गिरेगी नीतीश सरकार या फिर नरेंद्र मोदी सरकार में शामिल होंगे उपेंद्र कुशवाहा एवं मुकेश सहनी. टूटेगा राजद या फिर जदयू में मचेगी भगदड़. लोजपा का बचेगा कुनबा या फिर हाशिये पर जाएंगे जीतन राम मांझी. बस, दिल थाम कर बैठिए, लोकसभा चुनाव के नतीजों की सुनामी उठा देगी इन सवालों से पर्दा. तब पता चलेगा कि कौन था 2019 की जंग का असली सिकंदर और किसके सिर बंध सकता है, 2020 में जीत का सेहरा.

लोकसभा चुनाव के नतीजे 23 मई को आने वाले हैं और इस दिन सूबे में सियासी सुनामी आना तय माना जा रहा है. राजनीतिक पंडि़तों का मानना है कि यह सुनामी एनडीए और महागठबंधन, दोनों को ही अपनी चपेट में लेने वाली है. अब कौन कितना प्रभावित होगा, यह तो मिलने वाली सीटों के आंकड़े तय कर देंगे, लेकिन फिलहाल इस सियासी सुनामी से निपटने के लिए बड़े नेताओं के पसीने छूट रहे हैं. आलाकमान और सुप्रीमो की हैसियत रखने वाले नेताओं की नींदें गायब हैं, क्योंकि 23 मई और उसके बाद का एक-एक पल सूबे में सियासत की नई पटकथा लिखने वाला है. नेता विपक्ष तेजस्वी यादव ने ऐलानिया अंदाज में कह दिया कि 23 मई के बाद कुछ दलों का वजूद खत्म हो जाएगा और नीतीश कुमार इस्तीफा देने राजभवन जाएंगे. तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि बिहार की राजनीति में जबरदस्त उठापटक होगी. भाजपा और जदयू में युद्ध चरम पर है. जदयू विलुप्त होने की कगार पर है. चुनाव से चंद दिन पहले सीतामढ़ी से जदयू के घोषित उम्मीदवार ने चुनाव चिन्ह यह कहते हुए लौटा दिया कि उन्हें प्रचार के लिए कार्यकर्ता नहीं मिल रहे हैं, भाजपा सहयोग नहीं कर रही है. चौथे चरण के मतदान के बाद हालत पतली देखकर दरभंगा के जदयू विधायक ने इस्तीफा दे दिया. समस्तीपुर, हाजीपुर, जमुई, गोपालगंज एवं दरभंगा में एनडीए के उम्मीदवारों को जनता के आक्रोश का सामना करना पड़ा. मतलब साफ  है कि 23 मई के बाद चाचा तो गए’. कुछ  इसी लहजे में नित्यानंद राय का दावा है कि चुनाव के नतीजे महागठबंधन को तबाह कर देंगे और उछल-उछल कर बयान देने वाले कुछ नेता हमेशा के लिए हाशिये पर चले जाएंगे.सपने देखने में बुराई नहीं है, लेकिन जब महागठबंधन के नेताओं की आंखें खुलेंगी, तो अपने खेमे में वे सब कुछ तहस-नहस पाएंगे. तेजस्वी यादव और नित्यानंद राय के दावों के पीछे अपने पक्ष में सीटें जीतने का उनका अपना आकलन है, लेकिन जो मतदान हुआ है, उसके रुझानों का विश्लेषण यह बताता है कि दिल्ली में जो होगा, सो होगा ही, लेकिन पटना का सियासी पारा भी 23 मई से काफी गर्म रहने वाला है.

अब तक के मतदान संकेत दे रहे हैं कि बिहार में केवल भाजपा ही ऐसी पार्टी होगी, जो दो अंकों तक जाएगी. मतलब उसके दस से ज्यादा उम्मीदवार चुनाव जीत सकते हैं. भाजपा सूबे में 17 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और उसके 12 से 13 नेता दिल्ली जा सकते हैं. पार्टी को सारण, अररिया, दरभंगा, बेगूसराय, पटना साहिब, पाटलिपुत्र, बेतिया, मोतिहारी, शिवहर, महाराजगंज, बक्सर, आरा एवं मधुबनी सीटें जीतने की उम्मीद है. चुनाव नतीजे अगर इसी तरह के रहे, तो पार्टी संतोष कर सकती है, लेकिन भाजपा की असली समस्या उसके सहयोगी दलों का कमजोर स्ट्राइक रेट है. जदयू भी 17 सीटों पर भाग्य आजमा रहा है, लेकिन गया, मधेपुरा, मुंगेर, नालंदा, गोपालगंज, झंझारपुर एवं सुपौल में ही उसके बेहतर आसार हैं. वाल्मीकि नगर एवं पूर्णिया में जदयू के उम्मीदवार कड़े मुकाबले में फंसे हुए नजर आ रहे हैं. लोजपा छह में से तीन सीटों पर ही अच्छी स्थिति में है. चुनाव जब शुरू हुए थे, तो यह माना जा रहा था कि मुकाबला एनडीए के पक्ष में होगा और स्कोर 30-10 के आसपास रहेगा, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव बढ़ता गया, महागठबंधन ने अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू कर दी. दो टूक कहा जाए, तो इसके लिए महागठबंधन की कोशिश के बजाय एनडीए की गलतियां सहायक साबित हुईं. पहले चरण के मतदान से पहले नीतीश कुमार के बैनरों में नारा था, सबसे अच्छा और सबसे सच्चा. केवल नीतीश कुमार की तस्वीर वाले इन बैनरों से पटना को पाट दिया गया, लेकिन पहले चरण के मतदान के बाद यह साफ  हो गया कि चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम पर हो रहा है. एनडीए के बहुत सारे उम्मीदवार भले ही खुद को सूरमा समझें, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि उन्हें वोट केवल नरेंद्र मोदी के नाम पर ही मिले. सहयोगी दलों की सीटों पर भी वोटर कई जगहों पर कमल छाप निशान खोज रहे थे. बहुत सारे लोग ऐसे मिले, जिनका कहना था, उम्मीदवार से हमें कोई मतलब नहीं, हम केवल नरेंद्र मोदी को जानते हैं और उन्हें ही वोट देंगे.

जनता की नब्ज भांपने में माहिर नीतीश कुमार को भी पहले चरण के मतदान के बाद इस सच्चाई का एहसास हो गया और उन्होंने बाद की अपनी रैलियों में नरेंद्र मोदी का गुणगान शुरू कर दिया. सहयोगी दलों ने हवाई दावे करके सीटें तो ले लीं, लेकिन उनके पास उम्मीदवारों का घोर अभाव दिखा. सीतामढ़ी के जदयू उम्मीदवार डॉ. वरुण कुमार ने तो अपना टिकट ही वापस कर दिया. बाद में आनन-फानन भाजपा के सुनील कुमार पिंटू को जदयू में शामिल करके उन्हें पार्टी का उम्मीदवार बनाया गया. इसी तरह लोजपा ने लाख विरोध के बावजूद महबूब अली कैसर को खगडिय़ा में अपना उम्मीदवार बनाया. कैसर को क्षेत्र में भारी विरोध का सामना करना पड़ा. इन सबके इतर भाजपा की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि वोट तो नरेंद्र मोदी के नाम पर मिल गए, लेकिन सहयोगी दलों ने अभी से तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं. जदयू का एक तबका बहुमत न मिलने की स्थिति मेें नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनाने की वकालत करने लगा है. एमएलसी गुलाम रसूल वलियावी ने कहा कि नीतीश कुमार के नाम पर बहुमत का गणित सुलझाया जा सकता है. पार्टी के वरिष्ठ नेता केसी त्यागी एक बार फिर विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग उठाने लगे हैं. त्यागी ने यह भी कहा कि नोटबंदी से देश को कुछ खास फायदा नहीं हुआ. धारा 370 हटाने पर जदयू का विरोध तो पहले से ही साफ  है. लोजपा के चिराग पासवान ने भी साफ  किया है कि अगर भाजपा अकेले बहुमत की सरकार बनाती है, तो फिर वह धारा 370 पर निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन अगर मिली-जुली सरकार बनती है, तो सबके राय-मशविरे से ही इस पर फैसला होना चाहिए. मतलब साफ  है कि अगर किसी वजह से नरेंद्र मोदी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तो सहयोगी दल सरकार बनाने में उनका पसीना निकाल देंगे. इसके संकेत जदयू और लोजपा ने देने शुरू कर दिए हैं. यह हाल तो तब है, जब सहयोगी दलों की सीटें जीतने की संभावना कम है. अगर कहीं उनका आंकड़ा बढ़ गया, तो भाजपा को काफी परेशानी का सामना करना पड़ेगा.

अगर बात महागठबंधन की करें, तो मतदान के रुझानों से साफ  हो गया है कि उसकी स्थिति बहुत खराब नहीं रहने वाली है. सहयोगी दल तो 20-20 का दावा कर रहे हैं, लेकिन राजनीतिक पंडित 13 से 15 सीटें देने में गुरेज नहीं कर रहे हैं. बताया जा रहा है कि लालू प्रसाद को सबसे अधिक फायदा मुकेश सहनी को साथ लेने से हुआ है. मल्लाह बिरादरी के ९० प्रतिशत से ज्यादा वोट महागठबंधन के उम्मीदवारों को मिले हैं. लेकिन, यह कारनामा उपेंद्र कुशवाहा एवं जीतन राम मांझी नहीं कर पाए. राजद को सहयोगी दलों के वोटों का पूरा फायदा इसलिए नहीं मिल पाया, क्योंकि बहुत सारी सीटों पर नरेंद्र मोदी के नाम पर यादव बिरादरी के भी 15 से 20 प्रतिशत वोट एनडीए को मिले. इसके बावजूद महागठबंधन को अच्छे नतीजों की उम्मीद है. साथ ही यह भरोसा है कि विधानसभा चुनाव में यादव वोटों का न्यूनतम बिखराव भी नहीं होगा. राजद के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि जदयू के बहुत सारे विधायक तेजस्वी यादव के संपर्क में हैं और नतीजे आने के बाद सही समय पर वे पाला बदल लेंगे, क्योंकि अब संग्राम बिहार विधानसभा का होना है, जिसमें उन्हें लगता है कि राजद के साथ रहने में ही भलाई है. राजद का आकलन है कि जदयू को लोकसभा चुनाव में उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिलने जा रही है, जिससे उसके विधायकों के चुनावी भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगना तय है. कम सीटें आने पर भाजपा भी जदयू के नखरे सहने वाली नहीं है. ऐसे में, बिहार की नीतीश सरकार पर खतरा उत्पन्न हो सकता है. राजद के रणनीतिकार ऐसे ही सियासी पटकथा पढऩे की कोशिश कर रहे हैं, ताकि सही समय पर गर्म लोहे पर करारी चोट की जा सके. तेजस्वी यादव खुद जोर-शोर से इस बात को हवा दे रहे हैं कि 23 मई के बाद पलटू चाचा तो गए.

गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. इन सारी अटकलबाजियों पर भाजपा के प्रवक्ता नवल यादव कहते हैं कि तेजस्वी अभी ललबबुआ हैं, उन्हें आने वाली सुनामी का एहसास नहीं है. सरकार गिराने का सपना देखने वाले तेजस्वी पहले यह सुनिश्चित कर लें कि 23 मई के बाद उनके सहयोगी दल साथ रहेंगे या नहीं. जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा एवं मुकेश सहनी एनडीए से ही उधर गए हैं. नतीजों के बाद अगर जरूरत पड़ी, तो उन्हें इस पाले में आने में कितना वक्त लगेगा, यह सबको पता है. उस समय तेजस्वी यादव को एहसास होगा कि क्रिकेट और सियासत में कितना अंतर होता है. नवल यादव का दावा है कि सभी एक-दूसरे के संपर्क में हैं. यहां तक कि युवराज के बड़े भाई भी कब उनका साथ छोड़ देंगे, यह उन्हें पता भी नहीं चलेगा. इसलिए तेजस्वी पहले अपना दल एवं सहयोगियों को संभालें और सरकार बनाने-गिराने का सपना देखना छोड़ दें. राजनीतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद असली टेस्ट जदयू और राजद को ही देना है. मौजूदा लोकसभा चुनाव के नतीजों का असर राज्य मंत्रिमंडल में भी देखने को मिल सकता है. अगर एनडीए के पक्ष में परिणाम आते हैं या एनडीए के ज्यादा उम्मीदवार अधिक से अधिक सीटों पर कब्जा जमाते हैं, तो राज्य मंत्रिमंडल में भी फेरबदल के आसार उत्पन्न हो सकते हैं. राज्य के तीन मंत्री लोकसभा के चुनावी मैदान में ताल ठोंक रहे हैं, अगर वे जीत जाते हैं, तो उनके स्थान पर किसी अन्य को मंत्री बनाना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में किसी अन्य को प्रभार भी दिया जा सकता है, लेकिन इसके आसार कम दिख रहे हैं. लोकसभा चुनाव लडऩे वालों में जल संसाधन मंत्री राजीव रंजन सिंह उर्फ  ललन सिंह, आपदा प्रबंधन मंत्री दिनेश चंद्र यादव और पशु एवं मत्स्य संसाधन मंत्री पशुपति कुमार पारस शामिल हैं. ललन सिंह मुंगेर, दिनेश यादव मधेपुरा और पशुपति कुमार हाजीपुर सीट से चुनाव मैदान में हैं. इनमें ललन सिंह एवं दिनेश यादव जदयू और पशुपति पारस लोजपा कोटे के हैं. इसके पहले समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा के इस्तीफे के बाद कैबिनेट में किसी महिला को मंत्री बनाए जाने की चर्चा थी. माना जा रहा है, संभावित विस्तार में किसी महिला विधायक को भी जगह मिल सकती है.

हालांकि, जिन्हें मंत्री बनाया जाएगा, उनका कार्यकाल करीब एक साल का होगा, क्योंकि 2020 के अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं. मंत्रिमंडल का विस्तार, वह भी विधानसभा चुनाव से पहले, आसान नहीं होता. इसलिए नीतीश कुमार के लिए भी सबको खुश रखकर मंत्रिमंडल का विस्तार करना आसान नहीं होगा. उन्हें दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है. तेजस्वी पूरी कोशिश करेंगे कि नीतीश सरकार अस्थिर हो और राज्य में समय से पहले चुनाव हो जाएं. दूसरी तरफ  तेजस्वी के सामने भी सहयोगियों एवं परिवार को साथ रखने की चुनौती है. केंद्र सरकार में शामिल होने का लोभ कहीं तेजस्वी यादव के महागठबंधन को तहस-नहस न कर दे, यह डर भी राजद को सताने लगा है. राजद के पक्ष में अगर नतीजे अच्छे नहीं आए, तो फिर तेज प्रताप के प्रकोप का भी सामना तेजस्वी को करना पड़ेगा और उसका सीधा असर राजद की एकता पर पड़ेगा. होना बहुत कुछ है, बस 23 मई तक इंतजार कीजिए.