प्रियदर्शी रंजन

अभी ज्यादा दिन नहीं गुजरे हैं जब बिहार सरकार में भाजपा कोटे से पर्यटन मंत्री प्रमोद मिश्रा ने उपेंद्र कुशवाहा की सियासी हैसियत आंकते हुए कहा था, ‘राष्ट्रीय लोक समता पार्टी अगर एनडीए से बाहर चली जाती है तो एनडीए की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। भाजपा और एनडीए एक समुद्र की तरह है। समुद्र से एक लोटा पानी निकाल लेने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।’ इस बात को रालोसपा ठीक तरीके से भुला भी नहीं पाई थी कि उपेंद्र कुशवाहा की ओर से आयोजित इफ्तार पार्टी में एनडीए का न तो कोई विधायक पहुंचा और न ही कोई मंत्री। भाजपा ही नहीं बल्कि एनडीए के दो और बडेÞ घटक दल जदयू और लोजपा के शीर्ष नेताओं ने भी कुशवाहा की दावत से किनारा कर लिया। ये तो गनीमत थी कि दावत के आखिरी लम्हों में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय पहुंच गए। अगर वे नहीं आते तो कुशवाहा की और फजीहत होती। मौके की नजाकत को भांपकर कुशवाहा और राय ने घिसीपिटी बात कह कर हालात पर पर्दा डालने की कोशिश की। दोनों नेता कहते रहे कि एनडीए में सबकुछ ठीक है। लेकिन जब ओपिनियन पोस्ट ने पूछा कि भाजपा के अन्य बड़े नेता और एनडीए के अन्य दलों के नेता क्यों नहीं आए तो उपेंद्र कुशवाहा ने जबाब दिया, ‘मुझे लगता है कि व्यस्तता की वजह से नहीं आए। सुशील मोदी का अपने क्षेत्र में कार्यक्रम था इसलिए नहीं आ सके। नित्यानंद जी यहीं बैठे हैं, पूछ लीजिए, इनसे भी बात हुई थी।’
उपेंद्र कुशवाहा भाजपा और एनडीए नेताओं की गैर मौजूदगी पर भले ही कोई दलील पेश करें मगर जिस तरह से एनडीए के नेताओं ने कुशवाहा के सियासी इफ्तार पार्टी से कन्नी काटी है उससे साफ है कि एनडीए फिलहाल कुशवाहा से कोई मान-मनौव्वल नहीं करने वाली है। भाजपा के एक नेता के अनुसार, अगर कुशवाहा को एनडीए में रहना रहना है तो हमारी शर्तों पर रहें। हम जब नीतीश कुमार के ताप को बर्दाश्त नहीं कर रहे हैं तो उपेंद्र कुशवाहा को भी अपनी हैसियत का आकलन कर लेना चाहिए।
दरअसल, पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से हालात बदले हैं उसमें उपेंद्र कुशवाहा और उनकी पार्टी को एनडीए गंभीरता से लेने को तैयार नहीं दिख रही है। मगर कुशवाहा भी अपना अंदाज बदलने को तैयार नहीं हैं। पहले भाजपा सरकार के केंद्र में चार साल पूरा होने के उपलक्ष्य में पटना में आयोजित भोज में बिहार में होते हुए भी वे नहीं पहुंचे और अपने प्रतिनिधि को भेज दिया। इस पर भाजपा ने कुछ बोलने की बजाय चुप्पी साध ली। फिर एनडीए के घटक जदयू और लोजपा की ओर से आयोजित इफ्तार दावत में आमंत्रण के बाद भी वे नहीं गए। उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी की ओर से आयोजित इफ्तार दावत से भी कुशवाहा गैर हाजिर रहे। माना जा रहा है कि वे एनडीए में अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। राजनीतिक जानकारों की मानें तो एनडीए में रालोसपा को भाजपा से कहीं अधिक परेशानी जदयू से है। जबसे जदयू और भाजपा का पुनर्मिलन हुआ है कुशवाहा के लिए हालात गंभीर हो गए हैं। जातीय आधार पर बंटे बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले विश्लेषकों का कुछ ऐसा ही मानना है। बिहार की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले प्रो. प्रभाकर कुमार के मुताबिक, ‘बिहार की राजनीति में उपेंद्र कुशवाहा की बढ़ती ताकत से सबसे ज्यादा परेशान नीतीश कुमार ही हैं। रालोसपा में दो फाड़ होने का मामला दो साल पुराना है, लेकिन इस विभाजन को नीतीश कुमार ने हाल के दिनों में खूब हवा दी। दरअसल, भाजपा गुपचुप तरीके से नीतीश के ‘आॅपरेशन फिनिश उपेंद्र कुशवाहा’ में मदद कर रही है। नीतीश और भाजपा दोनों को ही लोकसभा चुनाव से पहले इसे पूरा करना है क्योंकि उन्हें कुशवाहा की राजनीतिक ईमानदारी पर शक है।’
राजनीतिक जानकार प्रवीण कुमार मिश्रा का कहना है, ‘पिछले कुछ वर्षों के दौरान उपेंद्र कुशवाहा सफलतापूर्वक अपनी नैया को खेते रहे हैं मगर अब पेंच फंस गया है। उनका अड़ियल रवैया और अपनी बात मनवाने की हठधर्मिता भाजपा और जदयू दोनों को रास नहीं आ रही है। उनका कद छोटा करने के लिए नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी के अलावा अन्य कुशवाहा नेताओं को भी भीतरखाने शह देना शुरू कर दिया है। इस खेल में भाजपा भी जदयू के साथ है क्योंकि कमजोर कुशवाहा को काबू करने में भाजपा को आसानी होगी। हाल के दिनों में रालोसपा के नागमणी बार-बार दुहराते रहे हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए का चेहरा उपेंद्र कुशवाहा को होना चाहिए। यह बयान भी आग में घी का काम कर रहा है।’ नागमणि ने कहा था कि अगर लोकसभा और विधानसभा चुनावों में एनडीए को बड़ी कामयाबी चाहिए तो उसे बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर उपेंद्र कुशवाहा को अपना उम्मीदवार घोषित करना होगा। लोकसभा में जदयू के दो सांसद और रालोसपा के तीन सांसद के आधार पर नागमणि का दावा है कि जदयू के मुकाबले रालोसपा बड़ी पार्टी है इसलिए नीतीश कुमार को नेता स्वीकार नहीं कर सकते।
उपेंद्र कुशवाहा भले ही यह मानते हों कि बिहार की राजनीति में उनका कद नीतीश कुमार, लालू यादव और रामविलास पासवान से मुकाबले का हो गया है जिसे नजरअंदाज करना किसी भी गठबंधन के लिए आसान नहीं होगा लेकिन एनडीए में उनके भविष्य का आकलन राजनीतिक पंडितों ने अभी ही तय कर दिया है। बिहार की राजनीति के जानकार सुरेंद्र किशोर के मुताबिक, ‘बिहार में 40 में से 31 लोकसभा सीटों पर अभी एनडीए का कब्जा है। इसमें 2014 में अकेले चुनाव लड़ने वाली जदयू की दो सीटें शामिल नहीं हैं। 2019 के चुनाव में एनडीए को जदयू के साथ भी सीटों का बंटवारा करना होगा। ऐसे में कुशवाहा को नजरअंदाज किया जाना तय है। रालोसपा के नेता इस बात से अच्छी तरह अवगत होंगे कि लोकसभा चुनाव में एनडीए की ओर से उन्हें एक ही सीट मिलने की गुंजाइश है। कुशवाहा और रालोसपा की राजनीतिक हैसियत भी कमोबेश एक या दो लोकसभा क्षेत्र की है। बिहार विधानसभा चुनाव में कोयरी वोट को एनडीए के पाले में न लाने से भाजपा को भी उपेंद्र की वास्तविक ताकत का अंदाजा हो गया है। उनके पास एनडीए छोड़ने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। लेकिन वे मंत्री पद भी नहीं छोड़ना चाहते हैं। संभव है रालोसपा लोकसभा चुनाव से पहले पाला बदल ले। अगर रालोसपा एनडीए के साथ ही बरकार रहती है तो संभव है उसे अपने कद के साथ समझौता करना होगा। जो पहले के मुकाबले छोटा होगा।’
उपेंद्र कुशवाहा हाल के दिनों में राजद नेताओं के साथ भी मेल-मिलाप बढ़ाते रहे हैं। नीतीश कुमार और भाजपा में भी भले ही दूरियां बढ़ रही हों मगर दोनों को उपेंद्र का राजद के करीब जाना एक आंख नहीं सुहा रहा है। गौरतलब है कि दिल्ली के एम्स अस्पताल में लालू यादव के इलाज के लिए भर्ती होने पर उनसे मुलाकात करने वाले सबसे पहले उपेंद्र कुशवाहा ही थे। इसके अलावा हाल के दिनों में तेजस्वी यादव ने भी महागठबंधन में शामिल होने का उन्हें और उनकी पार्टी को खुला आमंत्रण दे दिया। राजनीतिक जानकार डॉ. रजी अहमद मानते हैं कि राजद उपेंद्र कुशवाहा की मुंह मांगी मुराद पूरी कर सकती है। बकौल डॉ. अहमद, ‘राजद आनंद मोहन और पप्पू यादव जैसे क्षत्रपों को आक्रामक तरीके से अपने पाले में करने की कोशिश कर रही है। साथ ही शरद यादव के साथ संभावित गठबंधन कर एनडीए के छोटे हिस्सेदारों के लिए एक प्लेटफॉर्म बना सकती है। खासकर उपेंद्र कुशवाहा को अपने पाले में लाने के बाद राजद के नेतृत्व वाला महागठबंधन का सामाजिक समीकरण एनडीए के लिहाज से मजबूत हो जाएगा। ऐसे में राजद को रालोसपा के मनमुताबिक लोकसभा सीट देने में भी कोई अड़चन नहीं होगी। बिहार में संख्या बल के लिहाज से यादव के बाद कोयरी पिछड़ों की दूसरी बड़ी जाति है। हाल के दिनों में कोयरियों के बीच अपने नेता के कद को बड़ा करने की कोशिश होती दिख रही है। उपेंद्र कुशवाहा कोयरी जाति के अभी एकमात्र स्थापित नेता हैं। भले ही वे 2015 के विधानसभा चुनाव में एनडीए के पक्ष में अपनी जाति का वोट ट्रांसफर नहीं करा पाए मगर राजद के साथ आने के बाद उनकी स्वीकार्यता अपनी जाति में भी बढ़ेगी। कोयरी का मत हमेशा से बिहार में भाजपा विरोधी दलों को मिला है। उपेंद्र कुशवाहा की वजह से यह जाति आक्रामक तौर पर महागठबंधन से जुड़ जाएगी।’ 