लखनऊ। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में जून 1991 में 11 सिख श्रद्धालुओं को आतंकवादी बता कर मार देने वाले 47 पुलिसकर्मियों को लखनऊ की विशेष सीबीआई अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई है। ये तीर्थ यात्री बिहार में पटना साहिब और महाराष्ट्र में हुजूर साहिब के दर्शन कर वापस लौट रहे थे, तभी पीलीभीत के पास उन्हें पुलिस ने बस से उतारा और तीन अलग-अलग जंगलों में ले जाकर गोली मार दी। एक अप्रैल को सीबीआई के विशेष जज लल्लू सिंह ने इन सभी को दोषी करार दिया था।

सीबीआई की विशेष अदालत ने सभी दोषी पुलिसकर्मियों पर जुर्माना भी लगाया है। कोर्ट ने एसएचओ और एसओ रैंक के अधिकारियों पर 11 -11 लाख, इंस्पेक्टर रैंक वाले पुलिसकर्मियों पर 8-8 लाख और प्रत्येक दोषी कांस्टेबल पर 2.75 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है। फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा है कि जुर्माने की धनराशि से मृतक आश्रितों के परिवारजनों  को 14-14 लाख रुपये दिए जाएं। तब पुलिस ने कहा था कि उसने 10 आतंकवादियों को एनकाउंटर में मार गिराया लेकिन जब यह पता चला कि वे सिख तीर्थ यात्री थे तो हंगामा खड़ा गया। इस मामले में 57 पुलिसकर्मियों को आरोपी बनाया गया था लेकिन मामले की जांच के दौरान 10 पुलिस वालों की मौत हो गई। इन हत्याओं का मकसद आतंकियों को मारने पर मिलने वाला पुरस्कार था।

हालांकि मामले के याचिकाकर्ता स्पेशल कोर्ट के फैसले से संतुष्ट नहीं हैं। याचिकाकर्ता हरजिंदर सिंह काहलों ने बताया कि 25 साल बाद फ़ैसला आया है। इतनी देरी के बाद इन लोगों को कम से कम फांसी होनी चाहिए क्योंकि इन लोगों ने बेगुनाह लोगों को मारा था। काहलों ने इस फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि इतना बड़ा हत्याकांड एसपी, डीआईजी और आईजी स्तर के अफ़सरों के आदेश के बिना संभव नहीं है। लगता है कि सीबीआई पर दबाव था और उसने तीनों बड़े अधिकारियों के नाम अभियुक्तों की सूची से बाहर कर दिए और इंस्पेक्टर स्तर तक के पुलिसकर्मियों को अभियुक्त बनाया। काहलों ने मृतकों के परिवार वालों को दिए गए 14-14 लाख रुपये के मुआवजे को भी बेहद कम बताते हुए इसे 50-50 लाख रुपये प्रति परिवार करने की मांग की है।

बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को छोड़ा
29 जून, 1991 को यूपी के सितारगंज से 25 सिख तीर्थयात्रियों का जत्था पटना साहिब, हुजूर साहिब और और नानकमत्ता साहिब के दर्शन के लिए  निकला था। 13 जुलाई को उसे पीलीभीत आना था लेकिन 12 जुलाई को ही पीलीभीत से पहले 60-70 पुलिस वालों ने उनकी बस को घेर लिया और उन्हें उतार लिया। बस में 13 पुरुष, 9 महिलाएं और 3 बच्चे थे। पुलिस ने महिलाओं, बच्चों और दो बुजुर्ग पुरुषों को छोड़ दिया और 11 पुरुषों को अपने साथ ले गए। इनमें से एक तलविंदर सिंह को पुलिस ने मार कर नदी में बहा दिया, जिसकी लाश भी नहीं मिली। बाकी दस सिखों को पुलिस वाले सारे दिन अपनी बस में शहर घुमाते रहे लेकिन रात में उनके हाथ पीछे बांधकर तीन टोलियों में बांट दिया। दो टोली में चार-चार सिख और एक में दो सिख रखे गए। इन सभी को तीन अलग-अलग जंगलों में ले जाकर गोली मार दी गई।

up_policeयह वह दौर था जब पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था। पुलिस ने अगले दिन ऐलान किया कि उसने खालिस्तान लिबरेशन आर्मी और खालिस्तान कमांडो फोर्स के 10 आतंकवादियों को मार गिराया है। तीर्थ यात्रियों के परिवार वालों को जब यह पता चला तो हंगामा हो गया। यह मामला पहले पुलिस के पास था लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सीबीआई जांच शुरू हुई। सीबीआई ने 178 गवाह बनाए, 207 दस्तावेज सबूत के लिए लगाए और पुलिसकर्मियों के हथियार, कारतूस और 101 दूसरी चीजें सबूत के तौर पर पेश कीं। आखिरकार सीबीआई ने अदालत में यह साबित कर दिया कि पुलिस ने अपना “गुड वर्क “दिखाने के लिए तीर्थ यात्रियों को आतंकवादी बता कर मार डाला।

जानकार को भी मारी गोली 
जगत गांव के सरदार बलकार सिंह ने बताया कि उनके छोटे भाई लखविंदर सिंह को भी पुलिस ने मार डाला था। वह सिर्फ 17 साल का था। कुछ जानने वाले तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे तो वह उनके साथ ही चला गया था। हमारी दवा की दुकान है। लखविंदर उस दुकान पर बैठता था। इलाके का थानेदार हमारी दुकान पर आता था। वह लखविंदर को पहचानता था लेकिन उसने उसे इसलिए गोली मार दी कि अगर उसे छोड़ देगा तो वह उसके खिलाफ कहीं गवाही न दे दे।

एनकाउंटर की कहानी फर्जी थी
जांच में पता चला कि पुलिस की एनकाउंटर की कहानी पूरी तरह फर्जी थी। मरने वालों के पोस्टपार्टम में उनके जिस्म पर चोट के तमाम निशान थे। फॉरेंसिक जांच में उस बस में भी गोलियों के निशान मिले जिसमें पुलिस उन्हें ले गई थी। गोलियों के निशान मिटाने के लिए बस को डेंट-पेंट कर दिया गया था। एनकाउंटर में पीएसी को भी शामिल बताया गया लेकिन जांच से साबित हुआ कि पीएसी उस वक्त अपने कैंप में थी। पुलिस के एक थाना इंचार्ज को एनकाउंटर में शामिल दिखाया था लेकिन वह उस वक्त एक अस्पताल में भर्ती था। कोर्ट ने पुलिस से पूछा कि यह कैसे संभव है कि किसी एक जिले में तीन अलग-अलग जंगलों में जो एक-दूसरे से काफी दूर हैं ,एक साथ आतंकवादियों से मुठभेड़ हो जाए? अदालत ने यह भी पूछा कि किसी मरने वाले की लाश उनके घर वालों को क्यों नहीं दी गई? पुलिस ने उनका अंतिम संस्कार क्यों किया? इनमें से किसी भी सवाल का जवाब पुलिस के पास नहीं था। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि जब पुलिस ने युवकों को पकड़ लिया था और उनके पास कोई हथियार भी बरामद नहीं हुआ था तो उन सबको कानून के सामने लाना चाहिए था। उनके खिलाफ कानूनी तरीके से मुकदमा चलाकर कार्रवाई करनी चाहिए थी। मगर ऐसा नहीं किया गया। कोर्ट ने कहा था कि पेश सबूत और गवाहों से पता चलता है जो सिख युवक मारे गए उनको अंतिम बार पुलिस ने अपने कब्जे में लिया और उसके 24 घंटे के अंदर उन सबकी लाशें मिलीं।

श्रद्धालु जिनकी हुई थी हत्या

इस फर्जी एनकाउंटर में मारे गए श्रद्धालुओं मेंं बलजीत सिंह उर्फ पप्पू, जसवंत सिंह उर्फ जस्सी, सुरजन सिंह उर्फ विट्टा, हरमिंदर सिंह, जसवंत सिंह उर्फ फौजी, करतार सिंह, लखमिंदर सिंह उर्फ लक्खा, रंधीर सिंह उर्फ धीरा, नरेंद्र सिंह उर्फ नरेंद्र, मुखविंदर सिंह उर्फ मुक्खा व तलविंदर सिंह शामिल थे।

आतंकवाद के दौर का उठाया फायदा
आतंकवाद चरम पर होने के दौर में पुलिस ने इस घटना को अंजाम दिया। बस में यात्रा करने वाले कुछ यात्रियों की पृष्ठभूमि आतंकवाद की थी। उन पर मुकदमे चल रहे थे। इसी को लेकर पुलिस ने युवकों को बस से उतार कर अगवा किया। बाद में प्रमोशन और विभागीय तारीफ के चक्कर में उन सबकी हत्या कर दी। मुठभेड़ को सही करार देने के लिए पुलिस ने फर्जी कागजात भी बना लिए थे।