निशा शर्मा 

बलराज साहनी एक ऐसा नाम जिसकी जिन्दगी सादगी और सहजता के दायरे में ही रही। सिनेमा जगत का  एक ऐसा नाम जो स्टाईल, सटारडम से हमेशा दूर रहा। बलराज साहनी को पहचानने और जानने के लिए सिर्फ उनका संवेदनशील अभिनय ही काफी है।

एक ऐसा जाना पहचाना चेहरा जो फिल्मों का दिलीप कुमार नहीं, देवानंद नहीं, राजकपूर नहीं, अमिताभ बच्चन नहीं रहा, लेकिन इन सबके बावजूद वो आज भी फिल्म प्रेमियों के जहन में अपने संजीदा अभिनय के दम पर जिन्दा है। इस अभिनेता की ये सबसे बड़ी खूबी रही कि वो जिस किरदार को निभाने के लिए राजी हुआ वो किरदार मानो उसमें समा गया औऱ सिनेमा के पटल पर वो अमरत्व पा गया।

do-bigha-fअंग्रेजी साहित्य में बैचलर्स की पढाई और हिंदी साहित्य में मास्टर्स यानी अच्छे पढ़े-लिखे होने के बावजूद बलराज साहनी ने हमेशा अभिनय का ही सपना देखा औऱ अपने बचपन के इस शौक को अपने अंदर हमेशा जिंदा रखा। ये शौक ही था जब फिल्मों में अपने किरदार को जीने से पहले वो उनकी जिन्दगी को जीते थे। ‘दो बीघा जमीन’ में कोलकाता कि सड़कों पर साहनी ने रिक्शा चलाकर रिक्शा वालों की जिन्दगी को बड़े करीब से जानना चाहा था ताकि वो अपने किरदार के साथ इंसाफ कर सकें।  दो बीघ़ा ज़मीन में शम्भू महतो का किसान का किरदार जो अपनी ज़मीन बचाने के लिए गाँव छोड़ शहर आया है और रिक्शा खिंचकर पैसा इकट्ठा कर रहा है , हो या फिर फिल्म काबुलीवाला में काबुलीवाला का किरदार, जो लोगो को सामान उधार पर दे देता है, इस उम्मीद में की लोग उसके पैसे एक दिन लौटा देंगे। वही काबुलीवाला जिसे लगता है की ये दुनिया उतनी बेरहम नहीं जितना की लोग कहते है। फिल्म काबुलीवाला के किरदार के लिए साहनी ने एक काबुलीवाले के घर एक महीना बिताया था। दोनों ही किरदारों को फिल्मी पर्दे पर उतारने से पहले साहनी ने हकीकत में उनके बीच जाकर उन्हें जिया और यही वजह है कि इन किरदारों को जीवंत करने के लिए साहनी का कोई विकल्प आज भी नहीं है।

ऐसी कई फिल्में हैं जिसमें उनके किरदारों या फिर किसी गाने को याद करें तो बलराज साहनी एकाएक जहन में आ जाते हैं। फिल्म वक्त में साहनी के निभाए लाला केदारनाथ का किरदार और उन पर फिल्माए गीत “ऐ  मेरी जोहरा ज़बीं, तूझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवां” को लोग आज भी याद करते हैं।बलराज साहनी की तुलना हॉलिवुड और ब्रितानवी व्यवसायिक सिनेमा के चार्ली चेपलिन, वेनेसा रोडग्रेव और राबर्ट रेडफोर्ड जैसे अभिनेताओं से की जा सकती है। हिंदी सिनेमा साहनी ने यथार्थवादी अभिनय का तोहफा दिया ।

साहनी इंडियन प्रोग्रेसिव थियेटर ऐशोसियेशन (इप्टा) के सदस्य रहे यही वजह थी कि वो वामपंथी विचारधारा के नजदीक थे। कहा जाता है कि बलराज साहनी जितने अच्छे अभिनेता थे उतने ही अच्छे इंसान भी। उनके बारे में ये बात मशहूर है कि एक बड़ा नाम होने के बादजूद भी फिल्म की शूटिंग के बाद खाना छोटे कर्मचारियों के साथ ही खाया करते और उनसे मजाक किया करते थे।

बलराज साहनी की जिन्दगी ने दुखों की कईं करवटें ली। पहली करवट में उनकी पत्नी से उनका साथ जिन्दगीभर के लिए उस समय छूट गया जब उन्हे उनकी सबसे ज्याद जरूरत थी। अपने वामपंथी विचारों के चलते वो कईं बार जेल गए। जिसका असर उनकी फिल्मों पर भी पड़ा। जिन्दगी में दुखों की एक करवट उस समय उन पर भारी पड़ी जब उनकी बेटी शबनम का अकाल देहांत हो गया। इसके बाद क्या था बलराज साहनी पूरी तरह टूट गए और ऐसी हिम्मत नहीं कर पाए कि वो दोबारा जिन्दगी से लड़ पाते। फिल्म गरम हवा उनकी आखिरी फिल्म रही। दुख और संघर्ष के किरदार निभाते- निभाते 13 अप्रैल 1973 को जब चारों ओर बैसाखी की धूम थी,  साहनी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। बलराज साहनी जब तक सांस लेते रहे, काम करते रहे। यह एक अच्छा संयोग था की उनकी अंतिम फ़िल्म ‘गरम हवा’ थी  जिसमें सलीम मिर्ज़ा का निभाया हुआ उनका अंतिम किरदार रहा ।शायद ये किरदार उनके सबसे ज़्यादा करीब रहा होगा । जिसमें उनकी जिन्दगी की झलक बंटवारे का दर्द, संघर्ष में गुज़रा जीवन, और हर कदम पर एक लड़ाई शामिल थी।