प्रियदर्शी रंजन।

स्व. कैलाशपति मिश्र के कार्यकाल को छोड़ दें तो भाजपा में नेतृत्व के सवाल पर हमेशा विवाद होता रहा है। ऐसा कोई प्रदेश अध्यक्ष नहीं हुआ जिसे पार्टी के सभी नेताओं का समर्थन मिल पाया हो। यह स्थिति आज भी है। सांसद भोला सिंह अगर प्रदेश नेतृत्व की आलोचना कर रहे हैं तो पार्टी की इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। इसी तरह गोपाल नारायण सिंह को राज्यसभा में भेजे जाने को सुशील मोदी की पराजय के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है तो यह भी उसी कर्मकांड का अगला हिस्सा है। एक और उदाहरण- विधानसभा में नंदकिशोर यादव की जगह प्रेम कुमार विरोधी दल के नेता हुए तो इसे भी एक गुट की पराजय के तौर पर देखा गया। ताजा मामला भाजपा प्रदेश अध्यक्ष को लेकर है।
अपने बयानों से पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी करने वाले फिल्म स्टार सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने मीडिया से बातचीत के दौरान मंगल पांडे के अब तक प्रदेश अध्यक्ष बने रहने पर सवाल खड़ा किया। वे सवालिया लहजे में प्रदेश अध्यक्ष की बात पर मीडिया से पूछ बैठे कि अब तक मंगल पांडे ही अध्यक्ष बने हुए हैं? शत्रुघ्न सिन्हा का यह सवाल मीडिया के लिए मामूली था क्योंकि वे कई बार अपनी ही पार्टी की आलोचना कर चुके हैं। पार्टी ने भी उनके इस सवाल का जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। मगर इस सवाल ने कई गुटों में बंटी भाजपा के उन गुटों को मुखर होने का मौका दे दिया जो वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष का विरोध कर रहे हैं और उन्हें एक और मौका देना नहीं चाहते।

दरअसल, बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के हाथों मिली करारी हार के बाद से ही यह कयास लगया जा रहा था कि नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए मंगल पांडे प्रदेश अध्यक्ष पद छोड़ देंगे। मगर छह महीने से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी ना तो पांडे ने अध्यक्ष पद छोड़ा और न ही उनका कार्यकाल पूरा होने के बाद अब तक नए प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा की गई है। पाटलीपुत्र के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, बेगुसराय के सांसद भोला सिंह, मधुबनी के सांसद हुकुमदेव नारायण यादव और नवनिर्वाचित राज्यसभा सदस्य गोपाल नारायण सिंह जैसे नेता लगातार प्रदेश नेतृत्व पर सवाल उठाते रहे हैं। भोला सिंह ने मंगल पांडे को सुशील मोदी का जेबी प्रदेश अध्यक्ष तक करार दे दिया। बावजूद इसके पांडे प्रदेश अध्यक्ष पद पर बरकार रहे और अध्यक्ष पद का चुनाव टलता गया। पार्टी आलाकमान के लिए संकट यह है कि प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव की तारीख ज्यों ज्यों बढ़ती जा रही है उतने ही अधिक दावेदारों के नाम सामने आ रहे हैं। सूत्रों की मानें तो केंद्रीय नेतृत्व जल्दबाजी में किसी ऐसे नाम पर फैसला नहीं करना चाहता जिससे विवाद खड़ा हो जाए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि कई दावेदारों के उभरने के पीछे विधानसभा चुनाव की हार है। इस हार के बाद पार्टी का कोई नेता खुद को किसी से कमतर मानने को तैयार नहीं है। पार्टी में नए दावेदारों की फौज खड़ी हो गई है। चुनाव में पुराने नेताओं के चूका हुआ साबित होने के बाद उन्होंने खुद को प्रमोटेड मान लिया है। जबकि पुराने नेता अब भी खुद को कमजोर नहीं मानते। शायद यही कारण है कि पिछले कुछ महीनों से प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव का मामला लंबित है।

केंद्रीय नेतृत्व को इस बात का इल्म है कि उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले अगर बिहार में प्रदेश अध्यक्ष को लेकर बगावत होता है तो इसका संदेश पड़ोसी राज्य में ठीक नहीं जाएगा। भाजपा प्रवक्ता संजय टाइगर पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को पार्टी की खूबी बताते हुए कहते हैं कि इसी वजह से प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए कई दावेदार मैदान में हैं। भाजपा में लोकतंत्र जिंदा है। अन्य पार्टियों में तो राजघराने की स्टाइल में अध्यक्ष की घोषणा कर दी जाती है। अध्यक्ष बनने की बात तो बहुत दूर है राजा की मर्जी के बगैर अन्य दलों में कोई दावेदार भी नहीं उभर सकता। वहीं पूर्व विधायक प्रेम रंजन पटेल नये-पुराने दावेदारों के मसले को खारिज करते हुए अध्यक्ष पद के चुनाव में हो रही देरी को केंद्रीय मंत्रिमंडल विस्तार से जुड़ा हुआ मानते हैं। पटेल के मुताबिक प्रदेश अध्यक्ष का फैसला मोदी मंत्रिमंडल में विस्तार के बाद संभव है।

दावेदारों का दम
प्रदेश अध्यक्ष पद के दावेदारों में वर्तमान अध्यक्ष मंगल पांडे के अलावा दर्जनों नामों में भाजपा जातीय समीकरण को सधाने की कोशिश करेगी। विधानसभा में विपक्ष के नेता अति पिछड़ी जाति के प्रेम कुमार हैं तो विधान परिषद में पिछड़ी जाति के सुशील कुमार मोदी पार्टी के नेता हैं। ऐसे में इसकी संभावना अधिक है कि प्रदेश अध्यक्ष अगड़ी जाति के नेता को बनाया जाए। वैसे पिछड़ी जाति से राजेंद्र गुप्ता व प्रेम रंजन पटेल का दावा भी मजबूत माना जा रहा है। राजेंद्र गुप्ता संगठन में अपनी काबिलियत साबित कर चुके हैं। उनके ससुर शत्रुघ्न प्रसाद बिहार के संघ कार्यवाह रह चुके हैं। संघ की तरफ से समर्थन मिलने की उम्मीद से उनकी दावेदारी मजबूत है। पिछड़ी जाति से ही प्रेम रंजन पटेल का दावा उनकी विरोधियों को जवाब देने की क्षमता पर निर्भर करेगा। दलित कोटे से पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान व जनक चमार भी दावेदार हैं। पासवान को जनाधार वाला नेता माना जाता है। वे भूमिहार बाहुल्य नवादा से चुनाव जीत कर सवर्णों में अपनी पैठ जमा चुके हैं। वहीं जनक चमार बसपा से आयातित और एक जाति विशेष के नेता के तौर पर जाने जाते हैं।

जाहिर है जातीय समीकरण के आधार पर प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए सवर्णों की प्रबल दावेदारी है। अगड़ी जाति के करीब दर्जन भर दावेदार अध्यक्ष पद के लिए दावा ठोक रहे हैं। इनमें भूमिहार जाति से पूर्व केंद्रीय मंत्री व राज्यसभा सदस्य डॉ. सीपी ठाकुर, विधान पार्षद व पार्टी के केंद्रीय सचिव रजनीश कुमार, प्रदेश संगठन मंत्री सुधीर शर्मा व केंद्रीय राज्य मंत्री गिरिराज सिंह शामिल हैं। वहीं राजपूतों में सांसद जनार्दन सिंह सिंग्रिवाल, राजेंद्र सिंह, केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह और ब्राह्मणों से मंगल पांडे व विनोद नारायण झा के अलावा हरेंद्र प्रताप का नाम प्रमुख है।

पिछले दिनों हुए राज्यसभा चुनाव के उम्मीदवारों में सुशील कुमार मोदी और शाहनवाज हुसैन का नाम सबसे आगे चल रहा था। मगर केंद्रीय आलाकमान ने दोनों को छांटते हुए गोपाल नारायण सिंह को दिल्ली बुलाने का फरमान सुना दिया। इससे सुशील मोदी की पिछले दो दशक में पार्टी में जमी जमाई धाक को धक्का लगा। इसे आठ बार विधानसभा चुनाव हार चुके गोपाल नारायण सिंह की जीत और मोदी समर्थक गुट की हार के तौर पर प्रचारित किया गया। अब जब प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव का सवाल है तो भी पार्टी में गुटबाजी हावी है। ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि दर्जन भर दावेदारों में से किसे या फिर किसी छुपे रुस्तम को प्रदेश की कमान मिलेगी। 