जिरह/प्रदीप सिंह

क्या भारत में ऐसे हालात बन गए हैं कि यहां लोगों के लिए सुरक्षित रहना मुश्किल हो गया है। क्या देश में लोग इतने असहिष्णु हो गए हैं कि अपने से असहमत लोगों की जान लेने पर उतारू हैं। क्या देश के समर्थ लोगों के लिए देश से बाहर बसने का विचार करने का समय आ गया है। मशहूर फिल्म स्टार आमिर खान की बात मानें तो उनकी पत्नी की नजर में हालात ऐसे ही हैं। आमिर खान ने आखिर ऐसा क्यों कहा? यह सवाल इसलिए कि उन्होंने यह बात तब कही है जब असहिष्णुता का मुद्दा थोड़ा ठंडा पड़ने लगा था। क्या वे इस मुद्दे को गरमाए रखना चाहते हैं। या जो इस मुद्दे को गरमाए रखना चाहते हैं, आमिर उनके लिए इस्तेमाल हो गए। यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि इंडियन एक्सप्रेस के जिस कार्यक्रम में वह बोले उससे सिर्फ दो हफ्ते पहले एक अन्य कार्यक्रम में (पूरी खबर पृष्ठ 34 पर) वे देश में सब कुछ अच्छा बता रहे थे। शाहरुख खान ने भी कुछ समय पहले ऐसा ही कहा था। लेकिन उनकी राजनीतिक पसंद नापसंद सबको पता है। विडंबना देखिए कि शाहरुख खान ने फिल्म बनाई माई नेम इज खान। उसमें उन्होंने भारत में असहिष्णुता की बात नहीं की थी। आमिर खान की कुछ समय पहले फिल्म आई थी पीके। उसमें हिंदू देवी देवताओं का काफी मजाक उड़ाया गया था। फिर भी फिल्म खूब चली।

वही आमिर खान बता रहे हैं कि भारत अब रहने लायक नहीं रह गया है। उनका कथन सार्वजनिक जीवन की मर्यादा का अतिक्रमण है। इसके लिए आमिर खान की आलोचना नहीं, भर्त्सना होनी चाहिए। इस कथन के पीछे उनका इरादा जो भी रहा हो, वह देश को अपमानित करने वाला है। आमिर खान आखिर हैं क्या। वे जो भी हैं वह देश के सिनेमा प्रेमी दर्शकों की वजह से हैं। आमिर ने यह नहीं बताया कि उनकी पत्नी ने जब उनसे यह कहा तो उन्होंने क्या जवाब दिया। लेकिन इस बात को सार्वजनिक करके उन्होंने साफ संदेश दिया है कि वे अपनी पत्नी की बात से असहमत नहीं हैं। उनके बयान पर बवाल मचा तो उन्होंने कहा कि वे देश छोड़कर जा नहीं रहे लेकिन अपनी बात पर कायम हैं। अभिनेता अनुपम खेर ने उनसे एक सवाल पूछा है कि क्या उन्होंने अपनी पत्नी से जानना चाहा कि वे किस देश में जाना चाहती हैं। उसका जवाब तो नहीं आया। लेकिन जवाब आता कम से कम पता चलता कि सहिष्णुता के नजरिए से आमिर खान और उनकी पत्नी किस देश को आदर्श मानती हैं।

देश में असहिष्णुता बर्दाश्त करने की हद से ज्यादा बढ़ने का दावा करने वालों से एक सवाल पूछा जाता है कि इससे बड़े मामलों पर चुप क्यों रहे। इसके जवाब में एक प्रतिप्रश्न आता है कि मान लीजिए उस समय नहीं बोले तो क्या हमने भविष्य में भी बोलने का अधिकार खो दिया। वह सवाल आमिर ने भीकिया। कहा कि  हमसे पूछा जाता है कि 1984 के दंगे के समय क्यों नहीं बोले। बात तो सही है। उस समय नहीं बोलकर गलती की तो उसे सुधारने का अवसर तो मिलना चाहिए। और मान लीजिए कि उस समय की चुप्पी गलती न हो तो भी यह कैसा तर्क है कि असहिष्णुता की दूसरी किसी घटना पर भी नहीं बोल सकते। लेकिन सवाल किसी घटना पर बोलने या न बोलने का नहीं है। जब यह दावा किया जाता है कि ऐसी असहिष्णुता इससे पहले कभीनहीं रही तो पिछली घटनाओं का जिक्र लाजिमी हो जाता है। स्वाभाविक सा सवाल है कि क्या असहिष्णुता उस समय से भीज्यादा है। या सहिष्णुता को बर्दाश्त करने के लिए अलग अलग सरकारों ( पार्टियों) के हिसाब से पैमाना तय होगा। यह कैसा जमीर है जो एक सरकार के कार्यकाल में सो जाता है।

पिछले दिनों देश में जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुर्इं, उनका कोई समर्थन या बचाव नहीं कर सकता। लेकिन उन पर प्रतिक्रिया घटना के अनुपात और तार्किक ढंग से ही हो सकती है। इन सब घटनाओं पर प्रधानमंत्री से सवाल पूछने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन जिन राज्यों में घटनाएं हुईं उनकी सरकारों से कम एक बार तो सवाल पूछा जाए। इस पूरे प्रकरण से दो बातें साफ हैं। एक कि यह प्रतिक्रिया मात्र इन घटनाओं के कारण नहीं है। इस तरह की प्रतिक्रिया के लिए एक वर्ग अवसर का इंतजार कर रहा था। दूसरी यह कि इसे राजनीति से अलग करके नहीं देखा जा सकता। और जब राजनीति होगी तो निहित स्वार्थ भी होंगे। निहित स्वार्थों पर हमला होगा तो उसकी प्रतिक्रिया भी होगी। इस अभियान में तीन तरह के लोग हैं। एक जो जनतांत्रिक ढंग से चुने जाने के बावजूद वैचारिक कारणों से नरेन्द्र मोदी की सरकार को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। दूसरे जो पिछली सरकार के आश्रित थे। तीसरे ऐसे लोग जो विदेशी संस्थाओं के चंदे पर  निर्भर थे। एक चौथी श्रेणी भी है जो मित्रों, साथियों के दबाव में साथ खड़ी हो जाती है। दूसरी तरफ ऐसी सत्तारूढ़ पार्टी है जो बुद्धिजीवियों के साथ अपने को असहज पाती है। उसकी नजर में शायद ऐसे लोग दूसरे ग्रह के हों। इसलिए मुट्ठीभर लोग पूरे देश को असहिष्णु के रूप में चित्रित करने में कामयाब हैं।