहाई तक नहीं पहुंच सका। 6.2 फीसद मत और सिर्फ सात सीटें। बेशक यह चुनाव आखिरी नहीं। पर बार बार हार और हर हार अगर पिछले से बदतर हालत में पहुंचाए तो रास्ता क्या बचता है? 1989 में प्रदेश की सत्ता से बेदखल कांग्रेस को 94 सीटें और 27.90 फीसद वोट मिले थे। 1991 में सीटें 46 और वोट 17.32 प्रतिशत। 1993 में सीटें 28 वोट 15.8 फीसद। 1996 में सीट 33 वोट 8.35 फीसद। 2002 में सीट 25 और वोट 8.96 फीसद। 2007 में सीट 22 और वोट 8.61 फीसद। 2012 में सीट 28 और वोट 11.65 फीसद। प्रदेश में तेजी से नीचे जाते ग्राफ को थामने के पार्टी के सब जतन अब तक विफल रहे। दुर्गति के इस दौर के बीच 15 साल पार्टी केंद्र में सत्ता में भी रही लेकिन फिर भी बात नहीं बनी। बसपा, रालोद और सपा से अलग अलग मौकों पर गठबंधन भी पार्टी को अपने पैरों पर खड़े होने की ताकत नहीं दे पाया। प्रदेश में पार्टी की कमान एक के बाद दूसरे हाथों में जाती रही, लेकिन फिर भी कोई फायदा नहीं। सपा-बसपा और भाजपा सभी ने पार्टी के कांग्रेस के वोट बैंक के हिस्से समय समय पर हथिया लिए। इन नए हाथों में तो इन हिस्सों की अदला-बदली होती रही लेकिन कांग्रेस के हाथ उनकी वापसी फिर नहीं हुई।

1989 में कांग्रेस ने केंद्र और उत्तर प्रदेश की सत्ता साथ गंवाई थी। 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार ने जुगाड़ से बहुमत जुटा पांच साल केंद्र की सरकार चलाई थी। 2004 से 2014 के बीच यूपीए की सरकारों के दरम्यान भी कांग्रेस के पास प्रदेश में अपनी स्थिति सुधारने के बेहतर मौके थे। पर इस बीच पार्टी नीचे ही डुबकी लगाती चली गई। इसके लिए केंद्र की ये सरकारें जिम्मेदार थीं या फिर पार्टी का नेतृत्व? 2004 में राहुल गांधी ने नई उम्मीदों के साथ अपनी संसदीय पारी शुरू की थी। पार्टी की कमान इससे पहले ही सोनिया गांधी के हाथों में थी और वह अपना पहला संसदीय कार्यकाल पूरा कर चुकी थी। माना जाता था कि वह परिवार के राजनीतिक वारिस के लिए अब तक जमीन तैयार कर रही थीं। फिलहाल सिर्फ उत्तर प्रदेश के चुनावों के संदर्भ में ही देखें तो राहुल के उत्तर प्रदेश के मिशन 2007, 2012 और अब 2017 विफलता के मामले में पिछले को पीछे छोड़ते गए।

राहुल पर तूफान में फंसी पार्टी की नैया खेने की जिम्मेदारी है और उधर उनके तीसरे संसदीय कार्यकाल में बीच चुनाव पार्टी का चेहरा बनाई और फिर घर बिठा दी गई शीला दीक्षित कहती हैं कि उन्हें सीखने और परिपक्व होने के लिए अभी समय दिया जाना चाहिए। विडंवना है कि खेवनहार अभी भी सीखने की प्रक्रिया में है और विपक्षी लगातार उनकी पार्टी को सबक सिखा रहे हैं। सांसद के अपने पहले कार्यकाल में राहुल अमेठी-रायबरेली से आगे निकलने को तैयार नहीं थे। फिर जब मैदान में आए तो असफलताओं का जखीरा जुटा बैठे। मतदाताओं में उनकी लोकप्रियता रसातल में है तो सोशल मीडिया पर चुटकुलों-लतीफों और कार्टून के जरिये उनका जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है। हर असफलता के बाद बड़े बदलाव और हार के कारणों की समीक्षा बेनतीजा रही है। आत्म चिंतन के लिए राहुल की विदेश के अनजाने ठिकानों की छुट्टियां भी देश-प्रदेश की जमीन पर वोटों का सूखा दूर नहीं कर सकीं।

मतदाताओं के बीच राहुल और गांधी परिवार की स्वीकार्यता भले ही लगातार घट रही हो लेकिन बहुसंख्य कांग्रेसी अभी भी इस परिवार से हट कर पार्टी और अपना राजनीतिक भविष्य नहीं देखते। राहुल से नाउम्मीद कांग्रेसी अपना असंतोष निजी बातचीत तक सीमित रखते हैं। राहुल की विफलताओं के बाद से कांग्रेसियों के एक हिस्से की ख्वाहिश जरूर रही है कि प्रियंका वाड्रा भाई और पार्टी की मदद में आगे आएं। राजनीति में आने के सवालों को टालती रही प्रियंका पहली बार 1999 में अपनी मां सोनिया गांधी की मदद के लिए अमेठी के चुनाव में सक्रिय हुई थीं। उस चुनाव में वह पारिवारिक मित्र सतीश शर्मा की सहायता के लिए रायबरेली भी गई थीं। अमेठी-रायबरेली के चुनावों में भाई-मां की मदद का यह सिलसिला अभी भी जारी है। अमेठी-रायबरेली के बाहर वह कभी निकली नहीं। इसलिए इन इलाकों से हटकर उनकी वोटरों को आकर्षित करने की क्षमता की कभी परीक्षा भी नहीं हुई। पर कांग्रेसी उन्हें अपना ट्रम्प कार्ड मानते हैं। हर चुनाव को इस ट्रम्प के इस्तेमाल का माकूल मौका माना जाता है।

मीडिया सूत्रों या फिर संभल-संभल कर बोल रहे कांग्रेसियों के हवाले से प्रियंका के अमेठी-रायबरेली के बाहर निकलने की अटकलों की कहानियां परोसता है और फिर सब कुछ अगले चुनाव तक के लिए टल जाता है। इस चुनाव में फिर वही सब कुछ दोहराया गया। बात प्रदेश के अनेक ठिकानों पर उनकी रैलियों से शुरू हुई। फिर पार्टी नेताओं के साथ उनकी बैठकों और उम्मीदवारों के चयन में उनकी दिलचस्पी से गुजरती सपा के गठबंधन की शिल्पी की भूमिका पर पहुंची और आखिर में पर्दे के पीछे के कमांडर पर ठहर गई। प्रियंका मैदान में रहतीं तो क्या कर पातीं, इस सवाल पर माथापच्ची कोई मायने नहीं रखती, लेकिन चूँकि अमेठी-रायबरेली में प्रदर्शित उनकी क्षमता ने उन्हें शोहरत दी, इसलिए वहां पर उनकी मौजूदा स्थिति उनसे जुड़ी संभावनाओं को समझने में मददगार हो सकती है।

प्रियंका को अमेठी-रायबरेली सिर-माथे बिठाती रही है। उनके पिता राजीव गांधी ने इन इलाकों के लोगों से सीधे रिश्ते बनाए थे, इसलिए निधन के बाद भी उनके नाम पर वहां भावनाओं के ज्वार उठते रहे। चुनाव के दिन में ही सही लेकिन भाई की तुलना में बेहतर संपर्क-संवाद रखने की शैली ने प्रियंका को वहां जुड़ाव में सफलता मिली। लेकिन सिर्फ चुनाव में वहां की सुध लेने के कारण धीरे-धीरे प्रियंका को लेकर लोगों की उत्सुकता कम होती गई। 2012 के विधानसभा चुनाव के नतीजे इसकी गवाही देते हैं। लोकसभा में परिवार का साथ देने वाले इन इलाकों में विधानसभा चुनाव में पार्टी की दुर्गति से फिक्रमंद प्रियंका ने रायबरेली-अमेठी-सुल्तानपुर की 15 सीटों पर पखवारा भर प्रचार किया था। उस चुनाव में रायबरेली की पांचों सीटों पर पार्टी हारी। अमेठी में तीन पर हार मिली और सुल्तानपुर में पांचों पर जमानत जब्त हो गई। इस बार उनकी बड़ी भूमिका का शोर था, लेकिन जाहिर तौर पर चुनाव में उनकी जमीनी सक्रियता रायबरेली के एक दिन के दौरे की फर्ज अदायगी में सिमट गई। इस एक दिन में वह दो सभाओं में शामिल हुर्इं लेकिन बोलीं एक में। परिवार की पहचान बने क्षेत्रों के नतीजों में सोनिया-राहुल-प्रियंका की राजनीतिक क्षमताओं का अक्स देखा जाता है लेकिन नतीजे ही नहीं मेहनत के मामले में भी वे फिसड्डी साबित हुए हैं। सोनिया गांधी अपने स्वास्थ्य की मजबूरियों के चलते पत्र के जरिये अपने निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं से अपील में सिमट गर्इं। उधर, अनमनी प्रियंका अपनी भूमिका तय ही नहीं कर पार्इं। राहुल गांधी ने दोनों क्षेत्रों में कुछ सभाएं जरूर कीं लेकिन यह मेहनत प्रतिद्वंद्वी नरेंद्र मोदी के मुकाबले कहीं नहीं टिकती जिन्होंने प्रधानमंत्री रहते अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी को लगातार तीन दिनों तक रोड शो के जरिये मथ डाला।

यूपीए के सत्ता में रहते राहुल गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने का साहस बटोर नहीं सके और 2014 के चुनाव में मोदी के मुकाबले वह कहीं टिक नहीं पाए। 2017 के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को 2019 के लोकसभा के चुनाव का सेमीफाइनल माना गया। सबसे ज्यादा लोकसभा सदस्य चुनने वाले उत्तर प्रदेश के बारे में माना जाता है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता वहां से गुजरता है। वहां के नतीजों में पार्टी का कहीं पता नहीं। उत्तराखंड को कांग्रेस ने गंवा दिया और गोवा, मणिपुर में भाजपा के मुकाबले ज्यादा नंबर जुटाकर भी पार्टी वहां सरकार बनाने की दौड़ में पिछड़ गई। ले देकर पंजाब ने ढाढ़स बंधाया लेकिन उसका श्रेय कैप्टन अमरिंदर सिंह को मिल रहा है। पार्टी इन बुरे हालात से कैसे उबरे? तमाम नाउम्मीदी के बीच भी राहुल के लिए कम से कम पार्टी के भीतर कोई चुनौती नहीं। हर खिलाफ नतीजे के बाद उन्हें अध्यक्ष बनाने की मांग जोर पकड़ती है। हालांकि ये मांग करने वालों को भी पता है कि अभी भी फैसले वही लेते हैं। एक कदम आगे और दो कदम पीछे (जैसा यूपी के चुनाव को लेकर हुआ) के भ्रम में फंसी पार्टी के सामने बदहाली से उबरने का संकट है। गुजरात, हिमांचल और कर्नाटक के चुनाव पास हैं और 2019 भी बहुत दूर नहीं। और पस्त-पराजित पार्टी की चुनौती से निपटने की तैयारी? विधानसभा चुनाव के ताजा नतीजों के बाद कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने मोदी विरोधियों को 2019 नहीं, 2024 की तैयारी की सलाह दे दी है। 2019 के सपने बुनती कांग्रेस को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 के नतीजों की बुरी यादें लगातार बेचैन करेंगी।