संध्या द्विवेदी

संयुक्त राष्ट्र संघ की मानें तो पूरी दुनिया की आबादी का आधा हिस्सा महिलाओं का है। कुल काम का दो तिहाई हिस्सा महिलाएं ही करती हैं। मगर आय का केवल दसवां भाग उनके हिस्से आता है तो संपत्ति का सौवां भाग उनके हिस्से में पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र संघ का तथ्यों पर आधारित यह कथन महिलाओं के साथ हो रही आर्थिक हिंसा का एक आईना है। दफ्तर हो या घर, महिलाओं को आर्थिक भेदभाव का सामना करना ही पड़ता है। कानून बनाकर कई कानूनी अधिकार महिलाओं को दिए गए हैं। मगर समाज में इन्हें मंजूरी मिले, महिलाओं में साहस जागे, इसके लिए प्रशासनिक और सरकारी स्तर पर मुहिम चलाई जानी जरूरी है।

मायका हो या ससुराल पुरुषों के हिस्से ही प्रॉपर्टी आती है। कानून कितने ही बना लो, मगर सामाजिक मान्यता का क्या करेंगे? लखनऊ के बंथरा थाने में पड़ने वाले रतौली खटोला गांव में ऐसा ही हुआ। संपत्ति के लिए भाई ने अपनी दो सगी बहनों की हत्या करवा दी। 20 साल की रेखा और 18 साल की सविता का दोष केवल इतना ही था कि वे दोनों पैतृक संपत्ति में हिस्सा चाहती थीं। संपत्ति में बहनों की दावेदारी भाई को नागवार गुजरी। जमीन-जायदाद बचाने के लिए बहनों को मौत के घाट उतार दिया। यह घटना एक दिसंबर की है। रात दो बजे चार लोग घर में घुसे और सीधे लड़कियों के कमरे में पहुंच गए। मां उषा भी अपनी बेटियों के कमरे में सोई थी। पहले बड़ी बहन, फिर छोटी बहन की हत्या कर दी। मां इस बीच किसी तरह छत से कूदकर बाहर भागने में कामयाब हुई। उसका शोर सुनकर आस-पड़ोस के लोगों ने पुलिस को बुलाया। यह दोहरी हत्या का मामला है। मगर हत्या से भी आगे बढ़कर यह पितृसत्ता का मामला है। पुरुषवादी सोच का मामला है। जड़ जमा चुकी धारणाओं को चुनौती देने का मामला है।

हक के आड़े पितृसत्तात्मक सोच

जगमति सांगवान

हिंदू उत्तराधिकार कानून में दस साल पहले बदलाव हो चुका है। मगर पितृसत्तात्मक सोच उसे पचा ही नहीं पा रही है। इसीलिए कोई लड़की जब अपने मायके में संपत्ति का अधिकार मांगती है, बराबरी का हक मांगती है, तो उस पर घर वाले, आस पड़ोस के लोग दबाव बनाते हैं। अच्छी बात यह है कि अब अपने हक के लिए लड़कियां बहुत बड़ी संख्या में आगे आ रही हैं। लड़ाई हर बार लड़नी पड़ती है। ऐसा आज भी नहीं होता कि अपनी मर्र्जी से कोई लड़कियों को बिना विवाद के यह हक दे दे। इसीलिए कानून व्यवस्था को चुस्त होना पड़ेगा। पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी इसमें बढ़ जाती है। मगर पुलिस प्रशासन इसको लेकर सुस्त दिखाई पड़ता है। संवेदनशीलता के स्तर पर तो पुलिस का हाल सभी जानते हैं। खासतौर पर उत्तर प्रदेश, हरियाणा जैसे राज्यों में तो महिलाओं के मामले में पुलिस बहुत असंवेदनशील है और कभी-कभी महिलाओं को नैतिकता का पाठ पढ़ाती दिखती है। इस मामले में भी एस. ओ. का कहना कि लड़कियां संपत्ति में हिस्सा ज्यादातर नहीं मांगतीं, चिंताजनक है। इससे पता चलता है कि एक राज्य या जिले की पुलिस पूरे देश दुनिया से कैसे कट कर रहती है। बदलाव की हवा उन्हें लगती ही नहीं। लड़कियां इस हक के लिए तेजी से आगे आ रही हैं। ऐसे कई मामले मेरी जानकारी में हैं जिनमें लड़कियां केस लड़ रही हैं। कई लड़कियों ने लड़ाई लड़ी और जीती। इस कानून में सबसे बड़ी दिक्कत है केंद्र और राज्य में संपत्ति के अधिकारों का एक जैसा न होना। जमीन राज्य का मसला है। इसलिए इस कानून के बनने के बाद भी कई राज्यों में इस कानून को लागू ही नहीं किया जा सका है। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश में यही विवाद चल रहा है। केंद्र को इसके लिए दिशा निर्देश जारी करने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को दखल देना चाहिए। कानून बनाकर हमें चुप नहीं बैठ जाना चाहिए। कानून का पालन हो रहा है या नहीं? किस तरह की बाधाएं आ रही हैं? इन सब पर भी नजर रखना, कानूनी, सामाजिक हर तरह की बाधाओं को खत्म करना सरकार और न्यायालयों की जिम्मेदारी है। कानून क्यों बनते हैं? इसीलिए न कि हमें हमारा अधिकार मिल सके। मगर कानून होने पर भी अगर हक नहीं मिल रहे हैं तो कानून बनाना किस काम का। कानून बनाने से लेकर उन्हें लागू कराने की जिम्मेदारी कानून बनाने की प्रक्रिया का ही हिस्सा होना चाहिए।

(लेखिका अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की वाइस प्रेसीडेंट हैं)

रेखा की शादी सात महीने पहले हुई थी। रतौली गांव से करीब सात किलोमीटर दूर मोहनलाल खेड़ा गांव में। वह बी.ए. के तीसरे साल की पढ़ाई कर रही थी। रेखा पढ़ना चाहती थी मगर ससुराल वाले पढ़ाई पर खर्च करने को तैयार नहीं थे। करीब तीन महीने पहले रेखा अपने मायके आ गई और पिता से बी.ए. की पढ़ाई पूरी करने के लिए खर्च की मांग की। भाई रेखा के मायके में रहने के सख्त खिलाफ था। पिता रामखिलावन भी बेटी की इस जिद से नाराज थे। मां उषा ने बताया कि उन्होंने पढ़ाई कराने से भी मना किया। लेकिन रेखा जिद्दी थी। वह अड़ गई। पिता बेमन से उसकी पढ़ाई का खर्च उठा रहे थे। अपनी बेटियों की हत्या से बेहाल उषा देवी बस इतना ही कह रही थीं कि मेरी बेटी पढ़ना चाहती थी मगर बाप और बेटा दोनों इसके खिलाफ थे। बेटियों के शव पर सिर पटक रही उषा देवी को यह अंदाजा भी नहीं था कि भाई अपनी बहनों की हत्या भी करवा सकता है।

भाई संतोष ने पूछताछ में हत्या की साजिश कबूल की। संतोेष ने बताया कि उसने अपने साले के साथ मिलकर हत्या करवाई है। उसने बताया कि मुझे डर था कि मेरी बहनें पढ़ी-लिखी हैं। कहीं बाप को बहला-फुसलाकर जमीन अपने नाम न कर लें।

बंथरा थाने के एस.ओ, संजय खरवाल ने बताया कि संतोष की मां को अपने मायके में भी जमीन मिली थी। उषा देवी के कोई भाई नहीं था। संतोष उस जमीन को बेच चुका था। उसी जमीन के पैसों से उसने दुकान खोली थी और घर बनवाया था। उसके पिता के पास एक बीघा जमीन थी। मगर रोड के किनारे होने के कारण इस जमीन की कीमत सत्तर-अस्सी लाख थी। आस पड़ोस के लोगों से और प्रधान से बातचीत के दौरान पता चला कि उसने खसरा खतौनी की प्रक्रिया भी शुरू कर दी थी। इस बात की भनक भाई को लग गई थी। एस.ओ. ने बताया कि जिस तरह से लोग घर में बिना रोकटोक और शोर के घुसे थे, उससे हमें यह अंदाजा तो पहली नजर में हो गया था कि यह काम किसी करीबी का है। संजय खरवाल ने बताया कि मेरे सामने बेटी द्वारा पैतृक जमीन में हिस्सा लेने का दावा पहली बार आया है। संजय खरवाल ने यह भी कहा कि कानूनी अधिकार होने पर भी ज्यादातर मामलों में लड़कियां पैतृक संपत्ति में हिस्से का दावा नहीं करती हैं। सच तो यही है कि सामाजिक नियम आज भी समाज में किसी कानून से ऊपर समझे जाते हैं। भाई और चारों दोषियों को गिरफ्तार कर लिया गया है। संतोष पर धारा 302, 452 और 120 लगाई गई हैं।

कानून बनाना ही काफी नहीं देशव्यापी आंदोलन की जरूरत

करुणा नंदी (सुप्रीम कोर्ट की वकील)

पुत्रियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार कानून को आए एक दशक हो चुका है। ऐसे में जैसा इस घटना में एस.ओ. ने भी कहा कि ज्यादातर मामलों में लड़कियां मायके की प्रापर्र्टी में हिस्सा नहीं मांगती हैं, यह कहना अफसोस जनक है। क्योंकि लड़कियां अब प्रापर्र्टी में हिस्सा मांग रही हैं। यह मांग लगातार बढ़ रही है। हां, कई बार परिवार और समाज के स्तर पर इस तरह के अधिकारों की मांग को दबा दिया जाता है। लेकिन यहीं से प्रशासन, सरकार और कानूनी तंत्र का काम शुरू होता है। कानून बनाने के बाद उन्हें लागू कराने की जिम्मेदारी भी सरकार की है। कानून की रक्षा करना कानूनी तंत्र और प्रशासन की जिम्मेदारी है। कानून बनाना ही काफी नहीं है जागरूकता अभियान भी चलाने चाहिए। आंदोलन होने चाहिए व्यवस्था की तरफ से। फिर अगर महिलाओं से जुड़े कानूनों की बात हो तो यह और भी जरूरी हो जाता है। पूरे देश में, राज्य में, शहर से लेकर गांव तक आंदोलन और अभियान होने जरूरी हैं। जितना जरूरी कानून बनाना है, उतना ही जरूरी इस तरह के अभियान और आंदोलन चलाना भी है, क्योंकि इस तरह के कानून ज्यादातर प्रचलित सामाजिक मान्यताओं और धारणाओं के खिलाफ होते हैं। कुछेक आंदोलन चलते भी हैं तो वे महिलाओं द्वारा चलाए जाते हैं, मगर यह काफी नहीं है। पुलिस ही अगर कानूनी मान्यता और धारणा की बात करती है तो यह कानून को कमजोर करने जैसा है। संशोधित उत्तराधिकार कानून 2005 महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर लगाम लगाने का एक नायाब कानूनी तरीका है। औरतों की आजादी के लिए जरूरी है कि उन्हें आर्थिक मजबूती मिले और यह कानून उन्हें आर्थिक बराबरी देता है। महिलाओं के खिलाफ होने वाली कई तरह की हिंसा पर यह कानून रोक लगाता है। खासतौर पर शादी और शादी के भीतर होने वाली हिंसा को खत्म करने का यह एक कानूनी रास्ता है।

हक मांगते वक्त सजग और सावधान रहें

जब महिलाएं इस तरह का कोई कदम उठाएं तो उन्हें चाहिए कि वे संबंधित पुलिस थाने में इसकी सूचना दें। घर में बात करने से पहले घर के लोगों को भी बता दें कि हमने पुलिस को इस बारे में सूचित कर रखा है। अपने हक की मांग करने वाली महिला को जरूरत पड़ने पर पुलिस सुरक्षा मिलनी चाहिए। पुलिस को भी ऐसे मामलों में सजग रहना चाहिए।

सामाजिक धारणाओं के खिलाफ सार्वजनिक घोषणा

महिलाओं को यह हक मिले इसके लिए सरकारी, प्रशासनिक स्तर पर आंदोलन हों। किसी चीज को व्यक्तिगत तौर पर गलत मानना उस गलत को ठीक करने में उतना मददगार नहीं होता जितना कि सार्वजनिक तौर पर उस गलत को स्वीकार कर उसे खुद न करने का संकल्प लेना है, लोगों से वादा करना है। ऐसे आयोजन करवाए जा सकते हैं जिसमें लड़कियों और महिलाओं की सामाजिक और कानूनी स्थिति बेहतर बनाने के लिए कुछ वादे करवाए जाएं। मां-बाप बेटियों के उत्तराधिकार के लिए बने कानून का पालन करने की सार्वजनिक घोषणा कर सकते हैं। ऐसे मां-बाप का सम्मान और सराहना की जानी चाहिए। इससे दूसरे लोग भी सामाजिक सम्मान से जोड़कर ऐसे कदम उठाने के लिए प्रेरित होंगे।

दहेज से लड़ने का नायाब हथियार

दहेज जैसी कुप्रथा को भी महिलाओं को पैतृक संपत्ति पर मिले अधिकार से खत्म किया जा सकता है। दहेज न देकर लड़की के घर वाले प्रॉपर्टी में लड़की को हिस्सा दें। खुद लड़की भी यह मांग कर सकती है। इससे दहेज जैसी कुप्रथा पर भी लगाम लगाई जा सकती है।