मृत्युंजय कुमार/संपादक (ओपिनियन पोस्ट)

आठ सितंबर को जब केजरीवाल शताब्दी एक्सप्रेस से लुधियाना पहुंचने वाले थे, उसी दौरान कभी भाजपा के स्टार प्रचारक रहे क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू निर्दलीय विधायकों बैस बंधु और पूर्व हाकी कप्तान व विधायक परगट सिंह के साथ आगे की राजनीतिक रणनीति बना रहे थे। नई दिल्ली और लुधियाना रेलवे स्टेशन पर महिलाओं के विरोध जताने के बाद अगले दिन केजरीवाल का अखबारों की लीड बनना तय हो चुका था। लेकिन शाम होने से पहले सिद्धू ने अपने साथियों के साथ प्रेस कांफें्रस की गुगली फेंकी और मीडिया का रुख केजरीवाल से हटकर उनकी ओर मुड़ गया था। अगले दिन के स्थानीय अखबारों में सिद्धू केजरीवाल के साथ मुख्य खबर थे। अन्यथा केजरीवाल अकेले अखबारों में छाए होते। अब लोगों के बीच चर्चा सिर्फ इस बात की थी कि सिद्धू के कदम का असर क्या होगा। यह नमूना है पंजाब में तेजी से बदलती राजनीतिक हवा का। सवाल उठता है कि आम आदमी पार्टी चुनावी दौड़ में अब कहां है। दस साल से सरकार चला रहे अकाली भाजपाई फिर से उम्मीद क्यों बना रहे हैं और इस सियासी घमासान में कांग्रेस कहां गायब दिख रही है।

दरअसल पिछले तीन महीने में पंजाब की राजनीति में काफी बदलाव होते दिखे। हालांकि इस बदलाव के केंद्र में आम आदमी पार्टी ही थी। तीन महीने पहले सत्ता की दौड़ में सबसे आगे मानी जा रही आप हालिया घटनाक्रम से पंजाब में ठिठकती सी दिख रही है। पहले स्टेट कन्वेनर सुच्चा सिंह छोटेपुर का स्टिंग आना, फिर दिल्ली के मंत्री संदीप कुमार की महिला के साथ नौ मिनट की सीडी, उसके बाद पंजाब में आप के शीर्ष नेताओं पर यौन शोषण के आरोप और सिद्धू की अलग सियासी पारी की घोषणा। ये सब पंजाब में आप के बढ़ते कदम को रोकने के लिए अवरोध बनते नजर आए। तीन महीने पहले आप पंजाब में अपने पीक पर थी। इन घटनाक्रमों के बाद वह वहां से नीचे ही आई है। अकाली-भाजपा, कांग्रेस और अब सिद्धू के आवाज ए पंजाब फ्रंट के चक्रव्यूह में घिरे केजरीवाल पंजाब में अपना खूंटा गाड़ने की यात्रा इसी भरपाई के लिए कर रहे हैं। पंजाब पुलिस का एक एसआई कहता है कि अब सब खिचड़ी हो गई है, कुछ समझ नहीं आ रहा।

नौ सितंबर को जब लुधियाना पहुंचा तो पोस्टर-बैनरों की बाढ़ देखकर चुनावी सरगरमी का अंदाजा लग गया। केजरीवाल आठ सितंबर को लुधियाना पहुंच चुके थे। नौ को अचानक अमृतसर का कार्यक्रम बना दिया। दरबार साहिब में मत्था टेका दोपहर बाद फिर लुधियाना लौट आए। अमृतसर जाना पहले से तय नहीं था। इसके भी निहितार्थ निकाले जा रहे हैं कि अचानक दरबार साहिब जाकर केजरीवाल क्या मैसेज देना चाहते हैं। क्या यह सिद्धू को उनके शहर में चुनौती देने की कोशिश थी या अमृतसर को होली सिटी का दर्जा देने का वायदा कर सिख श्रद्धालुओं को रिझाने का प्रयास। एक अकाली समर्थक का कहना था कि पहले दिन की मीडिया कवरेज में सिद्धू ने जो हिस्सेदारी कर ली थी यह उसे अगले दिन फिर से कवर करने की कोशिश भर है। लुधियाना के व्यस्ततम इलाके घंटाघर में ज्ञान रेस्टोरेंट चलाने वाले अरविंदर पाल सिंह कहते हैं कि दरबार साहिब के कारण अमृतसर सिख श्रद्धालुओं के लिए पहले से होली सिटी है। सरकार दर्जा दे या न दे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसकी जरूरत भी नहीं है।

पत्रकार राजीव शर्मा शिकायत करते हैं कि केजरीवाल आम आदमी नहीं रहे। लुधियाना में जिस किलेनुमा घर में वह रुके थे वहां पत्रकारों को घंटों बाहर बिठाया गया। फिर जब बाहर आए तो किसी सवाल का जवाब नहीं दिया और रटी रटाई बात कहकर चले गए। जो सवाल सबके मन में हैं वही पत्रकार पूछते हैं। जवाब तो देना चाहिए। दोनों बादल सवाल का जवाब देते हैं, अमरिंदर भी बात करते हैं। यहां तक कि सिद्धू ने आठ सितम्बर को पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए पर आम आदमी पार्टी के बड़े नेता सवालों से क्यों भागते हैं समझ नहीं आता। हालांकि दिल्ली के पत्रकार भी पिछले कुछ समय से यही आरोप लगा रहे हैं। संगरूर रेलवे स्टेशन पर अपनी ट्रेन का इंतजार कर रहे सरताज सिंह कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी भी ठीक से लड़ रही है पर छोटेपुर को निकालने से मालवा में नुकसान होगा।’

फिरोजपुर रोड पर अपना शोरूम चलाने वाले सुनील प्रभाकर की मानें तो सुच्चा सिंह का निकाला जाना चार पांच महीने पहले ही तय हो चुका था। सुच्चा सिंह ने मालवा में पार्टी का नेटवर्क खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन बाद में उनकी महत्वाकांक्षा के कारण मनमुटाव होने लगा था। पार्टी के पोस्टर बैनर से एचएस फुल्का को उनके कहने पर गायब कर दिया गया था। दिल्ली से गए दुर्गेश पाठक और संजय सिंह भी नाराज थे। इस पर भरोसा करें तो ये सीडी वगैरह तो निकाले जाने की भूमिका के लिए बनी। सुच्चा जमीन के नेता हैं और अभी तक आप के लिए बड़ा सिख चेहरा भी थे। अब सुच्चा सिंह के लिए आप के समर्थकों में भी सहानुभूति है। बल्कि भाजपा और कांग्रेस नेता ज्यादा सहानुभूति दिखा रहे हैं। चुनाव की स्थितियों से वाकिफ लोग पैसे लेने की बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे। उनका कहना है कि बिना पैसे के चुनाव नहीं लड़े जाते। एक व्यवसायी ने कहा कि हम तो सभी चुनाव में बिना रसीद के चंदा देते हैं। उन्होंने ही आप के एक घोषित प्रत्याशी की कहानी बताई। उस प्रत्याशी ने सभा कराई। 20-25 लाख रुपये खर्च हो गए। जनसंपर्क शुरू हो गया। अब रोज शाम को 20-25 लोग आ जाते हैं और कहते हैं- एमएलए साहब की जय हो, तुसी एमएलए हो गए, खर्च बर्च दो। न चाहते हुए भी प्रत्याशी उन्हें मना नहीं कर पाता, पैसे देने पड़ते हैं। पहले प्रत्याशी घोषित होने का मतलब पहले खर्च शुरू। खर्च के इस व्यापार में बिना पैसे के राजनीति नहीं हो सकती।

वर्कर भी पेड होते हैं!
भाजपा के एक नेता कहते हैं कि आम आदमी पार्टी के पास स्थानीय स्वयंसेवी कार्यकर्ता नहीं हैं। उनके अनुसार आप ने 117 विधानसभाओं में 20-20 पेड वर्कर रखे हैं, जिनका पैसा हरियाणा के एक उद्योगपति फंड कर रहे हैं। हालांकि कांग्रेस का काम देख रहे प्रशांत किशोर भी इसी तर्ज पर काम करने के माहिर बताए जाते हैं पर यहां उनका प्रभाव अभी तक नहीं दिख रहा। कैप्टन के बयानों और सभाओं की खबरें लोकल पन्नों में रूटीन की तरह ही दिख रही हैं पर कांग्रेस परसेप्शन में आप के पीछे ही खड़ी दिख रही है। लेकिन पंजाब कांग्रेस की महिला विंग की उपाध्यक्ष डॉ. सविता धवन कहती हैं, ‘कांग्रेस रणनीति के तहत छोटी सभाओं और ग्राउंड लेवल की वर्किंग पर जोर दे रही है। अभियान मीडिया को तब दिखेगा जब टिकटों की घोषणा हो जाएगी।’ कांग्रेस नेताओं को उम्मीद है कि एंटी इंकंबेंसी में सत्ताधारी गठबंधन के वोट तो कम होंगे ही, सिद्धू का फ्रंट भी भाजपा के वोट ठीक से काटेगा। एक गणित यह भी है कि अगर सिद्धू के फ्रंट की 10-15 सीटें आ गर्इं तो वह आप या अकाली के साथ तो जाएंगे नहीं। ऐसे में कांग्रेस के साथ आना चौथे फ्रंट के विधायकों की मजबूरी होगी।

अकाली भाजपा की उम्मीद
एक अकाली नेता आॅफ द रिकार्ड में कहते हैं, ‘अगर मैदान में सिर्फ कांग्रेस होती तो हमारे लिए थोड़ी मुश्किल होती। दस साल की एंटीइंकंबेंसी पूरी तरह कांग्रेस के पास जाती, लेकिन अब आप और फिर सिद्धू के आने से वह विभाजित होगी।’ अर्शदीप कहते हैं, ‘सुखबीर बादल पूरी तरह से कॉन्फिडेंट दिखते हैं।’ एक अकाली नेता इसका कारण समझाते हैं, ‘अकाली-भाजपा को पिछली बार करीब 41 फीसदी वोट मिले थे और कांग्रेस को करीब 36 फीसदी। इस बार कांग्रेस के वोट शेयर और अन्य के वोट शेयर के 50 फीसदी के साथ 5 फीसदी सत्ताधारी गठबंधन के वोट भी आप और सिद्धू के फ्रंट को जाते हैं तब भी इनमें से किसी का विनिंग कंबिनेशन नहीं बन रहा। बुरे से बुरे हाल में भी अकाली भाजपा गठबंधन 35-36 फीसदी से नीचे नहीं जा सकता। और विरोधियों में से किसी के भी 30 फीसदी से ऊपर जाने की गुंजाइश नहीं है। केंद्रीय मंत्री विजय सांपला को भाजपा अध्यक्ष बनाने से सरकार को दलित वोट पिछली बार की तुलना में बढ़ने की ही उम्मीद है।’

प्रकाश सिंह बादल के राजनीतिक सलाहकार महेश इंदर सिंह ग्रेवाल कहते हैं, ‘केजरीवाल का नाटक पंजाब के लोग बहुत अच्छे से समझते हैं। यहां वह सिखों का हमदर्द बनते हैं उधर दिल्ली में उनकी सरकार में सात सिख विधायक हैं पर कोई भी मंत्री नहीं है। दिल्ली में गुरुद्वारा शीशगंज साहिब है, बंगला साहिब है, रकाबगंज साहिब है, पर वह किसी में नहीं जाते और यहां दिखाने के लिए दरबार साहिब में मत्था टेकते हैं।’
सिद्धू क्या करेंगे

सभी का मानना है कि सिद्धू बड़े चेहरे हैं पर अकेले वे इतनी जल्दी विश्वसनीय विकल्प खड़ा नहीं कर सकते। लड़ना तो दूर 117 सीटों पर प्रत्याशी भी देना मुश्किल है। और अगर प्रत्याशी दे भी देते हैं तो इसके लिए फंड कहां से आएगा। लेकिन यह माना जा रहा है कि परिवर्तन यात्रा निकाल रहे सुच्चा सिंह छोटेपुर सिद्धू के साथ आएंगे। वह बातचीत में इसके संकेत दे भी रहे हैं। आम आदमी पार्टी के निलंबित सांसद धर्मवीर गांधी और हरिंदर खालसा भी सिद्धू के मोर्चे में आ सकते हैं। इस सिलसिले में एक बैठक होने की बात भी कही जा रही है। अगर ऐसा हुआ तो 50-60 सीटों पर यह मोर्चा बहुत अच्छी लड़ाई लड़ेगा। क्योंकि सिद्धू का अमृतसर और माझा के इलाके में ठीक प्रभाव है तो निर्दलीय बैंस बंधुओं का लुधियाना और आसपास की सीटों पर। परगट सिंह अपनी सीट निकाल ले जाएं यही बहुत है। छोटेपुर मालवा में प्रभावी साबित हो सकते हैं और आम आदमी पार्टी के संगठन को भारी नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। सिद्धू खुद पटियाला के हैं और पटियाला के सांसद धर्मवीर गांधी के साथ आने से वहां कुछ सीटों पर अच्छा प्रभाव डालने की स्थिति में होंगे। इन सबका प्रभाव आम आदमी पार्टी पर ही पड़ेगा। भाजपा उपाध्यक्ष अनिल सरीन कहते हैं, ‘सिद्धू के साथ अकाली भाजपा वोटर नहीं जाएंगे और न ही कांग्रेस के परंपरागत समर्थक जाएंगे।’ तो फिर कौन वोटर सिद्धू के मोर्चे को वोट देगा। इस पर सरीन कहते हैं, ‘इसका मतलब साफ है कि जो वोट तीसरी ताकत यानी जिनके पास विकल्प के तौर पर आम आदमी पार्टी थी, उनके पास सिद्धू के आवाज ए पंजाब के तौर पर एक और विकल्प आ जाएगा।’ लेकिन सरीन के विपरीत यह कहनेवालों की कमी नहीं है कि जहां भाजपा चुनाव नहीं लड़ रही वहां अकाली दल से नाराज उसके वोटर या आरएसएस के कार्यकर्ता सिद्धू के फ्रंट का समर्थन कर सकते हैं। सिद्धू की छवि को लेकर आप समर्थक भी सवाल नहीं उठा पा रहे। यह सही है कि अकाली भाजपा की उम्मीदें बढ़ गई हैं। पहले उसे कांग्रेस से उम्मीद थी, अब सिद्धू से है। लोग सिद्धू को अभी सरकार बनाने की रेस में तो नहीं देख रहे पर यह मान रहे हैं कि अगर छोटेपुर और आप के दूसरे बागी सिद्धू के साथ आ गए तो 10-12 सीटें निकाल सकते हैं और 30-40 सीटों पर दूसरी पार्टियों का खेल खराब कर सकते हैं। आने वाले समय में देखना यह होगा कि बाकी तीन खिलाड़ियों में खेल किसका खराब होगा।

व्यवसायी अरविंदर पाल सिंह कहते हैं कि मेरा आप से कोई लेना देना नहीं है पर मुझे लगता है कि केजरीवाल के साथ ज्यादती हो रही है। किस पार्टी में दागी नहीं हैं। कोई केजरीवाल पर उंगली उठाने से पहले खुद को देखे। दिल्ली में उसे काम करने नहीं दे रहे हैं। मुझे यह लगता है कि वह पंजाब इसलिए जीतना चाहते हैं कि यहां वह इंडिपेंडेंट काम करके दिखाना चाहते हैं।’ लेकिन वह भी यह मानते हैं कि कोई बड़ा फेस न होना आप का माइनस प्वाइंट है। अगर सिद्धू इनके साथ आ जाता तो आप का सत्ता में आना तय था।

भगवंत मान को लेकर किसी में कोई उत्साह नहीं दिखा। चार लाख वोटों से जीतने वाले सांसद होने के बावजूद सीएम चेहरे के लिए कोई उन्हें गंभीर नहीं मान रहा था। शायद संसद के अंदर का वीडियो बनाने और शराब पीने के आरोपों के कारण यह छवि बनी। कुछ लोग एचएस फुल्का को छुपा रुस्तम मान रहे हैं। चुनाव लड़ने वालों की पहली लिस्ट में उनका नाम भी है। पहले पार्टी छोड़ जाने के बाद वह फिर पार्टी में चुपचाप लाए गए हैं। हालांकि विरोधी पार्टियों के नेताओं का मानना है कि केजरीवाल खुद ही सीएम बनना चाहते हैं इसलिए सारा ताना बाना इसी हिसाब से बुन रहे हैं और जो भी दावेदार बनता दिखेगा वह छोटेपुर की तरह बाहर कर दिया जाएगा।
घंटाघर में जिस होटल में ठहरा था, उसके मैनेजर से जैसे ही आम आदमी पार्टी के बारे में पूछा, उसने छूटते ही कहा, ‘अब पहलेवाली बात नहीं रही। एक महीने में मामला ज्यादा खराब हो गया है।’ होटल मालिक बिहार का है और लुधियाना में बस चुका है।

अपना अपना सर्वे
कुछ महीने पहले पंजाब के कई इलाकों में एक अनाम सर्वे के होर्डिंग लगे थे जिसमें दिखाया गया था कि आम आदमी को 100 सीटें मिलेंगी। इसी कड़ी में एक पर्चा कार्वी इनसाइट्स ओपिनियन पोल इंडिया टुडे ग्रुप के लोगों के साथ पंजाब के स्थानीय अखबारों में डालकर बंट रहा है, जिसमें पर्चा छपवाने वाले का कोई अता पता नहीं दिखा। इसकी हेडिंग थी-दिल्ली की जनता ने केजरीवाल को सिरे से नकारा। इसमें यह बताया गया है कि फरवरी से अगस्त के बीच केजरीवाल की लोकप्रियता 55 से घटकर 33 फीसदी हो गई है। साथ ही दूसरे पन्ने पर दिल्ली की केजरीवाल सरकार की नाकामियों को दिखाने वाली कई हेडलाइंस कतरनें छापी गई हैं। जैसे-कम पैसे में 3 पुल बनाने का दावा झूठा, आज भी पूरे नहीं हुए हैं पुल। 85 फीसदी से ज्यादा खर्च दिल्ली के बाहर प्रचार पर।

बाहरी बनाम पंजाबी
आप की बढ़त के बाद हुए विवाद ने बाहरी बनाम पंजाब का मुद्दा भी खड़ा कर दिया है। केजरीवाल की यात्रा के दौरान पंजाब में जगह जगह पोस्टर लगाए गए-दिल्लीवाले भगाओ, पंजाब बचाओ। इसमें आप के संयोजक रहे सुच्चा सिंह छोटेपुर, सांसद हरिंदर खालसा, सांसद धर्मवीर गांधी, वित्त कमेटी के पूर्व सदस्य एचएस कींगरा, गायक जसराज जस्सी की तसवीरें हैं। इस पोस्टर में कहा गया है कि बिहार और दिल्ली से आए लोगों ने आज हमें हमारे खून पसीने से खड़ी पार्टी से निकाला है। कल और पंजाबियों को निकालेंगे। पंजाबियों और जलील मत होना। जाहिर है कि यह पोस्टर भी अनाम है। लेकिन यह मुद्दा बन रहा है। सुच्चा सिंह छोटेपुर को इसकी सहानुभूति मिल भी रही है। विरोधी भी कह रहे हैं कि पंजाब के लोगों पर बाहर के लोग आकर राज करेंगे, ऐसा पंजाबी बर्दाश्त नहीं करेंगे। दूसरा मसला नॉन सिख का उछाला जा रहा है। इसका दबाव भी आप के ऊपर दिख रहा है। अभी तक पंजाब में सिख ही मुख्यमंत्री रहे हैं। अगर केजरीवाल बनते हैं तो यह पहली बार होगा। इसलिए यह बात सिखों में पहुंचाई जा रही है कि पंजाब में बिना पगड़ी का सीएम नहीं हो सकता।

अतिवादी का मुद्दा
सुखबीर बादल का आरोप है कि आप को विदेशों में बैठे कट्टर संगठन सपोर्ट कर रहे हैं। सुखबीर के अनुसार उनसे डील हुई है कि सरकार बनाने में वे मदद करेंगे बदले में आप एसजीपीसी उन्हें सौप देगी। सुखबीर ने केंद्र को आप को विदेशों से फंडिंग की जांच के लिए भी लिखा है। अकाली नेता सबूत के तौर पर बताते हैं कि कनाडा में अमरिंदर का विरोध हुआ, अकालियों का विरोध हुआ पर आप नेताओं का स्वागत हुआ और फंडिंग भी हुई, क्यों? आप नेता इस आरोप को सिरे से खारिज करते हैं। उनका कहना है कि हमारी पार्टी को आगे देखकर आम जनता को बरगलाने के लिए यह झूठ बोला जा रहा है। 