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दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है. इसलिए इस राज्य को सत्ता के खजाने की ‘मास्टर की’ भी माना जाता है. इस लिहाज से लोकसभा चुनाव आते ही सबसे ज्यादा चुनावी समीकरण बनने-बिगडऩे का खेल अगर कहीं होता है, तो वह है उत्तर प्रदेश. यह वही राज्य है, जिसने भारत को कई प्रधानमंत्री दिए, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी वाराणसी से सांसद हैं. बहरहाल, पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन ने 80 में से 73 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया था.

सपा और बसपा के बीच बंटे इस राज्य का चुनावी गणित तबसे जरा बदल गया है, जबसे भाजपा सत्ता में आई है. फिलहाल यहां भाजपा, कांग्रेस और महागठबंधन के बीच त्रिकोणीय मुकाबले के आसार नजर आ रहे हैं. मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए जो तस्वीर उभर कर सामने आती है, उसमें भाजपा पहले, महागठबंधन (सपा-बसपा-रालोद) दूसरे और कांग्रेस तीसरे नंबर पर दिख रही है.

सब पर भारी भाजपा

केंद्र में मोदी और राज्य में योगी की जुगलबंदी ने न सिर्फ यहां के जातीय एवं धार्मिक समीकरण बदले, बल्कि राष्ट्रीय भावना का संचार करके सकारात्मक माहौल तैयार कर दिया है. मोदी सरकार की ज्यादातर योजनाओं-नीतियों का फायदा गांव-कस्बों को मिलने से भाजपा का इस राज्य में जनाधार मजबूत हुआ है. वहीं तीन तलाक के मुद्दे पर अल्पसंख्यक वोट, खासकर महिलाओं के बतौर समर्थन पार्टी को मिलने की संभावना भी बढ़ी है. इसके अलावा महाकुंभ के अंतरराष्ट्रीय स्तर के आयोजन और उसकी सफलता ने भाजपा के लिए एक बड़े तबके के बीच सकारात्मक माहौल तैयार कर दिया है. सर्जिकल स्ट्राइक जैसे सख्त फैसले ने भी भाजपा की राष्ट्रवादी छवि मजबूत करके लोगों को ‘जातीय खोल’ से बाहर निकलने के लिए मजबूर कर दिया है. भाजपा के पक्ष में एक बात यह भी जाती है कि अगड़ी जातियों के वोट बढ़े हैं. दरअसल, सीएसडीएस समेत कई अन्य सर्वे यह रुझान देते हैं कि भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा हो या बुरा, प्रदेश में अगड़ी जातियों के 50 प्रतिशत से अधिक वोट उसके खाते में गए हैं. साल 1996 और 1998 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को अगड़ी जातियों के 54 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि 1999 के लोकसभा चुनाव में 63 प्रतिशत. इसी तरह 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में उसे अगड़ी जातियों के 52 प्रतिशत वोट मिले थे. और, 2014 के चुनाव में यह आंकड़ा बढक़र 60 प्रतिशत तक पहुंचा था.

महागठबंधन का जोर

रही बात सपा-बसपा की, तो जिस तरह दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, उसी तर्ज पर अखिलेश यादव एवं मायावती ने भाजपा के खिलाफ हाथ मिलाकर महागठबंधन तैयार किया है. इसलिए लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, अगर यूपी के चुनावी ट्रेंड की बात की जाए, तो राष्ट्रीय से लेकर क्षेत्रीय पार्टियां तक, जातिगत समीकरण के आधार पर ही राजनीति की चौसर पर बिसातें बिछाती रही हैं. यूपी में बनने वाला गठबंधन भी इसी फॉर्मूले पर आधारित है. सपा का आधार वोट बैंक यादव एवं मुस्लिम माना जाता रहा है और बसपा का आधार वोट बैंक एससी-एसटी. ऐसे में रालोद, जिसकी पश्चिमी यूपी में जाट बिरादरी पर अच्छी पकड़ मानी जाती है, तीनों मिलकर जातीय गणित की गोटियां बिछा रहे हैं. जातीय आंकड़ों की मानें, तो ओबीसी यानी पिछड़ों का प्रतिशत 40 पार करता हुआ दिखाई दे रहा है, जबकि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के वोट 21 और मुस्लिम वोट 19.5 प्रतिशत के आसपास माने जाते हैं. इस लिहाज से सपा-बसपा महागठबंधन का प्रयास यह होगा कि इस वोट बैंक में सेंधमारी को किसी तरह रोका जाए, लेकिन इन दोनों के इतिहास को देखते हुए असली चुनौती आपस में तालमेल को लेकर है.

कमजोर पड़ती कांग्रेस

कांग्रेस ने सपा-बसपा द्वारा मिले रिजेक्शन की प्रतिक्रिया में आक्रामक रुख अपनाते हुए ‘ब्रह्मास्त्र’ के तौर पर प्रियंका गांधी वाड्रा को मैदान में उतार दिया है, लेकिन चुनाव प्रबंधन के नजरिये से वह अभी बहुत पीछे है. प्रियंका भी राज्य में उतना प्रचार नहीं कर पाईं, जितनी उनसे उम्मीद की गई थी. राहुल भी ऐसा कोई मुद्दा नहीं उठा पाए, जो उत्तर प्रदेश में उनकी सियासी जमीन तैयार कर सके. इस लिहाज से चुनावी दौड़ में कांग्रेस कमजोर दिख रही है. वैसे भी उसके पास फिलहाल खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है.

जोडिय़ों की जुगलबंदी

2019 का चुनावी मुकाबला उत्तर प्रदेश में खासा अहम होगा, क्योंकि इस बार तीन जोडिय़ां मैदान में हैं. पहली भाई-बहन यानी राहुल एवं प्रियंका, दूसरी बुआ-भतीजा यानी मायावती एवं अखिलेश और तीसरी मोदी-योगी एक-दूसरे के आमने-सामने हैं. भाजपा ने तय कर लिया है कि वह इस चुनाव में 51 प्रतिशत वोटों के साथ 73 प्लस का लक्ष्य हासिल करेगी. पार्टी का दावा है कि मोदी-योगी की जोड़ी 2014 का इतिहास यूपी में दोहराएगी. सपा-बसपा की दोस्ती बहुत मुश्किल से हुई है यानी वे ऌइस चुनाव को लेकर खासे गंभीर हैं. लेकिन, किस जोड़ी का जादू चलेगा, यह आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा. हालांकि, बेरोजगारी, किसानों की समस्याएं जैसे मुद्दे भी हैं, लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर नहीं. बहरहाल, इस चुनावी तिलिस्म का हर भेद आने वाले दिनों में खुल जाएगा. त्र

पश्चिमी उत्तर प्रदेश विकास पर भारी जातीय समीकरण

किसी इलाके की अहमियत चुनावी दिनों में वहां होने वाली सियासी सरगर्मियों से तय हो जाती है. इस लिहाज से लोकसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान की शुरुआत मेरठ से की थी. इस बार भी इस टोटके को दोहराया गया. बहरहाल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, मुस्लिम, दलित, किसान, धर्म और गठबंधन से जुड़ी राजनीति के इतने कोण हैं कि इसे समझना किसी मुश्किल पहेली को हल करने से कम नहीं है. फिर भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनावी समीकरण समझने के लिए कई अंदरूनी जातीय पेंच भी समझने की जरूरत है. आधारभूत समस्याओं की बात करें, तो यहां के किसान काफी नाराज हैं, क्योंकि गन्ने के भुगतान की व्यवस्था अभी तक नहीं बदली. खेती के लिए मिलने वाली बिजली भी महंगी होने से आक्रोश है. हालांकि, पिछले लोकसभा चुनाव में दंगा एक बड़ा मुद्दा था, लेकिन इस बार गन्ने का भुगतान, विकास कार्य और छोटे-छोटे स्थानीय मुद्दे प्रभावी हैं. रही बात जातीय समीकरण की, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गुर्जर एवं सैनी जैसे पिछड़े वर्ग के वोटर ‘डिसीजन मेकर्स’ के रोल में दिखते हैं. इसी के मद्देनजर भाजपा ने कंवर सिंह तंवर पर दांव लगाकर गुर्जर समुदाय को अपने पाले में करने की कोशिश की है. वहीं सैनी एवं मौर्य वोटरों को रिझाने के लिए संभल से परमेश्वर लाल सैनी और बदायूं से स्वामी प्रसाद मौर्य की पुत्री संघमित्रा मौर्य को टिकट दिया है. यही नहीं, भाजपा ने आंवला में धर्मेंद्र कश्यप और बरेली में संतोष गंगवार पर दांव खेला है. उधर सपा-बसपा-रालोद महागठबंधन भाजपा को टक्कर देने के लिए तैयार दिख रहा है, लेकिन मजबूरी में बना यह गठबंधन कितना कारगर साबित होगा, भविष्य ही बताएगा. कुल मिलाकर हर दल यहां की जाट, मुस्लिम एवं दलित राजनीति को अपने पक्ष में करने के लिए जोर लगाता दिख रहा है. कौन बाजी मारेगा, यह 23 मई को पता चलेगा.