महानंदा, बाखरा, कंकई, परमार, कोसी एवं उसकी सहायक नदियों में आए उफान के कारण पूर्णिया, किशनगंज, अररिया, दरभंगा, गोपालगंज, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, मधेपुरा, सहरसा समेत बिहार के तेरह जिलों के 69 प्रखंड और 2,274 गांव बाढ़ की चपेट में हैं। बाढ़ से इन जिलों के 31 लाख लोग प्रभावित हैं। इससे 61 लोगों की जान जा चुकी है। इन जिलों में एक लाख हेक्टेयर से अधिक में लगी फसल भी बर्बाद हो गई। जानमाल के नुकसान का यह आंकड़ा मॉनसून के पूरी तरह थमने तक और बढ़ने का अंदेशा है। प्रभावित जिलों में किसी भी अनहोनी से निपटने के लिए राज्य आपदा त्वरित बल (एसडीआरएफ) की तैनाती के साथ सुरक्षित स्थानों पर चार सौ से अधिक राहत शिविर लगाए गए हैं। इनमें तीन लाख से अधिक लोगों ने शरण ले रखी है। राहत शिविरों में सरकार की ओर से चूड़ा, गुड़, माचिस, मोमबत्ती, किरासन तेल समेत अन्य आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराई जा रही है। इसी तरह पशुओं के लिए भी शिविर की वयवस्था की गई है।

बिहार के लिए बाढ़ और इससे होने वाला नुकसान कोई नई बात नहीं है। हर साल जुलाई-अगस्त महीने में मॉनसून की तेजी के साथ राज्य के किसी न किसी इलाके से बाढ़ की खबरें आने लगती हैं। यहां आने वाली बाढ़ हर साल औसतन 200 इंसानों और 662 पशुओं की जान ले लेती है। पौने दो लाख घरों को नुकसान पहुंचाती है, छह लाख हेक्टेयर जमीन डूब जाती है और राज्य को करीब 30 अरब रुपये का चूना लग जाता है। हर वर्ष की तरह बाढ़ ने इस वर्ष भी बिहार के बड़े भूभाग पर कहर बरपाया है जिससे जानमाल का भारी नुकसान हुआ है। हालांकि इस साल अभी तक के नुकसान का आंकड़ा पिछले कई वर्षों की तुलना में औसत से भी कम है। बाढ़ से कम नुकसान हो इसके लिए सरकार ने तमाम अमलों को पूरी तरह से बचाव में झोंक दिया है। लेकिन सरकार के इस प्रयास पर सवाल उठ रहे हैं कि आखिर इससे बचाव के ठोस कदम मॉनसून आने से पहले क्यों नहीं उठाए जाते हैं जबकि यह मालूम है कि यहां हर साल बाढ़ आती है। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी बाढ़ में नुकसान का आंकड़ा घटने की बजाय हर साल बढ़ता क्यों रहा है?

सरकारी नुमाइंदों का मानना है कि बाढ़ प्राकृतिक आपदा है जिससे बिहार समेत देश के कई अन्य राज्य भी जूझ रहे हैं। जदयू प्रवक्ता निहोरा यादव के मुताबिक बिहार के अलावा देश के अन्य राज्यों के साथ चीन जैसे देश में भी हर साल बाढ़ आती है और भारी तबाही मचाती है। किसी भी देश के पास इसे रोकने का मुकम्मल उपाय नहीं है। हम राहत और बचाव कर सकते हैं। राज्य सरकार बाढ़ से बचाव के तमाम उपाय कर रही है। मसलन तटबंधों को मजबूत व ऊंचा करना। जानकार मानते हैं कि उत्तर बिहार में तटबंधों की लंबाई 3,400 किलोमीटर से ज्यादा है। इनमें ज्यादातर तटबंध 1954 की भयंकर बाढ़ के बाद बनाए गए। इन तटबंधों की मौजूदगी के बाद भी बाढ़ कहर बरपाती रही है। कभी नदी में तटबंधों की ऊंचाई से ज्यादा पानी भर जाने की वजह से तो कभी तटबंधों में दरार पड़Þने की वजह से। वर्ष 2008 में भयानक बाढ़ की वजह कोसी पर बने कुसहा बांध का टूटना था। इस वर्ष भी अधिक तबाही की वजह कोसी की सहायक नदी तिलयुगा का सुपौल के एक सुरक्षा तटबंध को तोड़ कर धारा बदलना है।

दरअसल, पिछले छह दशकों से बांध बनाने का आजमाया जा रहा फॉर्मूला अब सवालों के घेरे में है। जल विशेषज्ञ राजीव मिश्रा के मुताबिक, ‘‘आंकडेÞ बताते हैं कि बिहार में तटबंध के जरिये बाढ़ रोकने का उपाय पूरी तरह विफल रहा है। राज्य में पहली बार वर्ष 1942 में बागमती नदी पर तटबंध बनाने का काम शुरू किया गया था। नदी के निचले इलाके में तटबंध कारगार रहा लेकिन ऊपरी इलाके में तटबंध बनाए जाने पर निचले इलाकों में बाढ़ आने की घटनाएं बढ़ गर्इं और तटबंधों में बार-बार दरार पड़ने लगी। इसके बाद भी केंद्र सरकार ने तटबंध बनाने के उपाय को ही उपयुक्त माना। 1980 और 2004 में केंद्र ने बाढ़ प्रबंधन और कटाव नियंत्रण के संबंध में एक टास्क फोर्स का गठन किया था। फिर साल 2006 में केंद्र सरकार ने एक समिति बनाई जो तटबंध निर्माण के पक्ष में थी।’’

कुछ दिनों पहले बिहार विधानसभा के अध्यक्ष विजय चौधरी ने भी एक आलेख के माध्यम से बाढ़ रोकने के लिए सिर्फ तटबंधों के उपाय को पर्याप्त नहीं माना। विजय चौधरी ने माना है कि बिहार में तटबंध बनाने के साथ गाद प्रबंधन किए बगैर नदियों की धार को दुरुस्त नहीं किया जा सकता। जानकार भी मानते हैं कि बिहार की नदियों में बाढ़ की असली वजह बेसिन में गाद का जमा होना है। इससे नदियों में पानी संचित होने पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जल प्रबंधन विशेषज्ञ राम कुमार सिंह का कहना है कि ‘‘नदियों पर जितना भी ऊंचा तटबंध बना लो कम पड़ेगा क्योंकि जितनी तेजी से तटबंध को ऊंचा करते हैं, नदी में उससे अधिक रफ्तार से गाद भरने का सिलसिला चलता रहता है। ज्यादातर गाद अपस्ट्रीम बेसिन इलाके से आती है। इसकी वजह से नदी का जल मार्ग घट जाता है और पानी इकट्ठा होने की क्षमता भी। जाहिर है अगर नदी में वाटर शेड मैनेजमेंट किया जाए तो नदी में गाद जमने की संभावना कम होगी और नदी में पानी जमा होने की क्षमता में बढ़ोतरी होगी।’’

राम कुमार सिंह के अलावा जल प्रबंधन विषेषज्ञ डॉ. अजय वर्मा, सामाजिक कार्यकर्ता सुजीव ठाकुर, पंकज कर्ण, संजय पंकज, प्रो़ कलानाथ मिश्र बाढ़ से निपटने के लिए आजमाए जा रहे इस उपाय पर गाहे-बगाहे सवाल खड़ा करते रहे हैं। 1987 में कोसी पीड़ित विकास प्राधिकरण के गठन के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे ने कहा था, ‘कोसी पर तटबंध बनाने से लाखों लोगों ने अनकही पीड़ा झेली है। देश में शायद ही कोई और ऐसी जगह होगी जहां इतने सारे लोग नदी की धारा में समाते रहे हों। अपने दुर्भाग्य से पीछा छुड़ाने की कोशिश करते-करते इन लोागें ने उम्मीद खो दी है।’ बावजूद इसके बाढ़ रोकने के किसी अन्य महत्वपूर्ण तरीकों को आजमाया नहीं गया। प्रो. कलानाथ मिश्र कहते हैं, ‘नदियों को एक-दूसरे से जोड़ने से लाभ हो सकता था। मगर नदियों को जोड़ने की योजना पैसे के अभाव की वजह से खटाई में पड़ गई। इस योजना से बाढ़ को पूरी तरह रोकना तो संभव नहीं होगा मगर बहुत हद तक इसके कम होने की संभावना है। बाढ़ रोकने की तमाम योजनाएं जब धराशायी हो चुकी हैं तो एक बार इसे आजमाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार को दृढ़ संकल्पित होना होगा।’ प्रो. मिश्र के अलावा और भी विशेषज्ञ बाढ़ रोकने के लिए विभिन्न तरीकों को आजमाए जाने की मुहिम चलाते रहे हैं।

भारत और चीन जैसे देश बाढ़ को रोकने में भले ही कामयाब नहीं हो पाए हों मगर बांग्लादेश जैसे गरीब राष्ट्र ने बहुत हद तक बाढ़ को रोकने में कामयाबी हासिल की है। मामले के जानकार संजीव ठाकुर के मुताबिक बांग्लादेश ने बाढ़ पर बहुत हद तक काबू पा लिया है, वो भी कोई भारी-भरकम खर्च किए बगैर। ठाकुर बताते हैं कि बांग्लादेश ने लघु सिंचाई योजना के तहत, जहां से तटबंध टूटने का खतरा बना रहता था वहां से नहरें निकलवाई। 70 के दशक से पूर्व कोसी की कई छोटी-छोटी धाराएं बहती थीं जो बांध बांधने की वजह से लुप्त हो गईं। सरकार को किसी विकसित देश की बजाय पड़ोसी राष्ट्र का यह तरीका आजमाना चाहिए। 