पं. भानुप्रतापनारायण मिश्र

मां भुवनेश्वरी का छठा स्वरूप ही कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध है। इनका कात्यायनी नाम इसलिए पड़ा क्योंकि कत नामक एक महर्षि के पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं कात्य के गोत्र में कात्यायन नाम के एक प्रसिद्ध ऋषि हुए जिन्होंने भगवती महादेवी से कठोर तपस्या के बल पर वर स्वरूप उनसे अपनी पुत्री होने का वचन ले लिया।

महादेवी ने मनोकामना पूर्ण की। कुछ समय पश्चात महिषासुर राक्षस के अत्याचार बढ़ने लगे और तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। तब त्रिदेवों ने अपने-अपने तेज का अंश प्रकट कर एक तेजोमय पुंज में इकट्ठा किया जिसकी महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम पूजा की। इसीलिए इनका नाम कात्यायनी पड़ा।

इनसे संबंधित एक कथा के अनुसार इन्होंने महर्षि कात्यायन के यहां आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लिया और शुक्ल पक्ष की सप्तमी, अष्टमी और नवमी तक के तीन दिनों में कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी तिथि को महिषाासुर का वध कर तीनों लोकों में शांति पुन: स्थापित की।

माता कात्यायनी ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी है जिनकी पूजा कालिन्दी यमुना नदी के तट पर कर ब्रज की गोपियों को पति के रूप में वर स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण मिले। वृन्दावन में इनका भव्य मंदिर है। इनका स्वरूप अत्यंत दिव्य और भव्य है। सोने के समान इनका चमकीला और भास्वर वर्ण है। चार भुजाओं वाली मां कात्यायनी का दाहिना तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है और नीचे वाला वरमुद्रा में है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल का फूल शोभायमान है।

सिंह इनका वाहन है। छठवें दिन होनेवाली इनकी पूजा में भक्त का मन आज्ञा चक्र में स्थित होता है। मां के चरणों में भक्त अपना सर्वस्व अर्पित कर देता है। तब माता प्रसन्नतापूर्वक अपने भक्तों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फलों को प्रदान करती हैं। इसके साथ ही समस्त जन्मों में किए गए पापों का भी विनाश करती हैं माता कात्यायनी। रोग, शोक और भय का नाश तो होता ही है इनकी पूजा करने से।