-बिहार के लिए पैकेज के ऐलानवाले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भीड़ से कहते हैं कि …नीतीश कुमार ने एक गरीब पिछड़े के बेटे की थाली तो खींच ही ली थी, लेकिन एक महादलित की सारी जमा पूंजी छीन ली… तो समर्थन के नारे गूंजने लगते हैं।
-30 अगस्त को नीतीश की अगुवाई वाले महागठबंधन की स्वाभिमान रैली में लालू यादव नीतीश की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि अब दो पिछड़ों के बेटे एक हो गए हैं…यादवों को तोड़ने की कोशिश हो रही है पर उन्हें हमसे कोई अलग नहीं कर सकता… तो तालियां बजने लगती है।
ये दोनों दृश्य यह बताने को काफी हैं कि बिहार के चुनावी समर में जाति की क्या भूमिका रहनेवाली है। पढ़िए मनोज सिंह की रिपोर्ट

बिहार में चुनावी दस्तक के साथ ही सभी दलों ने सक्रियता बढ़ा दी है. विधानसभा के चुनावी जंग की रणभेरी अब बजी, तब बजी की स्थिति में है. सियासी योद्धा रण में उतरने की तैयारी को अंतिम रूप देने में जुटे हैं. दिल्ली का रुख भी बिहार की ओर है. जनता का मन टटोलने और लुभाने के जतन किये जा रहे हैं. अक्टूबर महीने में विधानसभा चुनाव होने की संभावना है. भाजपा  नेतृत्व में एनडीए और नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजद, कांग्रेस, एनसीपी  महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर होने का अनुमान है. भाजपा बिहार के किसी नेता को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार न घोषित कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को आगे कर विकास के नाम पर चुनाव में उतरेगी. उधर महागठबंधन भी नीतीश कुमार के सुशासन और विकास पुरुष के रूप में उनकी छवि को ही आगे रखकर चुनाव में उतरने का एलान कर चुका है. लेकिन हकीकत है कि विकास का मुद्दा मुखौटा है. राजनीति में जिस तरह से जातिगत समीकरण हावी है,  उसे बिहार के चुनाव में धार देने की कोशिश हो रही है. भले ही हर दल और नेता विकास के नाम पर चुनावी जंग फतह करने का एलान कर रहे हों  लेकिन इससे इतर इस बार भी बिहार की सियासी जंग का सच है – ‘लोकतंत्र की बिसात पर फिर वही जाति के मोहरे होंगे, और विकास के बजाय जाति के सहारे जंग जीतने का राजनीतिक दलों का विश्वास.’ फिलहाल किसी भी दल में जाति के सहारे जंग जीतने के मिथक को तोड़ने का हौसला नहीं दिख रहा है. कथनी में विकास है, लेकिन करनी में जातीय गोलबंदी के प्रयास. इससे कोई दल या गठबंधन अछूता नहीं है. सीट बंटवारे से लेकर उम्मीदवारी तय करने तक जातीय समीकरण का गुणा- भाग चल रहा है.  राजनीति देश की हो या प्रदेश की, जातिवाद का दखल कोई नई बात नहीं है. प्रायः सभी दल पूरी प्रतिबद्धता के साथ अपने-अपने वोट बैंक को बढ़ाने के लिए इस हथियार का इस्तेमाल करते रहे हैं. लेकिन इसे सीधे-सीधे कोई दल स्वीकारता नहीं है.
जातीय समीकरण
मंडल उभार के बाद बिहार में पिछड़ी जातियों का खासा उदय हुआ और उसके बाद से सत्‍ता की बागडोर इनके राजनीतिक नेतृत्व के हाथों में चली गई. साल 1990 से 2005 तक लालू-राबड़ी और इसके बाद से नीतीश कुमार का शासन अभी तक चलता चला आ रहा है. दोनों ही नेता पिछड़ी जातियों से आते हैं. हालांकि, इन नेताओं के आने के बाद पिछड़ी जातियों के वोट भी बंटे. लालू ने जहां यादव-मुसलमान तो नीतीश ने उच्च जातियों, अन्य-पिछड़ी जातियों के कुर्मी-कोइरी और दलितों का एक सामाजिक गठबंधन बना लिया. करीब ढाई दशक से बिहार की राजनीति इसी सामाजिक ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द घूम रही है.

चुनाव की आहट के बाद सभी राजनीतिक दल फिर से जातीय समीकरण को साधने में जुट गए हैं. सूबे में चुनाव पहले से ही जातीय आधार पर लड़े जाते रहे हैं. हालांकि, साल2005 और 2010 के विधानसभा चुनावों के दौरान लगा था कि बिहार के लोग जातीय भावना से अब ऊपर उठ गए हैं, उन्‍होंने इसी में बदलाव के तहत नीतीश कुमार के हाथों में सत्‍ता सौंपी थी. हालांकि, उस समय नीतीश की पार्टी जेडीयू एनडीए का अहम हिस्‍सा थी. परंतु इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन चुनावों में भी वोटों को अपने- अपने तरीके से जाति के नाम पर साधा गया। साल 2015 आते-आते अब सभी दलों का जोर फिर से जातीय समीकरण बिठाने पर है। इसी के तहत भाजपा ने लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान और रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा को साथ लेकर इस वोट बैंक को पक्‍का करने की पूरी रणनीति बनाई. यह जातीय वोट ही हैं जिन्होंने भाजपा को मांझी के साथ आने के लिए मजबूर किया.

नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के सेक्युलर महागठबंधन की जातीय आधार पर हो रही चुनावी ब्यूह रचना का चरित्र बहुत ही आसानी से समझ में आने लायक है. नीतीश के साथ कुछ महादलित जातियां, कुछ प्रतिशत कोइरी, कुर्मी, अति पिछड़ी जातियां और कुछ सवर्ण जातियों के मत संगठित करने की कवायद हो रही है. लालू का जनाधार यादव और मुस्लिम समीकरण के कारण मजबूत माना जाता रहा है. बिहार में यादव एक बड़ी जनसंख्या की जाति मानी जाती है. यादव, मुस्लिम जनमत का साथ महागठबंधन को मिलने से महागठबंधन नीतीश कुमार का पलड़ा मजबूत मान  रहा है.
वहीँ, भाजपा ने रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और जीतन राम मांझी के हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा को अपने से जोड़कर दलितों में दुसाध और मुसहर जैसे बड़े दलित समूह का   समर्थन हासिल करने का प्रयास किया है. उपेंद्र कुश्वाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेतृत्व से भाजपा कुशवाहा मतों के एक बड़े हिस्से को अपने साथ जोड़े हुए हैं. भाजपा जातीय नेताओं और उनके छोटे-छोटे दलों को साथ मिलाने में जुटी है. बनिया और सवर्णों के भाजपा के पक्ष में गोलबंदी पर पार्टी पूरी तरह आश्वस्त दिख रही है.
भाजपा ने पहले महादलित नेता जीतनराम मांझी को अपने पाले में किया, जबकि दलित नेता रामविलास पासवान उसके साथ केंद्र की सरकार में शामिल हैं. भाजपा की यह कवायद भी जातिगत समीकरणों के इर्दगिर्द है. इस बहाने वह पूरे दलित वोट को अपने कब्जे में करने की कोशिश में है। वह मानती है कि भूमिहार समाज के लोगों को साधने में गिरिराज सिंह और राजपूत नेता राधामोहन सिंह के केंद्रीय कैबिनेट में होने का फायदा उसे इस चुनाव में जरूर मिलेगा. वहीँ उपेंद्र कुशवाहा के एनडीए में होने से कुर्मी और कोइरी यानी कुशवाहा जाति के वोटों में भी सेंध लगेगी. वैसे, इन जातियों के वोटों पर पिछले चुनाव तक नीतीश कुमार का कब्‍जा माना जाता रहा है, परंतु कुशवाहा के अलग दल बना लेने से कुछ वोट इस बार कटने का अंदेशा जदयू को भी है.  उधर राजद से निष्कासित पूर्व सांसद पप्पू यादव भी अलग पार्टी बनाकर यादवों का नेता बनने में लगे हुए हैं. भाजपा को उम्मीद है कि सीमांचल में पप्पू महागठबंधन को नुकसान पहुंचाएंगे. हालांकि बिहार में लालू प्रसाद की यादवों और मुस्लिम वोटरों के बीच खास पक़ड मानी जाती रही है. आज बिहार में विभिन्न दलों के नेता जिस वोट बैंक को लेकर सबसे ज्यादा आशंकित हैं, वह है यादवों का वोट. यादव वोट पर लालू प्रसाद यादव का एकाधिकार रहा है. यदि पप्पू यादव, यादवों के वोट काटेंगे, तो उससे आरजेडी को ही नुकसान होगा.

इन दोनों ही गठबंधनों भाजपा के नेतृत्व में एनडीए और नीतीश कुमार के नेतृत्व में धर्म निरपेक्ष महागठबंधन दोनों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि सीटों का बंटवारा किस प्रकार होता है और जीत दिलाने वाले उम्मीदवार अधिक से अधिक किस गठबंधन के पास होते हैं.
बिहार में जातीय हिसाब

यादव : लगभग 14 प्रतिशत
कोइरी : 5 फीसद
कुर्मी : 4 फीसद
अत्यंत पिछड़ा वर्ग : 23 प्रतिशत
मुस्लिम : 16 फीसद
महादलित : 10 फीसद
दलित : 6 पीसद
भूमिहार : 6 प्रतिशत
ब्राह्मण : 5 प्रतिशत
राजपूत : 3 प्रतिशत
कायस्थ : 1 फीसद
बनियाः 7 प्रतिशत
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सम्मेलन बनाम वोटर साधो मुहिम

पटना। यूं तो देश की राजनीति जातिवाद से अछूती नहीं है. लेकिन बिहार जातीय आधार पर चुनाव के लिए बदनाम रहा है. चुनावी मौसम आते ही जातीय सम्मेलनों के सहारे गोलबंदी और वोटों को साधने की सियासत शुरू हो जाती है. इस बार भी चुनावी मौसम के दस्तक देते ही जातीय सियासत चरम पर है.  चुनावी मौसम में दल से लेकर सरकार तक के हर फैसले और कदम पर सियासी रंग चढ़ा दिख रहा है. इसलिए तेली, बढ़ई और चौरसिया जाति को अति पिछड़ा वर्ग में शामिल करने के राज्य सरकार के फैसले को भी इसी नजरिए से देखा जा रहा है। भाजपा नेताओं का मानना है कि नीतीश कुमार ने इसके जरिए जातीय राजनीति का मास्टर स्ट्रोक खेला है। जातियों की गोलबंदी तेज हो गई है. जातीय सम्मेलनों का दौर शुरू हो गया है. इन पर लालू प्रसाद और नीतीश के साथ-साथ भाजपा की भी नजर है. सबका अपना समीकरण है, अपने-अपने दाव हैं. जाहिर है, बिहार में जातियों की जकड़बंदी इस बार भी टूटती नहीं दिख रही है.
चौरसिया सम्मलेन, प्रजापति सम्मेलन, निषाद सम्मेलन, कुर्मी सम्मलेन, गोस्वामी सम्मलेन सहित कई छोटे-बड़े जातीय सम्मलेन हो चुके हैं और चुनाव होने तक यह दौर थमने वाला नहीं है. इन सम्मेलनों में किसी में लालू, नीतीश तो किसी में सुशील मोदी और भाजपा नेताओं ने शिरकत की और गोलबंदी के लिए मनुहार किया. उनकी बेहतरी के वादे किये.